'आत्महत्या के प्रयास' पर हमारे दो कानूनों में विरोधाभास क्यों?
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'आत्महत्या के प्रयास' पर हमारे दो कानूनों में विरोधाभास क्यों?

हिमाचल प्रदेश हाईकोर्ट ने पिछले दिनों आत्महत्या की कोशिश के मामले में आईपीसी की धारा 309 में दर्ज एफआईआर को मानसिक स्वास्थ्य अधिनियम 2017 की धारा 115 का हवाला देते हुए रद्द कर दिया और आत्महत्या की कोशिश करने वाले इंसान को जेल जाने से बचा लिया. 

'आत्महत्या के प्रयास' पर हमारे दो कानूनों में विरोधाभास क्यों?

भारत का संविधान देश के हर नागरिक को जीने का अधिकार प्रदान करता है, लेकिन जीवन खुद समाप्त करने का अधिकार किसी को भी नहीं देता है. चाहे उस इंसान की आर्थिक, मानसिक या स्वास्थ्य की स्थिति कैसी ही क्यूं न हो.

आत्महत्या की कोशिश को लेकर हमारे देश के कानूनों में आपसी विरोधाभास पैदा हो गया है. भारतीय दंड संहिता यानी आईपीसी की धारा 309 आत्महत्या के प्रयास को अपराध घोषित करती है, जबकि मानसिक स्वास्थ्य अधिनियम की धारा 115 इसे अपराध के दायरे से बाहर करती है. आत्महत्या के प्रयास पर हमारे देश के कानूनों में विरोधाभास को लेकर सुप्रीम कोर्ट में याचिका दाखिल हुई है. जिसपर कोर्ट ने केंद्र सरकार से पूछा है कि कोई नया कानून, आईपीसी से ऊपर कैसे जा सकता है? साथ ही कहा है कि किसी कानून के प्रावधान को कैसे उचित ठहराया जा सकता है, जो किसी व्यक्ति को आत्महत्या करने की अनुमति देता है?

आईपीसी की धारा 309 के तहत आत्महत्या की कोशिश करने वाला अपराधी है. जिसके लिए एक साल कैद की सजा का प्रावधान है. इसके विपरीत मानसिक स्वास्थ्य अधिनियम की धारा 115 आत्महत्या की कोशिश करने वाले का बचाव करते हुए कहती है कि इंसान आत्महत्या की कोशिश भारी तनाव में करता है, ऐसे में उसे अपराधी मानकर दंडित नहीं किया जाना चाहिए. बल्कि सरकार का यह दायित्व है कि वह आत्महत्या की कोशिश करने वाले इंसान का इलाज कराए, उसका ख्याल रखे और उसका पुनर्वास करने के लिए कदम उठाए.

यहां गौर करने लायक है कि आईपीसी 158 साल पुराना कानून है, जो साल 1862 में लागू हुआ था. जबकि मानसिक स्वास्थ्य अधिनियम 2017 आईपीसी के बाद आया, जो कि जुलाई 2018 में लागू हुआ है. यह सुनिश्चित करता है कि हमारा कानून दिव्यांग व्यक्तियों के अधिकारों पर संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन (UNCRPD) के अनुरूप हो, जिसमें भारत सरकार ने 13 दिसंबर 2006 को हस्ताक्षर किए और फिर भारत में दिव्यांगों की के हितों की रक्षा के लिए मानसिक स्वास्थ्य अधिनियम 2017 बनाया.

अगर हम डब्ल्यूएचओ की रिपोर्ट को देखे तो उसके अनुसार हर पांच में से एक भारतीय अपने जीवनकाल में सामान्य मानसिक विकार और अवसाद का शिकार होता है. लॉ कमिशन ने आत्महत्या की कोशिश को अपराध के दायरे से बाहर के विभिन्न पहलुओं का अध्ययन करने के बाद 17 अक्टूबर 2008 को जारी अपनी 210वीं रिपोर्ट में कहा था कि आईपीसी की धारा 309 खत्म कर दी जानी चाहिए. लॉ कमिशन की सिफारिश के मद्देनजर केन्द्र सरकार ने 10 दिसंबर 2014 को संसद में गृह मंत्रालय के हवाले से कहा कि हमारे 18 राज्य और 4 केंद्र शासित प्रदेश आईपीसी की धारा 309 को खत्म करने के पक्ष में हैं, लेकिन फिलहाल तक आईपीसी में संशोधन कर धारा 309 खत्म नही हुई है.

हमें इस पर हमदर्दी के साथ गौर करने की जरूरत है कि कोई इंसान खुद अपनी जान लेने की मनोदशा में कैसे पहुंचता है. हमारे कानून में खुदकुशी करने में नाकाम व्यक्ति को जेल भेजना एक विचित्र प्रावधान है. आत्महत्या की कोशिश सफल हो जाए, तब तो उस व्यक्ति को सजा देना कानून के वश में नहीं रहता, लेकिन आत्महत्या का प्रयास विफल हो जाए, तो उस व्यक्ति को पुलिस और अदालतों के चक्कर में फंसा दिया जाता है. क्या ऐसा होना चाहिए?

हिमाचल प्रदेश हाईकोर्ट ने पिछले दिनों आत्महत्या की कोशिश के मामले में आईपीसी की धारा 309 में दर्ज एफआईआर को मानसिक स्वास्थ्य अधिनियम 2017 की धारा 115 का हवाला देते हुए रद्द कर दिया और आत्महत्या की कोशिश करने वाले इंसान को जेल जाने से बचा लिया. 

यहां इस बात पर भी जरूर ध्यान देना चाहिए कि जीवित रहना न सिर्फ मनुष्य, बल्कि हर प्राणी की प्राकृतिक इच्छा होती है. कोई भी शौक से मरना नहीं चाहता. न ही उस पर अपराध की भावना इस तरह हावी हो सकती है कि वह अपनी ही जान लेने पर आमादा हो जाए. इसके बावजूद कोई शख्स अपनी जान लेने की हद तक चला जाता है. ऐसा चरम कदम वही उठाता है, जो अपने जीवन की परिस्थितियों से पूर्णत: हताश हो चुका होता है या जो गहन अवसाद, डिप्रेशन से पीड़ित होता है या फिर आर्थिक तंगी, पारिवारिक कलह, विपन्नता और अन्य किसी कारण से अपना जीवन खत्म करने का फैसला कर लेता है. 

जीवन से हारे ऐसे अभागे व्यक्ति को सहानुभूति, सलाह मशविरे और उचित इलाज की जरूरत है. जो व्यक्ति आत्महत्या का प्रयास करने के कारण पीड़ा और अपमान झेल चुका है, उसे कानून के जरिए दंडित करना उचित नहीं है. एक सभ्य एवं संवेदनशील व्यवस्था का फर्ज यह है कि वह उसके हालात को समझने की कोशिश करे और उसे जेल का खाना न खाना पड़े.

ये प्रकृति का नियम है कि समय में परिवर्तन के साथ-साथ जीवनशैली, समाज और कानून में भी परिवर्तन आते हैं, यह नियम पूर्णत: स्वीकार्य है. ऐसे में यहां एक बार फिर ध्यान देने की जरूरत हैं कि आईपीसी 158 साल पुराना कानून है जो 1862 में आया था, जिसमें आत्महत्या की कोशिश अपराध है, इसके विपरीत मानसिक स्वास्थ्य अधिनियम, आईपीसी लागू होने के 156 साल बाद 2018 में आया है. यानी कि हमें समय के साथ परिवर्तन को समझने और स्वीकार करने की जरूरत है.

(लेखक: महेश गुप्ता Zee News के सुप्रीम कोर्ट रिपोर्टर हैं.)
(इस लेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी विचार हैं.)

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