भारत की अर्थव्यवस्था को चालू रखने के लिए कच्चे तेल और सोने जैसे महंगे आयात की जरूरत होती है, जिससे डॉलर की मांग बढ़ती है और रुपये की कीमत कमजोर हो जाती है.
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Rupee vs Dollar: अमेरिकी डॉलर के मुकाबले रुपये में लगातार गिरावट जारी है. शुक्रवार को रुपया 14 पैसे टूटकर पहली बार 86.0 (अस्थायी) प्रति डॉलर के स्तर पर पहुंच गया. अमेरिकी डॉलर के मजबूत रुख और विदेशी संस्थागत निवेशकों की भारी पूंजी निकासी से इंडियन करेंसी लगातार दबाव में है.
अंतरबैंक विदेशी मुद्रा विनिमय बाजार में रुपया 85.88 प्रति डॉलर पर खुला. कारोबार के दौरान यह 85.85 के उच्चतम स्तर पर पहुंचा हालांकि अंत में डॉलर के मुकाबले अबतक के निचले स्तर पर 86.00 (अस्थायी) पर बंद हुआ, जो पिछले बंद भाव के मुकाबले 14 पैसे की गिरावट है. रुपया बृहस्पतिवार को अमेरिकी डॉलर के मुकाबले 85.86 पर बंद हुआ था.
कैसे तय होती है वैल्यू?
विदेशी मुद्रा बाजार में किसी भी मुद्रा की कीमत इस पर निर्भर करती है कि उसकी डिमांड और सप्लाई के बीच का संतुलन कैसा है. यह ठीक वैसे ही है जैसे किसी अन्य प्रोडक्ट की कीमत बाजार में तय की जाती है. जब किसी प्रोडक्ट की डिमांड बढ़ती है और उसकी सप्लाई पहले की तरह ही रहती है, तो प्रोडक्ट की उपलब्धता को कंट्रोल करने के लिए उसकी कीमत बढ़ा दी जाती है.
इसके विपरीत, जब किसी प्रोडक्ट की डिमांड घटती है और स्पलाई पहले की तरह ही होती है तो विक्रेता प्रोडक्ट के लिए अधिक खरीदार आकर्षित करने के लिए उसकी कीमत कम कर देते हैं.
क्यों गिर रहा है रुपया?
रुपये में गिरावट की मुख्य वजह विदेशी निवेशकों का भारत से बाहर जाना है. इससे देश की करेंसी रुपये पर दबाव बढ़ा है. कोरोना महामारी के बाद RBI ने बढ़ती महंगाई के कारण अपनी मौद्रिक नीतियों को सख्त किया था. अब जब महंगाई धीरे-धीरे कंट्रोल में आ रही है, तो ये नीतियां धीरे-धीरे बदल रही हैं. इससे वैश्विक निवेशक भारत से पैसा निकाल कर अपने निवेश को अलग-अलग देशों में स्थानांतरित कर रहे हैं.
विदेशी मुद्रा कारोबारियों का कहना है कि विदेशों में कच्चे तेल की बढ़ती कीमतों और घरेलू शेयर बाजारों में नकारात्मक धारणा के कारण भी भारतीय मुद्रा पर दबाव पड़ा. उन्होंने कहा कि साथ ही 20 जनवरी के बाद डोनाल्ड ट्रंप के नेतृत्व में नए अमेरिकी सरकार के प्रतिबंधात्मक व्यापार उपायों की आशंका के बीच मांग बढ़ने से डॉलर मजबूत हुआ है.
अमेरिका की तुलना में अधिक महंगाई भी वजह
रुपये में लगातार गिरावट की एक वजह भारत में अमेरिका की तुलना में अधिक महंगाई भी है. एक्सपर्ट का मानना है कि भारतीय रिजर्व बैंक (RBI) ने ढीली मौद्रिक नीति अपनाई है जिससे देश में महंगाई ज्यादा है, जबकि अमेरिकी फेडरल रिजर्व ने सख्त नीति अपनाई है.
भारत की अर्थव्यवस्था को चालू रखने के लिए कच्चे तेल और सोने जैसे महंगे आयात की जरूरत होती है, जिससे डॉलर की मांग बढ़ती है और रुपये की कीमत कमजोर हो जाती है. वहीं, निर्यात बढ़ाने में असफलता के कारण रुपये की मांग बढ़ाने में कमी आई है.
रुपये की कीमत स्थिर बनाए रखने के लिए RBI ने अपने विदेशी मुद्रा भंडार का इस्तेमाल किया है.RBI ने विदेशी मुद्रा बाजार में डॉलर की सप्लाई बढ़ाकर रुपये की मांग को स्थिर रखने की कोशिश की है.
यही वजह है कि देश के विदेशी मुद्रा भंडार में भी कमी आई है. भारत का विदेशी मुद्रा भंडार दिसंबर के अंतिम सप्ताह में घटकर 640 बिलियन डॉलर रह गया. जबकि सितंबर में 700 बिलियन डॉलर से अधिक था. विशेषज्ञों का मानना है कि अगर RBI ने हस्तक्षेप न किया होता, तो रुपये की गिरावट और भी ज्यादा होती.
क्या होगा असर?
गिरते रुपये का सबसे बड़ा असर यह है कि आयात महंगा और निर्यात सस्ता हो जाता है. इसका मतलब है कि आयात की समान मात्रा के लिए अधिक रुपये खर्च करने पड़ते हैं, जबकि निर्यात के लिए विदेशी खरीददार को कम डॉलर का भुगतान करना होता है.
भारत अपने कुल तेल का लगभग 80 प्रतिशत आयात करता है. जैसे-जैसे रुपया कमजोर होता है, कच्चे तेल का आयात बिल बढ़ता है. इससे पेट्रोल और डीजल की कीमतें बढ़ सकती हैं.
रुपये में गिरावट का सीधा असर उन छात्रों पर पड़ता है जो विदेश में पढ़ने की प्लानिंग कर रहे हैं. डॉलर के मुकाबले रुपये के कमजोर होने से विदेश में पढ़ाई करना भारतीय छात्रों के लिए महंगा हो जाता है. वहीं, रुपये में गिरावट से आईटी और फार्मा कंपनियों की कमाई में वृद्धि होने की संभावना होती है.