मुस्लिम लीग से गठबंधन, भारत छोड़ो आंदोलन का विरोध... हिंदू महासभा पर खरगे के दावों में कितना दम?
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मुस्लिम लीग से गठबंधन, भारत छोड़ो आंदोलन का विरोध... हिंदू महासभा पर खरगे के दावों में कितना दम?

Hindu Mahasabha and Muslim League Coalition: कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे का आरोप है कि बीजेपी के 'वैचारिक पूर्वजों' ने आजादी की लड़ाई में 'अंग्रेजों और मुस्लिम लीग' का साथ दिया था. इतिहास की नजर से खरगे का यह दावा कितना मजबूत है?

मुस्लिम लीग से गठबंधन, भारत छोड़ो आंदोलन का विरोध... हिंदू महासभा पर खरगे के दावों में कितना दम?

Hindu Mahasabha and Muslim League Alliance: माहौल 2024 के लोकसभा चुनाव का बना है और बात उठी है आजादी से पहले की. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पिछले हफ्ते कहा कि कांग्रेस के घोषणापत्र पर मुस्लिम लीग की छाप है. कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे ने पलटवार किया है. सोमवार को, खरगे ने X (पहले ट्विटर) पर पोस्ट में पीएम मोदी और केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह को निशाने पर लिया. खरगे ने कहा कि 'मोदी-शाह के राजनीतिक और वैचारिक पूर्वजों ने स्वतंत्रता संग्राम में भारतीयों के खिलाफ अंग्रेजों और मुस्लिम लीग का साथ दिया था.' खरगे ने श्‍यामा प्रसाद मुखर्जी का नाम लेकर कहा कि 'सबको मालूम है कि कैसे उन्होंने बंगाल, सिंध और NWFP में मुस्लिम लीग के साथ गठबंधन कर सरकारें बनाईं.' मुखर्जी हिंदू महासभा के बड़े नेता थे और उन्होंने ही भारतीय जनसंघ की नींव रखी. इसी जनसंघ के नेताओं ने आगे चलकर बीजेपी की स्थापना की. खरगे जो दावे कर रहे हैं, क्या वे इतिहास की कसौटी पर खरे उतरते हैं? आइए जानते हैं.

हिंदू महासभा और मुस्लिम लीग का इतिहास

भारत सरकार अधिनियम, 1935 के तहत 1937 में पहली बार प्रांतों में चुनाव हुए. कुल 1,585 सीटों में से कांग्रेस ने 711 पर जीत दर्ज की थी. 11 में से 5 प्रांतों (मद्रास, बिहार, ओडिशा, सेंट्रल प्रोविंस और यूनाइटेड प्रोविंस) में कांग्रेस को पूर्ण बहुमत मिला और बॉम्बे में पार्टी बहुमत के करीब थी. इन सभी में कांग्रेस की सरकार बनी. बाद में कांग्रेस ने नॉर्थ वेस्ट फ्रंटियर प्रोविंस (NWFP) और असम में भी सरकार बनाई. बाकी के तीन प्रांतों- सिंध, पंजाब और बंगाल में गैर-कांग्रेस सरकारें बनीं. सिंध में सिंधु यूनाइटेड पार्टी के नेतृत्व वाले गठबंधन की सरकार थी. पंजाब में सिकंदर हयात खान की यूनियनिस्ट पार्टी ने बहुमत जीता था. बंगाल में फजलुल हक की कृषक प्रजा पार्टी ने मुस्लिम लीग के साथ गठबंधन कर सरकार बनाई. बंगाल में 54 सीटों के साथ कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी थी.

मुस्लिम लीग ने इन चुनावों में कोई बहुत अच्छा प्रदर्शन नहीं किया था. मुस्लिमों के लिए अलॉट 482 सीटों में से उसे सिर्फ 106 पर जीत मिली थी. NWFP में मुस्लिम लीग एक भी सीट नहीं जीत सकी. मुस्लिम-बहुल आबादी वाले पंजाब में मुस्लिम लीग के खाते में सिर्फ 2 सीटें आईं. पार्टी सिंध की 33 रिजर्व्ड सीटों में से सिर्फ 3 ही जीत सकी थी. मुस्लिम लीग की कमान मोहम्मद अली जिन्ना के हाथ में थी.

दूसरी तरफ, हिंदू महासभा ने 1930 के दशक में राजनीति में एंट्री ली थी. विनायक दामोदर सावरकर के नेतृत्व में पार्टी की 1937 के चुनावों में बड़ी दयनीय हालत रही. India’s Struggle for Independence में इतिहासकार बिपिन चंद्रा लिखते हैं कि इसके बाद मुस्लिम लीग और हिंदू महासभा जैसी सांप्रदायिक पार्टियों ने अपने-अपने धर्म के डर और चिंताओं पर फोकस शुरू किया.

हिंदू महासभा और मुस्लिम लीग का गठबंधन

डॉ बीआर आम्‍बेडकर ने अपनी किताब Pakistan or the Partition of India में हिंदू महासभा और मुस्लिम लीग के नेताओं की एक जैसी सोच को रेखांकित किया है. वह लिखते हैं, 'यह भले ही चाहे जितना अजीब लगे, सावरकर और जिन्ना एक राष्ट्र बनाम दो राष्ट्र के मुद्दे पर एक-दूसरे के विरोधी होने के बजाय इस पर पूरी तरह सहमत हैं. दोनों सहमत हैं, न केवल सहमत हैं बल्कि इस बात पर जोर देते हैं कि भारत में दो राष्ट्र हैं - एक मुस्लिम राष्ट्र और दूसरा हिंदू राष्ट्र.' शायद यही सोच इन दो पार्टियों को राजनीतिक रूप से करीब लाने में सफल हुई.

उधर, यूरोप में दूसरा विश्व युद्ध शुरू हो गया था. वायसराय लिनलिथगो ने भारत की ओर से जर्मनी के खिलाफ युद्ध की घोषणा कर दी थी. इस फैसले से पहले भारत के निर्वाचित प्रतिनिधियों से कोई राय नहीं ली गई थी. कांग्रेस ने खुलकर विरोध किया और लार्ड लिनलिथगो से कहा कि वे भारत को युद्ध से दूर रखें. कांग्रेस की मांग थी कि ब्रिटेन युद्ध के बाद भारत की स्वतंत्रता की औपचारिक गारंटी दे. लिनलिथगो के इनकार पर अक्टूबर 1939 में कांग्रेस की सभी सरकारों ने इस्तीफा दे दिया.

प्रांतों में राजनीतिक खलबली मच गई. हिंदू महासभा और मुस्लिम लीग को इसमें राजनीतिक अवसर दिखा. दोनों ने मिलकर सरकारें बनाना शुरू किया. सिंध और NWFP, दोनों मुस्लिम-बहुल प्रांतों में हिंदू महासभा और मुस्लिम लीग ने गठबंधन कर लिया. बंगाल में हिंदू महासभा ने फजलुल हक का समर्थन किया. हिंदू महासभा के सबसे बड़े नेता रहे सावरकर ने मुस्लिम लीग से गठबंधन को 'तर्कसंगत समझौता' बताकर बचाव किया.

1942 में हिंदू महासभा के कानपुर सत्र में सावरकर ने कहा, 'व्यावहारिक राजनीति में... महासभा को ज्ञात है कि हमें तर्कसंगत समझौतों के साथ आगे बढ़ना होगा. हाल ही में सिंध में, सिंध-हिंदू महासभा ने बुलावे पर सरकार चलाने की जिम्मेदारी के लिए लीग से हाथ मिलाया है. बंगाल का मामला जगजाहिर है. जंगली लीग वाले जिन्हें कांग्रेस भी झुका नहीं पाई, हिंदू महासभा और गठबंधन सरकार के संपर्क में आते ही तार्किक समझौते को तैयार हो गए. यह दिखाता है कि हिंदू महासभा के लोग केवल जनहित के लिए राजनीतिक शक्ति के केंद्रों पर कब्जा चाहते हैं, पद की लालसा में नहीं.'

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भारत छोड़ो आंदोलन से किनारा

युद्ध के बाद भारत के दर्जे को लेकर कांग्रेस और वायसराय की बातचीत बेनतीजा रही. फिर महात्मा गांधी ने 8 अगस्त, 1942 को बॉम्‍बे (अब मुंबई) से 'भारत छोड़ो आंदोलन' का आह्वान कर दिया. अगले दिन की शाम ढलते-ढलते अंग्रेजों ने कांग्रेस के लगभग हर बड़े नेता को गिरफ्तार कर लिया था. इससे राष्ट्रवाद की भावना और बलवती हुई. हड़तालों, जुलूसों और रैलियों का सिलसिला चल पड़ा. जनता सड़क पर उतर आई थी.

मुस्लिम लीग और हिंदू महासभा इस आंदोलन का हिस्सा नहीं बने. उन्होंने अपनी सरकारें चलाना जारी रखा. और तो और, अंग्रेजों के युद्ध अभियान के प्रति अपना समर्थन भी वायसराय को दिया. सावरकर ने एक चिट्ठी में हिंदू महासभा के नेताओं से कहा कि वे अपने पदों पर बने रहें और किसी भी कीमत पर भारत छोड़ो आंदोलन में शामिल न हों.

बंगाल सरकार में शामिल रहे मुखर्जी ने भी एक चिट्ठी लिखी. इसमें उन्होंने भारत छोड़ो आंदोलन की 'हार' को अपना समर्थन दिया था. कमोबेश ऐसी ही राय जिन्ना की भी थी. कांग्रेस नेताओं को जेल में पाकर जिन्ना ने पाकिस्तान के लिए पैरवी तेज कर दी. जिन्ना ने आंदोलन को 'भारत में हिंदू राज की स्थापना के लिए कांग्रेस की खुली क्रांति' करार दिया. मुस्लिम लीग को इसका फायदा मिला. उसकी राजनीतिक ताकत बढ़ती चली गई. 1943 आते-आते असम, सिंध, बंगाल और NWFP में मुस्लिम लीग के मंत्री हो गए थे. जिन्ना खुद मुस्लिमों के इकलौते प्रवक्ता बन बैठे थे.

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