Ek Din Ek Film: यह थी भारत की पहली एडल्ट फिल्म, मधुबाला को इस रोल में देखकर घबरा गया था सेंसर बोर्ड
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Ek Din Ek Film: यह थी भारत की पहली एडल्ट फिल्म, मधुबाला को इस रोल में देखकर घबरा गया था सेंसर बोर्ड

Hindi Adult Film: एडल्ट फिल्मों के बारे में माना जाता है कि उनकी थीम बोल्ड होगी. उनमें सेक्स से जुड़ा ऐसा कंटेंट होगा, जिसे परिवार मिलकर नहीं देख सकता. समय के साथ बोल्ड की परिभाषा बदलती रही है. जानिए कि हिंदी की पहली एडल्ट फिल्म कौन-सी थी. क्यों सेंसर बोर्ड ने उसे बोल्ड मान कर ए सर्टिफिकेट दिया.

 

Ek Din Ek Film: यह थी भारत की पहली एडल्ट फिल्म, मधुबाला को इस रोल में देखकर घबरा गया था सेंसर बोर्ड

Madhubala Film: भारत में पहली फिल्म 1913 में बनी थी और सात साल बाद 1920 में सेंसर बोर्ड अस्तित्व में आ गया. परंतु देश की आजादी के बाद मुंबई के सीबीएफसी में सारे रीजनल बोर्ड मिला दिए गए. इंडियन सिनेमैटोग्राफ एक्ट (1918) में दिसंबर 1949 में संशोधन किए गए. जिसमें अंग्रेजी राज के नियमों को हटाकर भारतीय मूल्यों के हिसाब से फिल्मों को सेंसर करने का प्रावधान आया. रोचक बात यह है कि इन संशोधनों के बाद साल भर के अंदर ही ऐसा पहला मामला सामने आया, जब सेंसर के सदस्यों ने किसी फिल्म को केवल वयस्कों के लिए (एडल्ट ओनली) यानी ए सेर्टिफिकेट (A Certificate) प्रदान किया. खास बात यह कि ये फिल्म किसी साधारण एक्टर की नहीं बल्कि एक्ट्रेस मधुबाला (Madhubala) की फिल्म थी. नाम था,  हंसते आंसू (Hanste Aansoo, 1950). मधुबाला तब सिर्फ 17 साल की थीं.

डबल मीनिंग टाइटल
आज आपको भले ही हंसते आंसू एक सामान्य टाइटल लगे, परंतु उस दौर में सेंसर के सदस्यों का कहना था कि यह एक डबल मीनिंग (Double Meaning) शीर्षक है. साथ ही फिल्म की कहानी के बारे में सेंसर बोर्ड के सदस्यों का कहना था कि यह एक बोल्ड थीम (Bold Theme) है. जिसे सभी को देखने की इजाजत नहीं दी जा सकती है. ऐसे में सोचने वाली बात यह है कि आखिर क्या थी फिल्म की थीमॽ असल में यह एक पढ़ी-लिखी लड़की, उषा (मधुबाला) की कहानी थी. उषा की शादी उसके शराबी पिता उसकी इच्छा के विपरीत ऐसे युवक, कुमार (मोतीलाल) से कर देते हैं, जो अनपढ़ है. जबकि उषा पढ़ी-लिखी युवती है. कुमार को अपनी शिक्षित पत्नी से जलन होती है. वह उसे बार-बार नीचा दिखाता है.

महिला अधिकारों की लड़ाई
वास्तव में यह दौर था, जब महिलाएं सिर्फ घर में रहती थीं. बाहर निकल कर नौकरी-पेशा उनके लिए दुर्लभ था. पति जिस हाल में रखता था, वैसे रहती थीं. लेकिन फिल्म बताती है कि गर्भवती होने के बावजूद उषा पति के बर्ताव से तंग आकर उसका घर छोड़ देती. वह महिलाओं के अधिकारों (Women Rights) की बात करती है, उनके हक के लिए लड़ती है और पति से अलग होकर एक बेटे को जन्म देती है. उषा हिम्मत नहीं हारती और अपने पैरों पड़ी खड़ी रहने के लिए एक कारखाने में काम करने लगती है. कारखाने में काम करने वाले कई पुरुष उषा को अच्छी नजर से नहीं देखते. उस पर तरह-तरह की टिप्पणी करते हैं. उसका मजाक उड़ाते हैं. यह बातें निर्देशक के.बी. लाल ने कॉमिक अंदाज में दिखाई थीं. आखिरकार स्थिति बदलती है और अंत में कुमार (Moti Lal) को अपनी गलतियों का एहसास होता है. वह पत्नी से माफी मांगता है और उसे लेकर घर लौटता है.

समीक्षकों ने क्या कहा
फिल्म में गोप, जानकीदास और मनोरमा जैसे कॉमिक एक्टर थे. सेंसर के लिए तब के समाज को देखते हुए यह एक बड़ी बोल्ड बात थी कि कोई आधुनिक महिला (Modern Women) अपने अधिकारों के लिए लड़ रही है. वह घर से बाहर निकलकर पुरुषों के बीच काम कर रही है. सेंसर बोर्ड को भले ही फिल्म अपने दौर में बहुत बोल्ड लगी और उसने हंसते आंसू को ए प्रमाणपत्र दिया, मगर समीक्षकों ने फिल्म की बहुत सराहना की थी. समीक्षकों ने लिखा कि सेंसर बोर्ड ने अनावश्यक रूप से फिल्म को ए सर्टिफिकेट दिया है. हालांकि फिल्म सफल रही परंतु बॉक्स ऑफिस पर बड़ी धूम नहीं मचा सकी.

 

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