कोई कहता है पैरेलल सिनेमा, कोई आर्ट सिनेमा तो कोई ऑल्टरनेटिव सिनेमा. इस तरह के सिनेमा को जानना है तो श्याम बेनेगल की फिल्म देखिए. उन्होंने अपने 49 साल के करियर में कई ऐसी फिल्में बनाई जो समाज के कई मुद्दों को दर्शाती हैं.
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कहते हैं कि 70-80 के दशक में हिंदी सिनेमा जोर पकड़ने लगा था. बेरोजगारी, देशभक्ति, गरीबी से लेकर इतिहास के पन्नों पर कई फिल्में बन रही थी. जब राजेश खन्ना देश के पहले सुपरस्टार का दर्जा हासिल कर चुके थे तो अमिताभ बच्चन एंग्री यंग मैन बनकर उभर रहे थे. मार-धाड़ वाली एक्शन फिल्मों की टिकटों का बाजार गर्म होने लगा था. लेकिन ऐसे वक्त में एक सितारा ऐसा आया जिसने आर्ट सिनेमा की नींव रखी. वही जिसे कोई कहता है पैरेलल सिनेमा, तो कोई ऑल्टरनेटिव सिनेमा.
अब बला आर्ट सिनेमा क्या होता है? ये जानना हो तो श्याम बेनेगल की फिल्में देख लीजिए, समझ जाएंगे. जिन्होंने ऐसे समानांतर सिनेमा को पेश किया, जो फिल्मों की दुनिया में कुछ नया था. हिंदी सिनेमा में जब हर कलाकार सिर्फ सुपरस्टार बनने का सपना देखा करता था. हर कोई कमर्शियल फिल्मों का हिस्सा बनना चाहता था. तब श्याम बेनेगल ने कम बजट में प्रैक्टिकल फिल्में बनाई. जहां हकीकत को तवज्जों दी गई. मतलब बिना सिर पैर वाली फिल्में नहीं.
14 दिसम्बर 1934 को हैदराबाद में जन्मे श्याम बेनेगल ने इकनॉमिक्स में एमए किया था. पापा के कैमरे से उन्होंने साल 1974 में फिल्म 'अंकुर' बनाई. जहां उन्होंने सामन्ती व्यवस्था को दिखाया. फिल्म में लीड रोल में शबाना आजमी का किरदार लक्ष्मी था. जो अंत तक हिलाकर रख देता है. कहानी बेशक दशकों पुरानी हो गई हो लेकिन श्याम बेनेगल की फिल्मों की ये खूबी ही है कि आज भी ये फिल्में प्रासंगिक है.
उनकी 'निशांत' फिल्म को ही ले लीजिए. जहां जमींदारों की कहानी को दिखाया गया है. कैसे वह एक हंसते खेलते परिवार को बर्बाद कर देते हैं. पैसे के बल पर एक औरत को भी वह अपनी जागीर समझने लगते हैं. श्याम बेनेगल की फिल्में कम बजट की होती रही है. ऐसे में कोई सुपरस्टार नहीं दिखेगा. रही बात शबाना आजमी, स्मिता पाटिल, ओम पुरी, नसीरुद्दीन शाह जैसे कलाकारों की तो इन सबकी खोज श्याम बेनेगल ने ही की थी.
'अंकुर' से ही आर्ट सिनेमा की शुरुआत मानी जाती है. ऐसी फिल्मों के लिए सबसे बड़ी परेशानी होती है खर्चा. कौन आखिर पैसा लगाएगा. श्याम बेनेगल ने भी पाई पाई जोड़कर अपनी फिल्में बनाई. अब बड़े बड़े फाइनेंसर और प्रोड्यूसर तो ऐसी फिल्मों में पैसा कहां लगाते, जहां से दोगुना-तीन गुना मुनाफे की उम्मीद न हो. ऐसे श्याम बेनेगल को-ऑपरेटिव संस्थाओं से फंड इकट्ठा करते. उन्होंने ऐसे ही 'मंथन', 'कलयुग', 'सूरज का सातवां घोडा' से लेकर तमाम फिल्मों का निर्माण किया.
श्याम बेनेगल ने मेनस्ट्रीम सिनेमा में भी काम किया. 'जुबैदा' व 'वेलकम टू सज्जनपुर' जैसी फिल्मों का डायरेक्शन किया. लेकिन ये फिल्में कमिर्शियल हिट न हो सकी. मगर इन फिल्मों में भी श्याम बेनेगल की खास छाप देखने को मिलती है.
श्याम बेनेगल ने करियर में कई डॉक्यूमेंट्री भी बनाई है. जिसमें से एक 'नेहरू' भी है. एक बार इंदिरा गांधी ने श्याम बेनेगल की तारीफ करते हुए उन्हें दूसरा सबसे बड़ा डायरेक्टर बताया था. उन्होंने कहा था कि सत्यजीत रे के बाद कोई है तो वो सिर्फ और सिर्फ श्याम बेनेगल. अमरीश पुरी ने भी अपनी ऑटोबायोग्राफी 'एक्ट ऑफ लाइफ' में श्याम बेनेगल को चलती फिरती डिक्शनरी बताया था.
जहां पूरा देश क्रिसमस के जश्न में डूबा है वहां दूसरी ओर श्याम बेनेगल ने 23 दिसंबर 2024 की शाम 06: 38 बजे अंतिम सांसें ली. श्याम बेनेगल जैसे सितारे का डूबना हिंदी सिनेमा के लिए भारी क्षति है. आज के समय में जहां कमिर्शियल फिल्मों का बोलबाला इतना बढ़ चुका है. 500-600 करोड़ की फिल्में बनना आम तो हो गया है लेकिन इन फिल्मों से समाज के मुद्दे छूट रहे हैं. समाज का आईना कही जाने वाली फिल्मों से समाज की आवाज म्यूट है. ऐसे में श्याम बेनेगल की कमी हमेशा हमेशा इंडस्ट्री को खलेगी.
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