Yogi Adityanath: यह बात तो तय है कि इस नारे ने योगी आदित्यनाथ को बीजेपी की मौजूदा राजनीति में एक अलग लेवल पर पहुंचा दिया है. राजनीतिक पंडित भले ही इसे विपक्ष के जातीय विभाजन की काट देख रहे हैं. लेकिन अब यह नारा इन सब चीजों से थोड़ा आगे बढ़ गया है. इसे समझ लेना जरूरी है.
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Batenge to Katenge Slogen: देश की पार्टी पॉलिटिक्स का इतिहास उठाकर देखें तो इसमें पोस्टर बॉय और नारों का बड़ा ही जोरदार तड़का रहा है. नेहरू, शास्त्री, मोरारजी, इंदिरा से होते हुए राजीव, अटल, चंद्रशेखर, आडवाणी और मोदी तक भी इसकी बानगी देखने को मिली है. यहां तक कि राज्य के क्षत्रपों और प्रादेशिक पार्टियों के साथ भी ऐसा ही रहा. पिछले कुछेक महीनों से नब्बे के मंडल-कमंडल वाली राजनीति का दोहराव भले ही दिख रहा है लेकिन इस बार टेस्ट और मिजाज कुछ अलग है. बंटेंगे तो कटेंगे इसी राजनीतिक मिजाज का उपजा हुआ स्वरूप है जिसे योगी आदित्यनाथ ने गढ़ दिया है. राजनीतिक पंडित भले ही इसे विपक्ष के जातीय विभाजन की काट देख रहे हैं. लेकिन अब यह नारा इन सब चीजों से थोड़ा आगे बढ़ गया है.
असल में भारत की दक्षिणपंथी राजनीति के समर्थक पीएम मोदी के बाद उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को ही अपना अगला सितारा मानकर चल रहे, इसमें किसी के पास कोई दो राय नहीं है. अब योगी आदित्यनाथ ने 'बंटेंगे तो कटेंगे' का नारा देकर इस राजनीति में एक अहम पड़ाव पार कर लिया है. इस नारे का संदेश साफ है, हिंदू एकता और सांप्रदायिक ध्रुवीकरण. यह पार्टी के कट्टर हिंदुत्व के एजेंडे को भी मजबूती देता है. बांग्लादेश में हिंदुओं पर हुए हमलों के बाद यह नारा पहली बार सामने आया और धीरे-धीरे उत्तर प्रदेश से निकलकर देशभर में छा गया.
महाराष्ट्र की सियासत में कदम रखते ही 'बंटेंगे तो कटेंगे' नारे का विरोध शुरू हो गया. इस नारे का विरोध कौन कर रहा है. पहले महायुति गठबंधन के ही साथी अजित पवार ने इसे महाराष्ट्र की सांस्कृतिक पहचान से असंगत बताया. फिर बीजेपी की नेता पंकजा मुंडे ने भी असहमति जताई, यह कहते हुए कि यह नारा मेरी राजनीति से मेल नहीं खाता. हमें विकास पर ध्यान देना चाहिए, न कि विभाजनकारी नारों पर. लेकिन उधर बीजेपी ने इस नारे को खुले दिल से अपनाया और इसे ही एकता और अखंडता का प्रतीक माना. वे नेता जो योगी को बहुत ज्यादा तवज्जो नहीं देना चाहते वे भी इसे अपना रहे हैं. यहां तक कि लोकल लीडर्स भी इस नारे को लगा रहे हैं.
खास बात यह रही कि विपक्षी पार्टियों ने तो 'बंटेंगे तो कटेंगे' नारे का कड़ा विरोध किया है. कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे और समाजवादी पार्टी ने इसे सांप्रदायिक विभाजन का प्रयास बताते हुए आलोचना की. अखिलेश ने अपने पीडीए वाले नारे पर फिर से जोर लगाया.. कांग्रेस ने कहा कि ना बंटेंगे, ना कटेंगे लेकिन बीजेपी और योगी ने नारे पर तूफान मचाए रखा. पीएम मोदी ने तो कहा 'एक रहेंगे तो सेफ रहेंगे', जो सीएम योगी के नारे का एक तरह से समर्थन था. RSS ने भी योगी के नारे का समर्थन करते हुए इसे हिंदू एकता के लिए महत्वपूर्ण बताया. संघ के दत्तात्रेय होसबले ने मथुरा में साफ कहा कि हमें हिंदू समाज की एकता के लिए प्रयासरत रहना होगा, और यही योगी के नारे का सार है.
राजनीतिक एक्सपर्ट्स का यह भी मानना है कि योगी आदित्यनाथ के नारे की सफलता के पीछे जातीय राजनीति का भी बड़ा प्रभाव है. कांग्रेस और इंडिया गठबंधन जातीय जनगणना के जरिए पिछड़ों और दलितों को एकजुट करने की कोशिश कर रहे हैं, जिससे बीजेपी को थोड़ा नुकसान भी हुआ. 2024 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी को इसी जातीय ध्रुवीकरण के चलते सियासी झटके का सामना करना पड़ा था. इसके चलते पार्टी ने 'बंटेंगे तो कटेंगे' का इस्तेमाल संजीवनी की तरह कर लिया. पार्टी के बड़े तबके ने इसका इस्तेमाल हिंदू समाज को एकजुट करने के लिए किया, ताकि जातीय विभाजन के असर को कम किया जा सके.
यह बात तो तय है कि योगी आदित्यनाथ की कट्टर हिंदुत्व वाली छवि के बाद इस नारे ने उन्हें बीजेपी की मौजूदा राजनीति में एक अलग लेवल पर पहुंचा दिया है. यह नारा उनके राजनीतिक नैरेटिव को मजबूत भी कर रहा है. इतना ही नहीं इस नारे ने तो पार्टी के भीतर भी उनके विरोधियों पर बढ़त भी देता है. शायद यही वजह है कि उत्तर प्रदेश से बाहर भी चुनाव प्रचार के लिए योगी की मांग रहती है. महाराष्ट्र और झारखंड में भी उनकी रैलियों में इस नारे का जमकर इस्तेमाल किया जा रहा है.
यह बात भी सही है कि बीजेपी के भीतर और बाहर इस नारे का विरोध जारी है, लेकिन सीएम योगी आदित्यनाथ ने 'बंटेंगे तो कटेंगे' के जरिए एक मजबूत नैरेटिव सेट कर दिया है. उनका स्पष्ट संदेश है कि उनकी राजनीति हिंदू एकता और कट्टर हिंदुत्व पर आधारित रहेगी, और विपक्ष की कोई भी चाल इस नैरेटिव को कमजोर नहीं कर पाएगी. बीजेपी अब इसे अपने चुनावी मुद्दे के रूप में स्थापित कर रही है. पार्टी के कट्टर समर्थकों और हिंदू वोटरों को एकजुट करने में इससे कितनी मदद मिल पाएगी यह तो समय बताएगा. लेकिन फिलहाल सियासत इसी नारे का चक्कर लगा रही है.