One Nation One Election News: पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद के नेतृत्व में 'वन नेशन वन इलेक्शन' पर गठित हाई लेवल कमेटी ने देश में एक साथ लोकसभा, विधानसभा और स्थानीय निकाय चुनाव कराने की सिफारिश करने से पहले दुनिया के सात देशों की चुनावी प्रक्रियाओं का अध्ययन किया. इन देशों में दक्षिण अफ्रीका, स्वीडन, बेल्जियम, जर्मनी, जापान, इंडोनेशिया और फिलीपींस शामिल हैं. इन देशों में सारे चुनाव एक साथ ही आयोजित किए जाते हैं.
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EK Desh Ek Chunav: 'वन नेशन वन इलेक्शन' संभावनाओं पर पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद के नेतृत्व में गठित हाई लेवल पैनल की ओर से राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू को सौंपी रिपोर्ट के आधार पर बनाए गए विधेयक को पीएम नरेंद्र मोदी की अध्यक्षता वाले कैबिनेट बैठक में गुरुवार को मंजूरी दे दी गई. संसद के मौजूदा शीतकालीन सत्र में ही वन नेशन वन इलेक्शन बिल को पेश किए जाने की तैयारी है. अगर लोकसभा और राज्यसभा में यह बिल पास हुआ तो देश में लोकसभा और राज्यों के विधानसभा चुनावों को एक साथ कराया जा सकता है.
अपने देश में भी शुरुआत में होता था एक देश एक चुनाव का पालन
अपने देश में भी आजादी के बाद शुरुआती चार आम चुनावों के साथ ही सभी राज्यों के विधानसभा चुनाव भी कराए जाते थे, लेकिन बाद में फिर अलग-अलग चुनाव होने लगे. कई दशकों बाद एक बार फिर से देश में एक साथ चुनाव करवाने की मुहिम तेज हो गई है. अब वन नेशन वन इलेक्शन यानी एक देश एक चुनाव को लेकर जारी बहस के बीच अध्ययन के लिए कोविंद कमेटी ने दुनिया के कई ऐसे देशों की चुनाव प्रक्रियाओं को देखा और परखा, जहां एक साथ ही सभी चुनाव आयोजित किए जाते हैं.
दुनिया के कई देशों की चुनावी प्रक्रियाओं का तुलनात्मक विश्लेषण
कोविंद कमेटी ने देश में एक साथ ही लोकसभा और विधानसभा का चुनाव कराए जाने की सिफारिश करने से पहले दक्षिण अफ्रीका, स्वीडन, बेल्जियम, जर्मनी, जापान, इंडोनेशिया और फिलीपींस जैसे सात देशों की चुनावी प्रक्रियाओं का विस्तार से अध्ययन किया. दुनिया के इन देशों में एक साथ ही सभी चुनावों करवाए जाते हैं. आइए, जानते हैं कि इनमें से किन देशों ने अपने यहां किस रूप में वन नेशन वन इलेक्शन की व्यवस्था को लागू किया हुआ है. इसके अलावा, इन देशों की चुनावी प्रक्रियाओं का तुलनात्मक विश्लेषण कर जानने की कोशिश करते हैं कि भारत के लिए फिलहाल वन नेशन वन इलेक्शन क्यों टेढ़ी खीर है?
दक्षिण अफ्रीका और स्वीडन में कैसा है वन नेशन वन इलेक्शन?
दक्षिण अफ्रीका में नेशनल असेंबली और प्रांतीय विधानसभाओं के चुनाव एक साथ होते हैं. हालांकि, वहां पांच साल के चक्र में अलग से नगरपालिका चुनाव आयोजित किए जाते हैं. वहीं, स्वीडन में आनुपातिक चुनाव व्यवस्था लागू है. इस प्रणाली में राजनीतिक दलों को उनके वोट प्रतिशत के आधार पर सीटें दी जाती हैं. स्वीडन में हर चार साल में सितंबर के दूसरे रविवार को एक साथ संसद (रिक्सडैग), काउंटी काउंसिल और म्यूनिसिपल काउंसिल तीनों के लिए चुनाव आयोजित किए जाते हैं.
जर्मनी, जापान और इंडोनेशिया में कैसे होता है एक साथ चुनाव?
जर्मनी 'संविधानात्मक अविश्वास प्रस्ताव' और चांसलर की नियुक्ति की प्रक्रिया का मॉडल लागू है. वहीं, जापान में नेशनल डाइट प्रधानमंत्री का चयन करती है और बाद में सम्राट द्वारा स्वीकार किया जाता है. वहीं, इंडोनेशिया में साल 2019 से सभी चुनाव एक साथ होने लगे हैं. वहां राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति और राष्ट्रीय तथा क्षेत्रीय असेंबली के सदस्यों का चुनाव एक ही दिन होता है. मतदाता गुप्त मतदान करते हैं और दोबारा मतदान से बचने के लिए उनके उंगलियों पर स्याही लगाई जाती है. इंडोनेशिया ने इसी साल फरवरी में पांच स्तरों के लिए एक साथ हुए चुनाव में लगभग 20 करोड़ लोगों ने मतदान किया था.
निष्पक्षता और पारदर्शिता के लिए अंतरराष्ट्रीय प्रक्रियाओं का अध्ययन
वन नेशन वन इलेक्शन पर बनी समिति के दुनिया के अलग-अलग देशों की चुनाव प्रक्रिया के अध्ययन का उद्देश्य निष्पक्षता और पारदर्शिता सुनिश्चित करने के लिए सर्वश्रेष्ठ अंतरराष्ट्रीय प्रक्रियाओं को अपनाना था. कोविंद पैनल ने अपनी रिपोर्ट इस साल मार्च में राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू को सौंपी थी. इस रिपोर्ट में पहले चरण में लोकसभा और विधानसभा चुनाव एक साथ कराने और इसके 100 दिनों के भीतर स्थानीय निकाय चुनावों को करने की सिफारिश की गई थी. मोदी सरकार ने सितंबर में इन सिफारिशों को स्वीकार कर विधेयक का मसौदा बनाने की शुरुआत कर दी थी.
वन नेशन वन इलेक्शन को लागू करने की बाधाएं क्या हैं?
कोविंद पैनल ने अपनी रिपोर्ट में भारत में एक देश एक चुनाव लागू करने की प्रक्रिया को व्यवहारिक और प्रभावशाली बताया है. पैनल ने इसके पीछे चुनावी खर्च में कमी और प्रशासनिक के साथ ही राजनीतिक स्थिरता भी सुनिश्चित होने की मजबूत दलील दी है, लेकिन विपक्ष का मानना है कि फिलहाल देश में वन नेशन वन इलेक्शन को लागू कर पाना बेहद मुश्किल है. विपक्षी इंडिया गठबंधन में शामिल दलों और नेताओं ने इसे बेहतर विकल्प नहीं बताया है. टीएमसी प्रमुख पश्चिम बंगाल की सीएम ममता बनर्जी ने इसे 'अधिनायकवादी और गैर-संघीय' करार दिया.
वन नेशन वन इलेक्शन के विरोध में विपक्षी इंडिया गठबंधन
तमिलनाडु के मुख्यमंत्री और डीएमके प्रमुख एमके स्टालिन ने वन नेशन वन इलेक्शन अव्यवहारिक, गैर-लोकतांत्रिक और क्षेत्रीय आवाज को दबाने वाला बताया है. शिवसेना सांसद अनिल देसाई ने इसे विचार के लिए अच्छा बताया, लेकिन चुनाव आयोग की मौजूदा क्षमताओं और संसाधनों को नाकाफी बताया. कांग्रेस ने सीधे-सीधे इस विधेयक के विरोध का ऐलान कर दिया है. कांग्रेस महासचिव और सांसद जयराम रमेश ने कहा कि इस विधेयक को संयुक्त संसदीय समिति (जेपीसी) के पास भेजने की मांग की जाएगी. वहीं, आम आदमी पार्टी ने दिल्ली चुनाव को ध्यान में रखते हुए इस आइडिया पर ही तंज किया.
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वन नेशन वन इलेक्शन के लिए संविधान में दो बड़े संशोधन तय
मोदी सरकार के लिए संसद में भी 'वन नेशन वन इलेक्शन' को लागू करवाने में काफी मुश्किलों का सामना करना पड़ सकता है. क्योंकि कोविंद पैनल के प्रपोजल के मुताबिक भारत में 'वन नेशन वन इलेक्शन' को लागू करने के लिए संविधान अनुच्छेद 83 और 172 में संशोधन की ज़रूरत होगी. इन दोनों संविधान संशोधनों के लिए बहुमत की जरूरत पड़ेगी और भाजपा के पास लोकसभा में 240 सीटें और राज्यसभा में करीब 100 सीटें ही हैं. इसके अलावा, बिल को पास करवाने में एनडीए के अंदर क्षेत्रीय दलों के कारण मतभेद उभरने की आशंका भी बढ़ गई है.
संसद में बिल आने से पहले ही जेपीसी के पास भेजे जाने की बात
भारत में साल 1983 में भी लोकसभा और विधानसभा चुनाव को एक साथ कराने का मुद्दा उठा था, लेकिन तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने इसे कोई भाव नहीं दिया था. उसके बाद साल 1999 में भारत में ‘लॉ कमीशन’ ने एक देश एक चुनाव का सुझाव दिया था. लेकिन तत्कालीन एनडीए की सरकार कोई कदम आगे नहीं बढ़ा पाई था. लोकसभा चुनाव 2014 में भाजपा ने अपने मैनिफेस्टो में इस मुद्दे को शामिल किया था. प्रधानमंत्री मोदी लालकिला से दिए अपने भाषण में भी 'वन नेशन वन इलेक्शन' का ज़िक्र कर चुके हैं. लेकिन अब संसद में बिल पेश होने से पहले ही इसे जेपीसी के पास भेजे जाने की बात होने लगी है.
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देश में 'वन नेशन वन इलेक्शन' को लागू करने की कठिन डगर क्यों?
देश में 'वन नेशन वन इलेक्शन' को लागू करने की कठिन डगर इसलिए भी है कि संसद के दोनों सदनों से अग बिल पास भी हो गया तो सुप्रीम कोर्ट में यह लंबा खींच सकता है. क्योंकि यह मामला संविधान के मूलभूत ढांचे को बदलने वाला होगा. क्योंकि विधानसभा का चुनाव संविधान की सातवीं अनुसूची में 'स्टेट लिस्ट' में आता है. समय से पहले विधानसभा को भंग करने का अधिकार भी राज्य सरकार के पास होता है. राज्यों से यह अधिकार छीनना संविधान के मूलभूत ढांचे के ख़िलाफ़ माना जाएगा. वहीं, एक साथ सभी चुनाव कराने से देश की मौजूदा चुनाव प्रक्रिया बदलकर एक तरह से प्रेसीडेंशियल फ़ॉर्म ऑफ़ डेमोक्रेसी हो जाएगी.
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