केवल फेफड़ों पर ही नहीं दिमाग पर भी पड़ रहा है COVID का असर?
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केवल फेफड़ों पर ही नहीं दिमाग पर भी पड़ रहा है COVID का असर?

COVID-19 से उबर चुके लोगों के दिमाग पर भी वायरस का असर हो सकता है.

केवल फेफड़ों पर ही नहीं दिमाग पर भी पड़ रहा है COVID का असर?

लंदन: COVID-19 से उबर चुके लोगों के दिमाग पर भी वायरस का असर हो सकता है. इतना ही नहीं संक्रमण के सबसे बुरे मामले में तो मानसिक गिरावट इतनी हो सकती है कि लोग 10 साल की उम्र तक पीछे जा सकते हैं. इंपीरियल कॉलेज लंदन के डॉक्टर एडम हैम्पशायर के नेतृत्व में 84 हजार से अधिक लोगों पर किए गए अध्ययन में पाया गया कि कुछ गंभीर मामलों में, कोरोना वायरस संक्रमण के कारण महीनों के लिए संज्ञानात्मक या ज्ञान-संबंधी कमी (cognitive deficits) आई. कॉग्निटिव डेफिसिट्स से मतलब जानने, तर्क करने और याददाश्‍त की क्षमता में कमी आना है. 

  1. कोरोना संक्रमितों की संज्ञानात्‍मक क्षमता पर हुआ अध्‍ययन 
  2. लोगों के दिमाग पर डाला है कोरोना ने असर
  3. कम हुई समझने, तर्क करने, याद रखने की क्षमता 

शोधकर्ताओं ने अपने निष्कर्षों में लिखा है, 'हमारे विश्लेषण बताते हैं कि COVID-19 के क्रॉनिक कॉग्निटिव परिणाम हैं. कोरोना के लक्षण जाने के बाद भी लोगों के दिमाग की क्षमताएं पहले जैसी नहीं रहीं थीं, बल्कि उनमें कमी आई थी.' 

ऐसे किया अध्‍ययन 
संज्ञानात्मक परीक्षण में मापा जाता है कि मस्तिष्क कितनी अच्छी तरह से कार्य करता है- जैसे कि शब्दों को याद रखना या डॉट्स को जोड़ना आदि. अल्जाइमर जैसी बीमारियों में मस्तिष्क के प्रदर्शन का आकलन करने के लिए ऐसे ही परीक्षण किए जाते हैं. 

हैम्पशायर की टीम ने भी 84,285 लोगों के ऐसे परीक्षणों के परिणामों का विश्लेषण किया तो पता चला कि लोगों की इस क्षमता पर पर्याप्‍त प्रभावी असर हुआ था. ऐसे लोग जिन्‍हें COVID-19 के साथ अस्पताल में भर्ती कराया गया था उनमें सबसे बुरे मामलों में 20 साल से 70 साल के लोगों में संज्ञानात्‍मक क्षमता में 10 साल की औसत गिरावट देखी गई. 

वैज्ञानिक इस अध्‍ययन में सीधेतौर पर शामिल नहीं थे इसलिए इसके परिणामों को कुछ सावधानी के साथ देखा जाना चाहिए.

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उठे ये सवाल 
एडिनबर्ग विश्वविद्यालय में एप्‍लाइड न्यूरोइमेजिंग के एक प्रोफेसर जोआना वार्डलाव ने कहा, 'चूंकि जिन लोगों पर अध्‍ययन किया गया उनके कोविड संक्रमित होने से पहले की संज्ञानात्मक क्षमता का पता नहीं था और नतीजे भी लंबे समय के प्रभाव को दर्शाने में सक्षम नहीं हैं इसलिए यह प्रभाव अल्पकालिक हो सकता है.' 

वहीं यूनिवर्सिटी कॉलेज लंदन में मेडिकल इमेजिंग साइंस के एक प्रोफेसर डेरेक हिल ने भी कहा कि यह निष्कर्ष पूरी तरह से विश्वसनीय नहीं हो सकते हैं, क्योंकि वे पहले और बाद की स्थिति की तुलना नहीं करते हैं.

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