West Bengal: पश्चिम बंगाल और असम को जोड़ने वाले राजमार्ग से 21 किमी अंदर बसे गांव की तरफ न कोई सड़क जाती है और न ही यहां यातायात की कोई व्यवस्था है. टोटोपाड़ा जाने के रास्ते में 4 बरसाती नदियां भी आती हैं, जिस पर कोई पुल नहीं है.
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नई दिल्ली: प्रसिद्ध समाज सुधारक और विचारक पंडित दीन दयाल उपाध्याय ने कहा था कि 'जब तक अंतिम पंक्ति में खड़े व्यक्ति का उदय नहीं होगा, तब तक भारत का उदय संभव नहीं है'. यानी देश के विकास को तभी सफल माना जाएगा जब समाज के आखिरी तबके तक उसका लाभ पहुंचेगा, लेकिन आज हम आपको बताएंगे कि हमारे देश में क्या ऐसा होता है?
इसके लिए हम आपको एक ऐसे सीमावर्ती गांव में लेकर चलेंगे. जहां के लोगों को आप समाज की आखिरी पंक्ति कह सकते हैं. टोटोपाड़ा नाम के इस गांव में विश्व की लुप्तप्राय आदिवासी जनजाति रहती है और इस जनजाति का नाम है टोटो. इस जनजाति के अब 1600 लोग ही अब वहां बचे हैं. 250 साल पहले से भी ज्यादा समय से ये जनजाति इस गांव में बसी हुई है, लेकिन आज तक यहां पहुंचने के लिए उन्हें एक अच्छी सड़क तक नहीं मिली है.
पश्चिम बंगाल और असम को जोड़ने वाले राजमार्ग से 21 किमी अंदर बसे इस गांव की तरफ न कोई सड़क जाती है और न ही यहां यातायात की कोई व्यवस्था है. टोटोपाड़ा जाने के रास्ते में 4 बरसाती नदियां भी आती हैं, जिस पर कोई पुल नहीं है. यानी बारिश के मौसम में इस गांव का संपर्क पूरे भारत से कट जाता है. मेडिकल इमरजेंसी होने की स्थिति में मरीज को 21 किमी दूर ले जाना टोटो समुदाय की मजबूरी है क्योंकि, उनके गांव में ढंग का अस्पताल भी नहीं है.
जहां से विकास की पक्की सड़क खत्म होती है. वहीं से देश के आखिरी पायदान पर खड़े समाज का पथरीला पथ शुरू होता है. यही सच है भारत-भूटान सीमा पर बसे आखिरी गांव टोटोपाड़ा का. हम आपको टोटोपाड़ा इसलिए लेकर आए हैं क्योंकि, ये गांव बहुत खास है. खास इसीलिए क्योंकि, यहां पर एक ऐसी आदिवासी जनजाति रहती है, जिसकी संख्या पूरे विश्व में मात्र 1600 है और वो सारे इसी गांव में रहते हैं. इस गांव तक जाना आसान नहीं है.
देश के 130 करोड़ से ज्यादा की आबादी में पश्चिम बंगाल के अलीपुरद्वार में बसी मात्र 1600 लोगों की जनजाति की स्थिति क्या होगी. ये समझने के लिए आपको इन रास्तों से गुजरना होगा. इन रास्तों पर प्रकृति की खूबसूरती तो नजर आती है, लेकिन यहां आना हर किसी के बस की बात नहीं है क्योंकि, यहां पहुंचने के लिए 4 बरसाती नदियों को पार करना पड़ता है.
पश्चिम बंगाल में विधानसभा चुनाव में एक ओर सभी मीडिया संस्थान महानगरों से चुनावी नब्ज टटोल रहे हैं, लेकिन ज़ी मीडिया ने ग्रामीण भारत की खबर को महत्व दिया. इसीलिए पहाड़ों, जंगलों और बरसाती नदियों में बने पथरीले रास्तों से होकर आखिरकार हम पहुंचे कोलकाता से 70 किमी दूर टोटोपाड़ा और वहां पहुंचते ही हमें उनके एक अनोखी रीति माननी पड़ी.
टोटोपाड़ा गांव में पक्के मकान कम ही नजर आते हैं. ज्यादातर मकानों में पक्की छत की जगह टीन शेड हैं और लकड़ी के कच्चे मकान भी यहां नजर आते हैं. टोटोपाड़ा पूरी तरह से पहाड़ी क्षेत्र है. यहां विकास के नाम पर स्कूल और अस्पताल हैं, लेकिन दसवीं के बाद पढ़ाई और मेडिकल इमरजेंसी की स्थिति में 22 किमी दूर जाना पड़ता है. दरअसल, मुख्य हाइवे से ये गांव 22 किमी अंदर पड़ता है जहां के लिए पक्की सड़क नहीं है.
टोटो समुदाय यहां पर वर्ष 1800 से पहले से बसा हुआ है और तभी ये टोटोपाड़ा में रह रहा है. यहां पर टोटो जनजाति का हर बच्चा मानता है कि उनकी परवरिश प्रकृति के हाथों में है. सरकारी से उन्हें कोई उम्मीद नहीं है.
बच्चों के लिए न ढंग का स्कूल हैं, न ही खेलकूद की जगह अब तो टोटोपाड़ा में बाहर से आए लोग भी बसने लगे हैं. अपनी जरूरत के हिसाब से वो भी यहां रच बस गए हैं. टोटो जनजाति के लोगों को 10 साल पहले ममता सरकार ने वादा किया गया था कि टोटोपाड़ा के पूरे क्षेत्र का विकास किया जाएगा, लेकिन इतने वर्षों में एक अदद सड़क तक नहीं बन पाई. पानी की किल्लत तो यहां की रोज की समस्या है.
इस क्षेत्र में सुपारी की खेती बड़े पैमाने पर होती है. इसीलिए टोटो समुदाय की कमाई की सबसे बड़ा साधन सुपारी ही है. इस क्षेत्र में आपको सुपारी के कई पेड़ नजर आएंगे.
टोटोपाड़ा में किसी वक्त केवल टोटो समुदाय ही रहता था लेकिन समय के साथ यहां पर बिहार, नेपाल और कई दूसरे इलाकों से आए लोग बस गए. इसीलिए यहां अब टोटो समुदाय को अपनी भाषा के अलावा, नेपाली, भूटिया, बंगाली, भोजपुरी और हिंदी का ज्ञान रखना पड़ता है. विकास और वोट में एक खास संबंध है, जिस क्षेत्र में वोट ज्यादा होते हैं वहां विकास की गति भी तेज होती है. टोटोपाड़ा इसी वजह से सरकारी फाइलों और झूठे वादों में उलझ गया है.