बासुदेव बलवंत फड़के (Basudev Balwant Phadke), महाराष्ट्र (Maharashtra) की पावन भूमि पर पैदा हुआ वो वीर, जिसका रिश्ता ना पेशवाओं से था, ना ही छत्रपति शिवाजी से और ना ही इन दोनों से जुड़े रहे किसी भी मराठा सरदार के वंशज से, वो पूरी तरह से एक आम आदमी था.
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नई दिल्ली: 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के बाद भारत की आजादी की लड़ाई आम जनता के हाथों में आने लगी थी. जिसका सबसे पहले नायक थे बासुदेव बलवंत फड़के (Basudev Balwant Phadke), महाराष्ट्र (Maharashtra) की पावन भूमि पर पैदा हुआ वो वीर, जिसका रिश्ता ना पेशवाओं से था, ना ही छत्रपति शिवाजी से और ना ही इन दोनों से जुड़े रहे किसी भी मराठा सरदार के वंशज से, वो पूरी तरह से एक आम आदमी था. जिसने गुलामी की जंजीरों को उखाड़ फेंकने के लिए गरीब युवाओं की एक पूरी फौज खड़ी कर दी और सालों तक अंग्रेजों की नाक में दम किए रखा. उसकी वीरता की कहानियों के चलते बंकिम चंद्र चटर्जी की किताब ‘आनंद मठ’ में पांच संस्करणों में संशोधन करने पड़े थे. आज उनकी जयंती के मौके पर जानिए उनके बारे में कुछ और दिलचस्प बातें-
वासुदेव को कुश्ती और घुड़सवारी का शौक था
1- फड़के की आर्मी भी उन लोगों की जो समाज के हाशिए पर थे, भील, डांगर, कोली, रामोशी आदि जातियों के युवाओं को मिलाकर खड़ी की गई ये आर्मी. शुरू से ही वासुदेव को कुश्ती और घुड़सवारी का शौक था, यहां तक कि स्कूल छोड़ दिया हालांकि बाद में वासुदेव ने एक क्लर्क की नौकरी कर ली, पुणे के मिलिट्री एकाउंट्स डिपार्टमेंट में.
गुलामी से मुक्ति का प्रण
2- बासुदेव की मां उसे उसके नाम का अर्थ बताती रहती थी, तो उसे लगता था कि उसकी भी अपनों के लिए कुछ जिम्मेदारी है, लेकिन एक दिन मां काफी बीमार थी, मरने से पहले अपने बेटे से मिलना चाहती थी, लेकिन अंग्रेज अफसर ने छुट्टी देने से मना कर दिया, वो अगले दिन बिना छुट्टी के घर चला गया लेकिन इतनी देर हो गई कि अंतिम वक्त में भी वो अपनी मां से ना मिल सका. पहली बार उसकी समझ में आया कि गुलामी क्या होती है और उसने इस गुलामी से मुक्ति का प्रण ले लिया, किसी भी कीमत पर.
क्रांतिवीर लाहूजी वस्ताड साल्वे से मुलाकात
3- पुणे में फड़के की मुलाकात हुई क्रांतिवीर लाहूजी वस्ताड साल्वे से, एक समाज सुधारक जो दलित जातियों के युवाओं के बीच कुश्ती की ट्रेनिंग देते थे. वासुदेव का उनके ट्रेनिंग सेंटर में जाना आम हो गया, साल्वे लगातार बताते थे कि देश तब तक आजाद नहीं होगा जब तक कि आजादी की लड़ाई की कमान ऊपर के वर्गों से निकलकर दलित पिछड़े युवाओं के ऊपर नहीं आती, जब तक इतना बड़ा वर्ग आजादी की जंग से जुड़ेगा नहीं, देश गुलाम ही रहेगा. फड़के की समझ में ये बात आ गई और वो उन युवाओं को जोड़ने में लग गए.
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लोगों से स्वराज के लिए लड़ाई की अपील
4- वासुदेव ने नारा दिया, ‘अंग्रेजों ने जितनी बीमारियां अब तक देश को दी हैं, उन सारी बीमारियों का एक ही इलाज है—स्वराज‘. वासुदेव ने अकाल ग्रस्त इलाकों का दौरा किया, लोगों से स्वराज के लिए लड़ाई की अपील की, प्रभावशाली लोगों से इस लड़ाई में जुड़ने का आव्हान किया. लेकिन वासुदेव को अपेक्षित सहयोग नहीं मिला. गुलामी दिमाग में गहरे तक उतर चुकी थी. उन दिनों एक प्रभावशाली संत हुआ करते थे, अक्कालकोट (शोलापुर) के समर्थ महाराज, वासुदेव ने उनसे सहयोग और आर्शीवाद मांगा, समर्थ महाराज ने उनसे तलवार लेकर एक पेड़ पर रख दी और कहा कि सशस्त्र क्रांति के लिए ये उपयुक्त समय नहीं है, लेकिन वासुदेव ने पेड़ से तलवार वापस उठाई और निकल गए.
क्रांति बिना खून बहाए नहीं
5- 300 ऐसे युवाओं की आर्मी तैयार की, जो देश पर जान न्यौछावर करने को तैयार थे. उन्हें लगा अंग्रेजों से उन्हीं की भाषा में बात करनी होगी, क्रांति बिना खून बहाए नहीं होगी, भगत सिंह, आजाद, सावरकर और बिस्मिल से सालों पहले उन्होंने ये मान लिया था कि अंग्रेजों में ये खौफ भरना होगा कि इस देश में राज करोगे तो लाशें गिनने के लिए भी तैयार रहो. अब ये रोज का काम हो गया. अकाल से पीड़ित गांवों में किसानों की सूची बनाई जाती, फिर अंग्रेजी सरकार के पैसों के कलेक्शन सेंटर्स की सूची बनती, रेड होती, अपने खर्च का पैसा निकालकर रॉबिन हुड की तरह सारा पैसा गरीबों में बांट दिया जाता, हथियार अपने पास रख लिए जाते. अंग्रेजी सरकार ने वासुदेव बलवंत फड़के को डकैत घोषित कर दिया और गांव वालों ने देवता.
अंग्रेज अफसर रिचर्ड के सर पर पूरे 75000 रुपए का ऐलान
6- फड़के बड़े अंग्रेजी अधिकारियों की नजर में तब चढ़े जब उन्होंने कुछ दिनों के लिए कभी पेशवाओं की राजधानी रहे शहर पूना पर कब्जा कर लिया, कई दिनों तक अंग्रेजी फौज उसे हटा ना सकी. ये खबर इंग्लैंड तक जा पहुंची. अंग्रेजों ने उसके सर पर एक बड़ी रकम का ऐलान कर दिया, अलग अलग श्रोतों में ये इनाम की रकम कहीं पांच हजार तो कहीं पचास हजार मिलती है. लेकन इतना तय है कि किसी क्रांतिकारी पर इतना बड़ा इनाम उस वक्त तक नहीं रखा गया था. लेकिन इनाम से भी ज्यादा दिलचस्प था अगले ही दिन मुंबई की गलियों में फड़के के हस्ताक्षर वाले इश्तेहार लग जाना, जिसमें उसके सर पर इनाम का ऐलान करने वाले अंग्रेज अफसर रिचर्ड के सर पर पूरे 75000 रुपए का ऐलान किया गया था
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अकेले तलवार के दो दो हाथ करना चाहता हूं: फड़के
7- हैदराबाद निजाम के पुलिस कमिश्नर अब्दुल हक और अंग्रेज मेजर डेनियल हक को एक ही काम में लगा दिया गया कि कैसे भी फड़के को पकड़ा जाए. फिर एक गद्दार ने वो कर दिया जो लाखों की अंग्रेजी और निजाम फौज नहीं कर पाई. फड़के के कई साथी मारे या पकड़े गए थे, थके हारे फड़के अकेले पंढरपुर के रास्ते में 20 जुलाई 1879 को एक देवी मंदिर में रुके, फड़के की सूचना किसी ने डेनियल को पहुंचा दी और उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया. डेनियल ने उनकी छाती पर बूट रखकर पूछा, क्या चाहते हो, फड़के ने मुस्कराकर जवाब दिया, ‘तुमसे अकेले तलवार के दो दो हाथ करना चाहता हूं’. जीवटता देखिए.
अंग्रेजों को भारत से ही खदेड़ने की महायोजना
8- फड़के के खिलाफ कोर्ट में एक भी गवाह नहीं मिल पाया, लेकिन फड़के को एक आदत थी, 15 साल क्लर्की करने के बाद उसको हिसाब डायरी में लिखने की आदत बन गई थी. वैसे भी वो लूट के पैसे का पूरा हिसाब रखना चाहते थे ताकि उनकी फौज में विद्रोह ना हो. वो डायरी किसी तरह डेनियल के हत्थे चढ़ गई और डेनियल के साथ साथ अंग्रेजी जज भी फड़के के कारनामे पढ़ कर दंग रह गए. जिसे वो महज एक डाकू समझ रहे थे, वो तो अंग्रेजों को भारत से ही खदेड़ने की महायोजना में जुटा था.
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जेल की रोटी मंजूर नहीं
9- आजीवन कारावास की सजा सुनाकर फड़के को अदन की जेल में भेज दिया गया. एक बार वो जेल से भाग भी गए लेकिन जल्द ही पकड़े भी गए, ये 1883 फरवरी का वाकया था. अब उन्हें जेल की रोटी मंजूर नहीं थी. अंदर ही अंदर कुछ कर गुजरने को मन फडक रहा था, 17 मील तक पैदल भागने के बाद वासुदेव को पकड़ लिया गया. पकड़े जाने के बाद वासुदेव ने जेल में भूख हड़ताल शुरू कर दी. 17 फरवरी 1883 को इसी हंगर स्ट्राइक के चलते वासुदेव बलवंत फड़के ने इस दुनियां को अलविदा कह दिया, मां भारती को आजाद करवाने के सपने के साथ ही.
फड़के ने पुणे में पेशवा के दो महलों में आग लगा दी
10- ‘वंदेमातरम’ जैसा राष्ट्रीय गीत रचने वाले महान लेखक बंकिम चंद्र चटर्जी की वो किताब ‘आनंदमठ’ जिसने पढ़ी, उसने वासुदेव बलवंत फड़के के बारे में जान लिया. 1879 में फड़के को गिरफ्तार किया गया था और 1882 में जब वो जेल में थे ‘आनंद मठ’ का पहला एडीशन छपकर आया था. जबकि लंदन टाइम्स फड़के के बारे में तब से ही छाप रहा था, जब फड़के ने पुणे में पेशवा के उन दो महलों में आग लगा दी थी, जिसमें अंग्रेजी सरकार के दफ्तर थे. ‘आनंदमठ’ पर अंग्रेज सरकार ने ऐतराज जताया और ये ऐतराज ‘आनंद मठ’ के पांच एडीशंस तक चलता रहा.