Chhath Parv Sindoor Story: सिंदूर लगाने का ज्ञात प्रचलन 5000 साल से अधिक पुराना है. पौराणिक कथाओं में इसका जिक्र तो मिलता ही है, साथ ही कई सभ्यताओं के ऐतिहासिक अध्ययनों में भी ये बात साबित हो चुकी है. धार्मिक आधार पर सिंदूर पति की आयु, उसके स्वास्थ्य से जोड़ा जाता है.
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पटनाः Chhath Parv Sindoor Story: लोक आस्था के कई रंगों से सजा छठ पर्व (Chhath Parv 2021) अपने पूरे शबाब पर है. नहाय-खाय और खरना के बाद अब तीसरे दिन शाम के अर्घ्य की तैयारी है. अस्ताचल गामी सूर्य जब पश्चिम दिशा में अपने लोक की ओर जा रहे होंगे तो व्रती महिलाएं और पुरुष उन्हें कमर तक जल में खड़े होकर प्रणाम करेंगे. हाथ में सूप, खुले बाल, लाल-पीली साड़ी और मांग से नाक तक सजा सुहाग का सुंदर प्रतीक सिंदूर.
नाक तक सजा सिंदूर
माथे पर नाक तक सजा सिंदूर, ये एक ऐसी निशानी है जिसे दूर से देखकर ही बताया जा सकता है कि महिला ने छठ व्रत किया है. लेकिन, सवाल ये है कि सामान्य दिनों की अपेक्षा छठ पर्व पर नाक तक लंबा सिंदूर लगाने की परंपरा क्यों है.
पढिए ये आदिवासी लोककथा
इस सवाल का जवाब एक आदिवासी लोककथा में मिलता है. यह कथा कई गांवों और गांव वालों के बीच अलग-अलग तरह से प्रचलित है और कई तरह के वर्जन भी मिल जाएंगे.
कहानी के मूल में सिंदूर लगाने की परंपरा की शुरुआत की बात है, लेकिन यही शुरुआत छठ पर लंबे सिंदूर की एक वजह बनती है. पहले यही जान लेते हैं कि सिंदूर लगाने की शुरुआत कैसे हुई.
वीरवान और धीरमती की कहानी
कहानी में है कि जंगल में बनी एक बस्ती में वीरवान नाम का एक युवक रहता था. शिकारी था और वीर भी. बड़े से बड़े नरभक्षी हो गए शेरों को एक वार में पस्त कर देना उसके लिए बाएं हाथ का खेल था. वहीं गांव के बाहर धीरमती नाम की एक युवती रहती थी. एक बार लकड़ी बीनते हुए धीरमती वन्य पशुओं से घिर गई तो वीरवान ने उसके प्राण बचाए. जिंदगी और मौत के इस जुए में दोनों एक-दूसरे पर मोहित हो गए और उस दिन के बाद जंगल के ही नहीं जिंदगी के रास्ते पर भी साथ चलना तय किया.
दुश्मन ने कर दिया हमला
ये कहानी हजारों या लाखों साल पहले शायद उस दौर की है, जब सभ्यता ने अभी पनपना शुरू नहीं किया था. विवाह जैसी परंपराओं का चलन नहीं था. दोनों साथ रहने लगे, लेकिन उसी जंगल के रहने वाले कालू को उनका मिलना पसंद नहीं आया. कालू वीरवान को रास्ते से हटाने के तरीके सोचने लगा. इसलिए रोज उनका पीछा किया करता था.
एक दिन वीरवान और धीरमती जंगल में काफी अंदर तक चले गए. शिकार नहीं मिला. धूप ने सताना शुरू किया तो प्यास लगी. वीरवान जल लेने चला गया और धीर इंतजार करने लगी. कालू ने मौका देखा और अकेले निकले वीरवान पर हमला बोल दिया और उसे गहरा घायल कर दिया. उसकी चीख से जंगल गूंज उठा.
धीरमती ने लिया बदला
धीरमती ने आवाज सुनी तो वो दौड़ी आई. उसने भी तुरंत कालू पर हंसिया चला दी. मरते-मरते कालू ने धीर की ओर भी चाकू फेंक दिया, जो उसके सीने में जा धंसा. धीर किसी तरह वीरवान के पास पहुंची. खून से लथपथ दोनों लिपट पड़े, जैसे आखिरी मुलाकात कर रहे हों. वीरवान ने अपनी बहादुर पत्नी के सिर पर गर्व और प्यार से हाथ फेरा तो मांग और माथे की बीच की जगह खून के कारण सुर्ख हो गई.
ऐसे चला सिंदूर का चलन
ये सुर्खी किसी तरह के अधिकार और दासता की प्रतीक नहीं थी. ये लाली और सुर्खी शौर्य की प्रतीक थी. वीरता की पहचान थी. कहते हैं न कि इज्जत का नाक से गहरा संबंध है. यह इज्जत शौर्य ही है. जिसकी नाक ऊंची उसकी उतनी इज्जत ऊंची. इसी इज्जत, प्रेम, शौर्य और वीरता का प्रतीक है सिंदूर.
सामान्य दिनों में महिलाएं मांग में सिंदूर इसी वजह से लगाती हैं, लेकिन छठ पर्व पर अपने सुहाग की लंबी उम्र, उसकी हमेशा प्रतिष्ठा और सम्मान बने रहने की कामना के लिए नाक तक लंबा सिंदूर लगाती हैं.
द्रौपदी ने भरा था नाक तक सिंदूर
छत्तीसगढ़-झारखंड और बिहार के कई इलाकों में पांडवनी शैली में महाभारत गाई जाती है. यहां के लोकरंग की कथाओं में पुराणों से अलग हटकर महाभारत का वर्णन किया जाता है. कहते हैं कि जब दुशासन गरजते हुए द्रौपदी के कक्ष में पहुंचा था, तब वह रजस्वला थी और उसने ऋतु स्नान नहीं किया था. ऐसे में वह अपने शृंगार में भी नहीं थी.
दुशासन ने ओछी बात कही. क्यों- आज तूने अभी तक तय नहीं किया कि किसके नाम का सिंदूर लगाना है. ऐसा कहकर वह उसके बाल पकड़ कर खींचने लगा. द्रौपदी बिना सिंदूर लगाए पतियों के सामने नहीं जा सकती थी, इसलिए उसने जल्दी ही सिंदूर दान ही अपने सिर पर पलट लिया. ऐसा करने से सिंदूर नाक तक फैल गया.
यह सिंदूर पांडवों की प्रतिष्ठा का प्रतीक था, जिसे कौरव उस वक्त धूमिल कर रहे थे. वस्त्र हरण के बाद द्रौपदी ने इसीलिए बाल खुले रखे और हमेशा नाक तक लंबा सिंदूर लगा कर रही थी. ताकि पांडव उसका प्रतिशोध जरूर लें.
सीता जी का सिंदूर उनकी पवित्रता की निशानी
बिहार ही नहीं देश-दुनिया में पूज्यनीय देवी सीता से जुड़ी कथा भी सिंदूर को लेकर है. कहते हैं कि वह प्रतिदिन पूर्ण शृंगार करके और सिंदूर लगाकर ही श्रीराम के सामने जाती थीं और राज्यसभा में बैठती थीं. लोकथाएं कहती हैं कि जब रावण बार-बार उनसे विवाह की हठ कर रहा था तब देवी सीता तिनके की ओट से उससे बात करती थीं.
इस दौरान वह नाक तक लंबा सिंदूर लगाती थीं ताकि रघुवंश कि विवाहिता का प्रतीक रावण को दूर से नजर आ जाए. इस बात का जिक्र मंदोदरी भी रावण से करती हैं. वह कहती हैं कि सीता पतिव्रता हैं. उनके बोलने से पहले उनका सिंदूर चमक कर इसका प्रमाण दे देता है, फिर भी आप अशोक वाटिका में उन्हें सताने क्यों जाते हैं. रावण नहीं मानता है और उसक अंत होता है.
कई हजार साल पुराना है सिंदूर लगाने का चलन
सिंदूर लगाने का ज्ञात प्रचलन 5000 साल से अधिक पुराना है. पौराणिक कथाओं में इसका जिक्र तो मिलता ही है, साथ ही कई सभ्यताओं के ऐतिहासिक अध्ययनों में भी ये बात साबित हो चुकी है. धार्मिक आधार पर सिंदूर पति की आयु, उसके स्वास्थ्य से जोड़ा जाता है.
यही वजह है कि जब महिलाओं छठ पर्व पर परिवार की सुख-समृद्धि की कामना कर रही होती हैं, वह भगवान भुवन भास्कर के सामने लंबा सिंदूर लगाकर नतमस्तक होती हैं.