तकरीबन दो महीने से राज्य की सियासत में सस्पेंस और अनिश्चितता का माहौल बना हुआ है. इसकी वजह है मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन से जुड़ा ऑफिस ऑफ प्रॉफिट का मामला. इस मामले में राजभवन एक प्रमुख धुरी है.
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रांची: झारखंड में राजभवन और राज्य सरकार के रिश्ते में कड़वाहट लगातार बढ़ रही है. सत्तारूढ़ दल झारखंड मुक्ति मोर्चा अब सीधे-सीधे राज्यपाल पर हमलावर है. पार्टी का कहना है कि राज्यपाल भाजपा के इशारे पर चल रहे हैं. मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने भी खुद राज्यपाल पर सवाल उठाये हैं. दूसरी तरफ राज्यपाल सार्वजनिक तौर पर कह चुके हैं कि उनका अपना अधिकार क्षेत्र है और इसपर किसी को सवाल नहीं उठाना चाहिए. वह राज्य सरकार के कुछ निर्णयों पर असहमति-नाराजगी भी जाहिर कर चुके हैं.
तकरीबन दो महीने से राज्य की सियासत में सस्पेंस और अनिश्चितता का माहौल बना हुआ है. इसकी वजह है मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन से जुड़ा ऑफिस ऑफ प्रॉफिट का मामला. इस मामले में राजभवन एक प्रमुख धुरी है. मामला यह है कि हेमंत सोरेन ने मुख्यमंत्री रहते हुए रांची के अनगड़ा में अपने नाम 88 डिसमिल के क्षेत्रफल वाली पत्थर खदान लीज पर ली थी. हालांकि इस खदान में खनन का कोई काम नहीं हुआ और बाद में सोरेन ने इस लीज को सरेंडर कर दिया. भाजपा ने इसे ऑफिस ऑफ प्रॉफिट (लाभ का पद) और जन प्रतिनिधित्व कानून के उल्लंघन का मामला बताते हुए राज्यपाल के पास शिकायत की थी. राज्यपाल ने इसपर चुनाव आयोग से मंतव्य मांगा था.
आयोग ने शिकायतकर्ता और हेमंत सोरेन को नोटिस जारी कर इस मामले में उनसे जवाब मांगा. दोनों के पक्ष सुनने के बाद चुनाव आयोग ने बीते 25 अगस्त को राजभवन को सीलबंद लिफाफे में अपना मंतव्य भेज दिया था. इसे लेकर अनऑफिशियली ऐसी खबरें तैरती रहीं कि चुनाव आयोग ने हेमंत सोरेन को दोषी मानते हुए उनकी विधानसभा सदस्यता रद्द करने की सिफारिश की है और इस वजह से उनकी मुख्यमंत्री की कुर्सी जानी तय है. ऐसी खबरों से राज्य में बने सियासी सस्पेंस और भ्रम के बीच सत्तारूढ़ गठबंधन को मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन के प्रति एकजुटता जताने के लिए डिनर डिप्लोमेसी और रिजॉर्ट प्रवास तक के उपक्रमों से गुजरना पड़ा.
इतना ही नहीं, विधानसभा के विशेष सत्र में सत्तारूढ़ गठबंधन ने उनके पक्ष में विश्वास मत का प्रस्ताव तक पारित किया. दूसरी तरफ झारखंड की राजनीति में पौने दो महीने के बाद भी लाख टके का सवाल यही है कि चुनाव आयोग ने सीलबंद लिफाफे में अपना जो मंतव्य राजभवन को भेजा था, उसका मजमून क्या है? सवाल यह भी कि चुनाव आयोग के मंतव्य पर राज्यपाल का फैसला क्या होगा और कब होगा?
यही सवाल पत्रकारों ने पिछले एक महीने में राज्यपाल से दो बार पूछा. पहली बार राज्यपाल ने हल्के-फुल्के अंदाज में सवाल टालते हुए कहा कि चुनाव आयोग से जो लिफाफा आया है, वह इतनी जोर से चिपका है कि खुल ही नहीं रहा. दूसरी बार उन्होंने पत्रकारों के इस सवाल कहा कि यह उनका अधिकार क्षेत्र है कि वह चुनाव आयोग के मंतव्य पर कब और क्या निर्णय लेंगे? उनके अधिकार पर किसी को सवाल नहीं उठाना चाहिए.
सत्तारूढ़ गठबंधन का कहना है कि इस मामले में राज्यपाल भाजपा के इशारे के अनुसार चल रहे हैं. रविवार को झामुमो ने प्रेस कांफ्रेंस कर कहा झारखंड की सरकार को असंवैधानिक तरीके से रोकने-दबाने की कोशिश की जा रही है. इसके एक दिन पहले मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने भी चुनाव आयोग से लेकर राज्यपाल पर सवाल उठाए और कहा कि ऐसा लगता है कि ये कहीं और से नियंत्रित हो रहे हैं.
इधर राज्य सरकार के निर्णयों से लेकर सरकार की ओर से विधानसभा में पारित किए गए विधेयकों पर राज्यपाल रमेश बैस ने पिछले आठ-दस महीने में कई बार सवाल उठाये हैं. बीते फरवरी महीने में राज्यपाल ने राज्य में जनजातीय सलाहकार परिषद (टीएसी) के गठन को लेकर राज्य सरकार द्वारा बनायी गयी नियमावली पर कई सवाल उठाये थे. राज्यपाल रमेश बैस ने राज्य सरकार की ओर से जून 2021 में बनाई गई नियमावली को संवैधानिक प्रावधानों के विपरीत और राज्यपाल के अधिकारों का अतिक्रमण बताते हुए केंद्र के पास शिकायत की थी. उन्होंने टीएसी की नियमावली और इसके गठन से संबिधत फाइल राज्य सरकार को वापस करते हुए इसमें बदलाव करने को कहा था. महीनों बाद भी इस मामले पर राजभवन और सरकार में गतिरोध बरकरार है.
राज्यपाल बीते महीनों में राज्य सरकार की ओर से विधानसभा में पारित एंटी मॉब लिंचिंग बिल, कृषि मंडी बिल सहित आधा दर्जन बिल अलग-अलग वजहों से लौटा चुके हैं. हाल में उन्होंने सरकार की ओर से कोर्ट फीस वृद्धि को लेकर पारित विधेयक को भी पुनर्विचार के लिए लौटाया है. पिछले हफ्ते राज्य के पर्यटन, सांस्कृतिक विकास, खेलकूद और युवा मामलों विभाग के कामकाज के रिव्यू के दौरान राज्यपाल ने असंतोष जताते हुए यहां तक टिप्पणी की थी कि राज्य में विजन की कमी साफ दिखती है.
(आईएएनएस)