Birthday Special: जयपाल सिंह मुंडा जिसने कभी हारना नहीं जाना
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Birthday Special: जयपाल सिंह मुंडा जिसने कभी हारना नहीं जाना

Birthday Special: जयपाल मुंडा की टीम ने न केवल प्रतियोगिता में जीत हासिल किया बल्कि पांच मैचों में किसी भी टीम को एक भी गोल करने का मौका तक नहीं दिया. हॉकी के साथ ही किसी अन्य खेलों में भारत के लिए यह पहला स्वर्ण पदक था. 

(फाइल फोटो)

Ranchi: 3 जनवरी 1903 को झारखंड के खूंटी जिले के टकरा गांव में जन्में मरंग गोमके (बड़े मालिक) जयपाल सिंह मुंडा भारतीय राजनीति के इतिहास के उन महान विभूतियों में शामिल हैं जिनके योग्यता के साथ-साथ भारतीय जनता के प्रति उनके द्वारा किए गए कार्यों का मुल्यांकन होना अभी बाकी है. मुंडा जनसंख्या बहुल यह वही स्थान था जहां भगवाल बिरसा मुंडा ने उलगुलान का मंत्र देते हुए अंग्रेजों को नाको चने चबाने पर मजबूर कर दिया था. जयपाल सिंह मुंडा का जन्म भी उसी धरती पर हुआ. बहुमुखी प्रतिभा के धनी जयपाल मुंडा एक राजनेता, खिलाड़ी के साथ आदिवासी समुदाय के पहले प्रतिभागी थे जिसका चयन भारतीय सिविल सेवा के लिए हुआ था. 

  1. जयपाल के हॉकी गोल, जिससे घबराता था पूरा यूरोप
  2. अलग झारखंड का देखा था सपना

जयपाल के हॉकी गोल, जिससे घबराता था पूरा यूरोप

जयपाल सिंह मुंडा ने ऑक्सफोर्ड के सेंट जॉन्स कॉलेज में पढ़ने के दौरान ही हॉकी खेलना शुरू कर दिया था. उन्होंने भारतीय छात्रों को मिलाकर अपनी टीम बनाई और यूरोपीय छात्रों से खेलने लगे. धीरे-धीरे उनके गोल इतने ताकतवर होते गए कि भारत वापसी के बाद उन्हें भारतीय हॉकी टीम का कैप्टन बना दिया गया. इस टीम में उनके साथ हॉकी के जादूगर कहे जाने वाले ध्यानचंद भी थे. 1928 में नीदरलैंड के एम्सटर्डम में हुए ओलंपिक में भारतीय हॉकी टीम पहली बार शामिल हो रही थी. जयपाल मुंडा की टीम ने न केवल प्रतियोगिता में जीत हासिल किया बल्कि पांच मैचों में किसी भी टीम को एक भी गोल करने का मौका तक नहीं दिया. हॉकी के साथ ही किसी अन्य खेलों में भारत के लिए पहला स्वर्ण पदक था. जयपाल मुंडा की टीम ने न केवल प्रतियोगिता जीता बल्कि पांच मैचों में किसी भी विपक्षी टीम को एक भी गोल करने का मौका तक नहीं दिया. इस जीत से विश्व भर में चर्चा में आए जयपाल मुंडा अंग्रेजों के रवैये से दुखी हो चुके थे, उन्होनें हॉकी खेलना ही छोड़ दिया.

फिल्मी कहानी की तरह रहा जीवन का सफर
जयपाल सिंह मुंडा बचपन से ही प्रतिभावान थे, उनकी प्रतिभा को देखते हुए उनके प्रारंभिक स्कूल के प्रचार्य ने उन्हें पादरी बनाने के इरादे से ऑक्सफोर्ड के सेंट जॉन्स कॉलेज में पढ़ने भेजा, पर नियति को तो कुछ और ही मंजूर था. खेल, वाद-विवाद में अव्वल मुंडा अंग्रेजों के व्यवहार और इरादे अच्छी तरह से समझ गए थें. सिविल सेवा में चयन के बाद नौकरी छोड़ने और उनका स्वर्ण पदक जीतते ही हॉकी छोड़ना इस बात का प्रमाण है कि कैसे वो अंग्रेजों के व्यवहार से परेशान थे. उनका राजनीतिक जीवन अंबेडकर के सापेक्ष रहा. वो लगातार आदिवासियों के अधिकारों को संविधान सभा में उठाते रहें.

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पहली बार दिया आदिवासियों को राजनैतिक विकल्प

जयपाल सिंह मुंडा ने आदिवासियों के लिए बढ़-चढ़कर योगदान दिया. आदिवासियों के हक की लड़ाई के लिए उन्होंने 1938 में आदिवासी महासभा का गठन किया. बिहार से अलग एक अलग झारखंड राज्य की मांग की. 1950 में झारखंड पार्टी का गठन किया और 1952 के चुनाव में 32 विधायकों के साथ बिहार सरकार के सामने बड़े विपक्ष के तौर पर सामने आए. कांग्रेस को तब समझ आ चुका था कि झारखंड उनके लिए खतरा है. 

फिर अंततः उन्हें राजनीतिक षड़यंत्र का शिकार होकर अपनी पार्टी का विलय कांग्रेस में करना पढ़ा.

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