अद्भुत है मां का मंदिर: सुबह भक्तों को दर्शन, दोपहर को आराम करने मंदिर से गायब हो जाती हैं देवी मां
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अद्भुत है मां का मंदिर: सुबह भक्तों को दर्शन, दोपहर को आराम करने मंदिर से गायब हो जाती हैं देवी मां

इस मंदिर के निर्माण और देवी की स्थापना से एक बहुत ही दिलचस्प किस्सा जुड़ा हुआ बताया जाता है. माना जाता है कि जिस वक्त कौरवों और पांडवों के बीच महाभारत का युद्ध चल रहा था, तो उस वक्त भीम ने अपनी जीत के लिए कुलदेवी को लाने के लिए आज के पाकिस्तान में स्थित हिंगलाज पहाड़ पर गए थे.

अद्भुत है मां का मंदिर: सुबह भक्तों को दर्शन, दोपहर को आराम करने मंदिर से गायब हो जाती हैं देवी मां

नई दिल्लीः हरियाणा के झज्जर में स्थित भीमेश्वरी देवी मंदिर का इतिहास बहुत ही पुराना बताया जाता है. इस मंदिर का इतिहास महाभारत की एक छुपी हुई घटना से है. इस मंदिर का निर्माण धृतराष्ट्र की पत्नी गांधारी ने करवाया था. इस मंदिर में नवरात्रों के दौरान दो बार नौ दिवसीय मेलों का आयोजन किया जाता है. इसमें हिस्सा लेने के लिए दुर-दुर से लोग पहुंचते हैं.

इस मंदिर के निर्माण और देवी की स्थापना से एक बहुत ही दिलचस्प किस्सा जुड़ा हुआ बताया जाता है. माना जाता है कि जिस वक्त कौरवों और पांडवों के बीच महाभारत का युद्ध चल रहा था, तो उस वक्त भीम ने अपनी जीत के लिए कुलदेवी को लाने के लिए आज के पाकिस्तान में स्थित हिंगलाज पहाड़ पर गए थे. देवी भीम के साथ आने के लिए मान तो गई मगर उन्होंने भीम के समक्ष एक शर्त रखी.

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शर्त में देवी ने कहा कि अगर भीम उन्हें अपने कंधे पर बैठाकर रणभूमि तक ले जाएंगे तो ही वह उनके साथ चलेंगी. अगर भीम ने देवी को कहीं रास्ते में अपने कंधे से उतारा तो वे वहीं विराजमान हो जाएंगी. भीम को अपनी ताकत पर विश्वास था, इसलिए उन्होंने देवी के प्रस्ताव को मान लिया. इसके बाद भीम देवी को अपने कंधे पर लेकर निकल पड़े. जब वह देवी को बैठाकर आगे बढ़ते जा रहे थे, तो रास्ते में उन्होंने लघुशंका का अहसास हुआ. भीम ने देवी को अपने कंधे से नीचे उतार दिया और लघुशंका के लिए चले गए. इसके बाद वह वापिस लौटे तो उन्होंने देवी को वापस अपने कंधे पर बैठाकर ले जाने की कोशिश की, तभी देवी ने भीम को अपनी शर्त याद दिलाई. जिसके बाद देवी मां उसी जगह पर विराजमान हो गईं.

इस घटना के बाद देवी हमेशा के लिए उसी स्थान पर विराजमान हो गईं. ऐसा माना जाता है कि महाभारत का युद्ध समाप्त होने के बाद धृतराषट्र की पत्नी और दुर्योधन की माता गांधारी ने यहां देवी के मंदिर की स्थापना की थी. मंदिर की स्थापना के बाद से यहां साल में दो बार मेले लगते हैं. इस मेले में बहुत से क्ष्रधालु आते हैं. यहां नवरात्रों के दौरान जन्में बच्चों का मुंडन करने की भी परंपरा है. 

इस मंदिर में सदियों से एक परंपरा भी चली आती है, जिसमें देवी मां की प्रतिमा को सुबह बाहर वाले मंदिर में लाया जाता है. दोपहर होने पर देवी की मूर्ती को पुजारी अपनी गोद में उठाकर शहर के अंदर वाले मंदिर में ले जाते हैं. देवी मां रात भर अंदर वाले मंदिर में आराम करती हैं. पुरानी मान्यताओं के अनुसार मंदिर पुराने समय में जंगलों में था. उस समय तब ऋषि दुर्वासा ने मां से विनती की थी.वे उनके आश्रम में आकर भी रहे. तब से ही यह दो मंदिरों की परंपरा चल रही है. आज भी यहां पर बड़े भाव से ऋषि दुर्वासा द्वारा रचित आरती से पूजा अर्चना की जाती है. मेले के दौरान विशेष तौर पर चांदी के सिंहासन पर बैठी होती हैं. देवी मां कोलकत्ता से आने वाली विशेष पोशाक में श्रद्धालुओं को आशीर्वाद देती हैं.

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