ये विडम्बना ही है कि वैसे तो भारत का संवैधानिक स्टेटस सेकुलर यानी धर्मनिरपेक्ष है, जो सभी धर्मों में विश्वास और समान अधिकारों की बात करता है, लेकिन एक धर्मनिरपेक्ष देश में क़ानून को लेकर यूनिफॉर्मिटी यानी समानता नहीं है.
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नई दिल्ली: आज हम इस सवाल के साथ आपके सामने आए हैं कि जब हमारे देश में सबका DNA एक है, तो फिर कानून अलग-अलग क्यों हैं? आज़ादी के 73 साल बाद भी हमारे देश में विवाह, तलाक और ज़मीन जायदाद के कानून, हर नागरिक के लिए एक समान क्यों नहीं हैं? दिल्ली हाई कोर्ट ने बहुत ही क्रांतिकारी फैसला सुनाया है, जिसमें उसने कहा है कि देश में यूनिफॉर्म सिविल कोड यानी समान नागरिक संहिता होनी चाहिए.
सोचिए, समाज के हर वर्ग के छात्र जब स्कूल में जाते हैं, तो उनकी एक जैसी यूनिफॉर्म होती है, एक जैसी परीक्षाएं होती हैं और स्कूल के नियम भी एक जैसे ही सब पर लागू होते हैं, तो क्या देश के कानूनों में भी यही समानता लागू नहीं होनी चाहिए? धर्म और जाति के आधार पर ये क़ानून अलग-अलग क्यों हैं? संवैधानिक रूप से हम अपने आपको धर्मनिरपेक्ष देश कहते हैं, लेकिन हमारे ही देश के कानून में धर्म के हिसाब से भेदभाव होता है. इसलिए आज हम यूनिफॉर्म सिविल कोड की दशकों पुरानी मांग को एक बार फिर पूरे देश के साथ मिलकर उठाएंगे.
सबसे पहले हम आपको सरल भाषा में ये पूरी खबर बताते हैं, ताकि इस पर आपको कोई भ्रमित न कर सके क्योंकि, जब-जब देश में यूनिफॉर्म सिविल कोड पर बहस शुरू हुई है या अदालतों ने इस पर कोई फैसला दिया है तो इस विषय को एक विशेष धर्म के खिलाफ बता कर दुष्प्रचार फैलाया जाता है और फिर यूनिफॉर्म सिविल कोड को लेकर फेक न्यूज़ की कई दुकानें खुल जाती हैं. इसलिए इस विषय को लेकर आज आपको सही जानकारी होनी चाहिए और हम इसमें आपकी पूरी मदद करेंगे. सबसे पहले आपको ये पूरी खबर बताते हैं.
दिल्ली हाई कोर्ट ने तलाक के एक मामले में दिए गए जजमेंट में कहा है कि देश में समान नागरिकता संहिता को लागू करने पर विचार होना चाहिए और जजमेंट की ये कॉपी केन्द्र सरकार को भेजी जानी चाहिए. ये फ़ैसला जस्टिस प्रतिभा सिंह ने दिया है. संक्षेप में कहें तो ख़बर ये है कि एक बार फिर से अदालत ने देश में यूनिफॉर्म सिविल कोड को लागू करने पर जोर दिया है. लेकिन यूनिफॉर्म सिविल कोड है क्या और तलाक के इस मामले में कोर्ट को इसकी जरूरत क्यों महसूस हुई? पहले आपको ये बताते हैं.
यूनिफॉर्म सिविल कोड एक सेकुलर यानी पंथनिरपेक्ष कानून है, जो किसी भी धर्म या जाति के सभी निजी कानूनों से ऊपर होता है, लेकिन भारत में अभी इस तरह के कानून की व्यवस्था नहीं है. फिलहाल देश में हर धर्म के लोग शादी, तलाक और जमीन जायदाद के मामलों का निपटारा अपने पर्सनल लॉ के मुताबिक करते हैं. मुस्लिम, ईसाई और पारसी समुदाय के अपने पर्सनल लॉ हैं, जबकि हिंदू पर्सनल लॉ के तहत हिन्दू, सिख, जैन और बौद्ध धर्म के सिविल मामलों का निपटारा होता है. कहने का मतलब ये है कि अभी एक देश, एक कानून की व्यवस्था भारत में नहीं है.
और ये विडम्बना ही है कि वैसे तो भारत का संवैधानिक स्टेटस सेकुलर यानी धर्मनिरपेक्ष है, जो सभी धर्मों में विश्वास और समान अधिकारों की बात करता है, लेकिन एक धर्मनिरपेक्ष देश में क़ानून को लेकर यूनिफॉर्मिटी यानी समानता नहीं है, जबकि इस्लामिक देशों में इसे लेकर क़ानून है. यानी जो देश धर्मनिरपेक्ष हैं, वही समान क़ानून के रास्ते पर आज तक आगे नहीं बढ़ पाया है और इसी वजह से दिल्ली हाई कोर्ट का फ़ैसला महत्वपूर्ण हो जाता है.
ये फ़ैसला तलाक के एक मामले में दिया गया है. इस मामले में कोर्ट को ये तय करना था कि तलाक हिंदू मैरिज एक्ट के आधार पर होगा या मीणा जनजाति के नियमों के आधार पर होगा? क्योंकि पति-पत्नी राजस्थान की मीणा जनजाति से हैं, जो ST समुदाय में आते हैं.
हिंदू मैरिज एक्ट में तलाक के लिए क़ानूनी कार्यवाही का प्रावधान है, जबकि मीणा जनजाति में तलाक का फैसला पंचायतें लेती हैं. लेकिन इस मामले में पति की दलील थी कि शादी हिंदू रीति रिवाज़ों से हुई है, इसलिए तलाक भी हिंदू मैरिज एक्ट के तहत होना चाहिए, जबकि पत्नी की दलील थी कि मीणा जनजाति पर हिंदू मैरिज एक्ट लागू नहीं होता, इसलिए उसके पति ने तलाक की जो अर्जी दी है, वो खारिज हो जानी चाहिए.
इस पर 28 नवम्बर 2020 को राजस्थान की एक अदालत ने अपना फैसला देते हुए तलाक की अर्जी को खारिज कर दिया था और ये फैसला इस महिला के पक्ष में गया था. लेकिन बाद में इस व्यक्ति ने दिल्ली हाई कोर्ट में याचिका लगाई और अब हाई कोर्ट ने फैसले को पलट दिया है. कोर्ट ने कहा है कि वो राजस्थान की अदालत के फैसले को खारिज करता है और इस मामले में ट्रायल कोर्ट को फिर से सुनवाई शुरू करने के निर्देश देता है. सबसे अहम बात ये है कि अब इस मामले में तलाक का फैसला हिंदू मैरिज एक्ट के तहत ही होगा.
इस पूरे मामले से आज आप ये भी समझ सकते हैं कि देश को सभी धर्मों और जाति के लिए समान क़ानून की जरूरत क्यों है? अगर आज भारत में समान नागरिक संहिता क़ानून होता तो ये मामला इतना उलझता ही नहीं और न्यायपालिका पर भी ऐसे मामलों का बोझ नहीं पड़ता. इसमें कोर्ट द्वारा लिखा गया है कि आधुनिक भारत में धर्म, जाति और समुदाय की बाधाएं तेज़ी से टूट रही हैं और तेज़ी से हो रहे इस बदलाव की वजह से अंतरधार्मिक विवाह और तलाक में परेशानियां बढ़ रही हैं.
इस फैसले में आगे लिखा है कि आज की युवा पीढ़ी को इन परेशानियों से संघर्ष न करना पड़े, इसे देखते हुए देश में यूनिफॉर्म सिविल कोड लागू होना चाहिए और अदालत अपने फैसले में ये भी कहती है कि इस फैसले की कॉपी केन्द्र सरकार को भी भेजी जानी चाहिए, ताकि सरकार इस पर विचार कर सके.
आज आपके मन में ये भी सवाल होगा कि भारत का संविधान समान नागरिक संहिता को लेकर क्या कहता है?
इसे समझने के लिए आपको हमारे साथ 72 वर्ष पीछे चलना होगा, जब भारत में संविधान का निर्माण हो रहा था. 23 नवम्बर 1948 को संविधान में इस पर जोरदार बहस हुई थी और संविधान सभा में ये प्रस्ताव रखा गया था कि सिविल मामलों में निपटारे के लिए देश में समान कानून होना चाहिए, लेकिन मोहम्मद इस्माइल साहिब, नज़ीरुद्दीन अहमद, महबूब अली बेग साहिब बहादुर, पोकर साहिब बहादुर और हुसैन इमाम ने एक मत से इसका विरोध किया. उस समय संविधान सभा के सभापति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद और तमाम बड़े कांग्रेसी नेता भी इसके खिलाफ थे.
इन सभी सदस्यों की तब दलील थी कि समान कानून होने से मुस्लिम पर्सनल लॉ ख़त्म हो जाएगा और इसमें मुस्लिमों के लिए जो चार शादियां, तीन तलाक और निकाह हलाला की व्यवस्था की गई है, वो भी समाप्त हो जाएगी और भारी विरोध की वजह से उस समय संविधान की मूल भावना में समान अधिकारों का तो जिक्र आया, लेकिन समान क़ानून की बात ठंडे बस्ते में चली गई.
उस समय संविधान निर्माता डॉक्टर भीम राव अम्बेडकर ने कई महत्वपूर्ण बातें कहीं थी, जिसका जिक्र दिल्ली हाई कोर्ट की जजमेंट कॉपी में भी है. उनका कहना था कि 'सभी धर्मों के पर्सनल लॉ में सुधार लाए बग़ैर देश को सामाजिक बदलाव के युग में नहीं ले जाया जा सकता.
उन्होंने ये भी कहा था कि 'रूढ़िवादी समाज में धर्म भले ही जीवन के हर पहलू को संचालित करता हो, लेकिन आधुनिक लोकतंत्र में धार्मिक क्षेत्र अधिकार को घटाये बगैर असमानता और भेदभाव को दूर नहीं किया जा सकता है. इसीलिए देश का ये दायित्व होना चाहिए कि वो ‘समान नागरिक संहिता’ यानी Uniform Civil Code को अपनाए.'
सोचिए, डॉक्टर भीम राव अम्बेडकर कितने दूरदर्शी थे. उन्होंने 72 वर्ष पहले ही कह दिया था कि अगर देश को एक समान क़ानून नहीं मिला, तो भेदभाव कभी दूर नहीं होगा.
उस समय विरोध की वजह से ये क़ानून अस्तित्व में नहीं आया, लेकिन संविधान के आर्टिकल 35 में इस बात का उल्लेख ज़रूर किया गया कि सरकार भविष्य में देश में समान नागरिक संहिता को लागू करने के प्रयास कर सकती है.
बाद में यही आर्टिकल 35, आर्टिकल 44 में बदल गया, लेकिन कभी वोट बैंक की राजनीति की वजह से, कभी साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण की वजह से और कभी सरकार को बचाए रखने के लिए इस विषय को छेड़ा तक नहीं गया और यही वजह है कि भारतीय संविधान दुनिया का सबसे बड़ा लिखित संविधान है, लेकिन ये आज भी प्रासंगिक नहीं है और ये स्थिति भी तब है, जब देश की सबसे बड़ी अदालत सुप्रीम कोर्ट इसे जरूरी बता चुकी है.
वर्ष 1985 में शाह बानो केस के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि यूनिफॉर्म सिविल कोड देश को एक रखने में मदद करेगा. तब कोर्ट ने ये भी कहा था कि देश में अलग-अलग क़ानूनों से होने वाले विचारधाराओं के टकराव ख़त्म होंगे. इसके अलावा वर्ष 1995 में सुप्रीम कोर्ट ने सरकार को निर्देश दिए थे कि संविधान के आर्टिकल 44 को देश में लागू किया जाए और आज फिर से अदालत ने इसे ज़रूरी बताया है.
हमारे देश में यूनिफॉर्म सिविल कोड को कभी इसलिए लागू नहीं किया जा सका, क्योंकि इसे लेकर समय समय पर सभी धर्मों के बीच गलतफहमी पैदा की गईं लेकिन आज तीन पॉइंट्स में हम ये गलतफहमियां दूर करना चाहते हैं.
पहला पॉइंट है, इस क़ानून की मूल भावना को लेकर बहुत से लोगों को लगता है कि ये क़ानून उनके धर्म की मान्यताओं और रीति रिवाज़ों को बदल देगा, जबकि ऐसा नहीं है. इस क़ानून की मूल भावना में किसी धर्म के खिलाफ द्वेष नहीं, बल्कि यूनिफॉर्मिटी यानी समानता है. इसे आप इस उदाहरण से समझिए. आप स्कूलों में बच्चों को एक यूनिफॉर्म में देखते होंगे. सभी बच्चे एक जैसे रंग की शर्ट पैंट, टाई और एक रंग के जूते पहन कर स्कूल जाते हैं.
इसे समानता कहते हैं. इससे होता ये है कि जब बच्चे एक यूनिफॉर्म में होते हैं, तो इससे अमीर-गरीब, जाति और धर्म का भेदभाव मिट जाता है और समानता का भाव मन में रहता है, लेकिन सोचिए अगर स्कूलों में ये यूनिफॉर्मिटी न हो तो क्या होगा. फिर जो बच्चे अमीर होंगे, वो महंगे कपड़े पहन कर स्कूल आएंगे और जो गरीब हैं, उनके कपड़े अच्छे नहीं होंगे. इससे समानता नहीं रहेगी और इस कानून का लक्ष्य इसी भेदभाव को ख़त्म करना है.
दूसरा पॉइंट है, महिलाओं को समान अधिकार देना. अभी सभी धर्मों के पर्सनल लॉ में महिलाओं के लिए अलग अलग अधिकार हैं. जैसे हिन्दू पर्सनल लॉ में अगर कोई व्यक्ति अपनी पत्नी को तलाक दिए बिना दूसरी शादी करता है, तो उसकी पत्नी उसे गिरफ़्तार करवा सकती है और इस शादी की वैधता खत्म हो सकती है, जबकि मुस्लिम पर्सनल लॉ में पुरुषों को चार शादियों का अधिकार मिला है और महिलाएं चाह कर भी उनके खिलाफ नहीं जा सकतीं. यानी मुस्लिम पर्सनल लॉ में महिलाओं को हिन्दू पर्सनल लॉ की तुलना में कम अधिकार हैं और यूनिफॉर्म सिविल कोड इसी असमानता को खत्म करने की बात करता है. इसमें तीन तलाक का भी मुद्दा है, लेकिन इसके खिलाफ केन्द्र सरकार 2019 में कानून बना चुकी है.
और तीसरा पॉइंट है, सेकुलरिज्म यानी धर्मनिरपेक्षता- आज भारत धर्मनिरपेक्ष देश तो है, लेकिन यहां अलग अलग धर्मों के अपने पर्सनल लॉ हैं. अब सोचिए जिस देश का संविधान समानता की बात करता है, वहां धर्मों के हिसाब से कानून होना कितना उचित है. हमें लगता है कि यूनिफॉर्म सिविल कोड का नहीं होना, भारत के सेकुलर स्टेटस को कमजोर बनाता है.
-भारत में भले एक देश, एक क़ानून की व्यवस्था न हो, लेकिन कई देशों ने इसे अपनाया है.
-फ्रांस में कॉमन सिविल कोड लागू है, जो वहां के सभी धर्मों के लोगों पर समान क़ानून की व्यवस्था को सुनिश्चित करता है.
-यूनाइटेड किंगडम के इंग्लिश कॉमन लॉ की तरह अमेरिका में फेडरल लेवल पर कॉमन लॉ सिस्टम लागू है.
-ऑस्ट्रेलिया में भी इंग्लिश कॉमन लॉ के जैसा ही कॉमन लॉ सिस्टम लागू है.
-जर्मनी और उज़बेकिस्तान जैसे देशों में भी सिविल लॉ सिस्टम लागू हैं.
-यानी इन देशों में एक देश, एक कानून का सिद्धांत है.
-केन्या, पाकिस्तान, इटली, साउथ अफ्रीका, नाइजीरिया और ग्रीस में समान नागरिक संहिता नहीं है.
-केन्या, इटली, ग्रीस और साउथ अफ्रीका में ईसाई बहुसंख्यक हैं, लेकिन यहां मुसलमानों के लिए अलग शरीयत का कानून है.
-पाकिस्तान एक इस्लामिक देश है लेकिन यहां कुछ मामलों में हिंदुओँ के लिए अलग प्रावधान हैं. हालांकि पाकिस्तान में हिन्दुओं को इतनी आज़ादी नहीं है.
-इसके अलावा नाइजीरिया में चार तरह के कानून लागू हैं. इंग्लिश लॉ, कॉमन लॉ, कस्टमरी लॉ और शरीयत. यानी यहां भी भारत की तरह सभी धर्मों के लिए समान क़ानून नहीं है.