यूरोप इस्लाम के उस संस्करण का निर्माण करने के लिए भी तैयार है जो उसे सूट करता है जो यूरोप की सुरक्षा के लिए जरूरी है. यूरोप इस्लाम के धर्म गुरुओं और इस्लाम का प्रचार करने वाले लोगों को ट्रेनिंग देने के लिए एक नया संस्थान बनाने पर विचार कर रहा है.
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नई दिल्ली: आज हम यूरोप में आए बहुत बड़े राजनैतिक और प्रशासनिक बदलाव का विश्लेषण करेंगे. जो यूरोप ये बात कभी मानने को तैयार नहीं होता था कि भारत इस्लामिक आतंकवाद से पीड़ित है. वो यूरोप अब आतंकवाद से निपटने के लिए सबकुछ करने को तैयार है. यहां तक कि यूरोप इस्लाम के उस संस्करण का निर्माण करने के लिए भी तैयार है जो उसे सूट करता है जो यूरोप की सुरक्षा के लिए जरूरी है. यूरोप इस्लाम के धर्म गुरुओं और इस्लाम का प्रचार करने वाले लोगों को ट्रेनिंग देने के लिए एक नया संस्थान बनाने पर विचार कर रहा है. कट्टर इस्लामिक आतंकवाद की बढ़ती घटनाओं को देखते हुए फिलहाल यूरोप ने अपने लिए तीन लक्ष्य तय किए हैं.
पहला अपने अपने देश के इमामों को ट्रेनिंग देकर उन्हें सर्टिफिकेट देना. अगर ऐसा हो गया तो यूरोप की मस्जिदों में वही इमाम और मौलवी काम कर पाएंगे जिनके पास इसकी ट्रेनिंग और सर्टिफिकेट होगा.
दूसरा लक्ष्य है, इस्लामिक संस्थानों को विदेशों से मिलने वाली फंडिंग को रोकना.
तीसरा लक्ष्य है कि यूरोप के खुले बॉर्डर्स को बंद करना या फिर इन बॉडर्स से गुजरने वाले लोगों की गहन जांच करना.
इमामों और मौलवियों को ट्रेनिंग
इमामों और मौलवियों को ट्रेनिंग देने का प्रस्ताव यूरोपियन काउंसिल के अध्यक्ष चार्ल्स मिशेल ने दिया है. यूरोपियन काउंसिल यूरोप की राजनीतिक दिशा और प्राथमिकताओं को तय करने का काम करती है.
यहां हम ये भी जानेंगे कि आखिर यूरोप को कट्टर इस्लाम की चिंता अचानक से क्यों सताने लगी है?
मौलवियों को ट्रेनिंग देने का ये आईडिया सबसे पहले फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों ने दिया था, जिनका कहना है कि इमाम और मौलवियों को विदेशों में ट्रेनिंग लेने से रोका जाना चाहिए और इन्हें फ्रांस में ही ट्रेनिंग और इस ट्रेनिंग का प्रमाणपत्र मिलना चाहिए.
मैक्रों इतना कड़ा फैसला इसलिए लेना चाहते हैं क्योंकि, फ्रांस में इस्लामिक आतंकवाद को रोकना मुश्किल हो रहा है. फ्रांस और ऑस्ट्रिया में जो हमले हुए उसने पूरी दुनिया को बता दिया है कि कैसे इस्लाम की शिक्षा के नाम पर युवाओं को कट्टर बनाया जाता है.
विदेशी फंड पर भी रोक लगाने का प्रस्ताव
इसके अलावा फ्रांस की ही तर्ज पर यूरोपियन काउंसिल ने इस्लाम से जुड़े धार्मिक संस्थानों को मिलने वाले विदेशी फंड पर भी रोक लगाने का प्रस्ताव दिया है.
इस प्रस्ताव में यूरोप आने वाले शरणार्थियों को चेतावनी देने की भी बात कही गई है, जिसमें शरणार्थियों से कहा जाएगा कि हम आपकी मदद तो करेंगे लेकिन, इसके बदले में आपको भी हमें बहुत कुछ देना होगा. जाहिर है कि शरणार्थियों को ये संदेश दिया जा रहा है कि आप हमारे देश में आ तो सकते हैं लेकिन, आपको ऐसा कुछ नहीं करना है जो देश की सुरक्षा के खिलाफ है.
यूरोप के देश खुले बॉर्डर्स वाली अपनी परंपरा को फिर से परख रहे
इसके अलावा यूरोप के देश खुले बॉर्डर्स वाली अपनी परंपरा को भी फिर से परख रहे हैं. फ्रांस के राष्ट्रपति ने कुछ दिनों पहले कहा था कि यूरोप को इस पर विचार करना चाहिए, क्योंकि बॉर्डर्स के खुले रहने से बड़ी संख्या में शरणार्थी एक देश से दूसरे देश में आराम से चले जाते हैं और इन खुली हुई सीमाओं का फायदा उठाकर वो आपराधिक गैंग, मानव तस्करी करते हैं जिनके संबंध आतंकवादी संगठनों से हैं.
यूरोप दुनिया का ऐसा महाद्वीप है जहां इतिहास बनते रहे हैं. यूरोप से ही पहले और दूसरे विश्व युद्ध की शुरुआत हुई थी. यूरोप के देश शीत युद्ध के भी केंद्र में रहे हैं और अब यूरोप अपनी जमीन से आतंकवाद के खिलाफ युद्ध छेड़ने का ऐलान कर रहा है और इसका आधार बने हैं हाल ही के दिनों में फ्रांस और ऑस्ट्रिया में हुए आतंकवादी हमले.
यूरोपियन यूनियन में 27 देश
यूरोपियन यूनियन में 27 देश हैं और इनमें से ज्यादातर देशों में एक ही मुद्रा चलती है और इन सभी देशों के बीच मुक्त व्यापार भी होता है. लेकिन अब तक यूरोप के देश आतंकवाद के खिलाफ कोई संयुक्त नीति नहीं बना पाए हैं. हालांकि अब इस स्थिति को बदलने की कोशिश हो रही है.
यूरोप के सामने इस समय कोरोना वायरस की सेकंड वेव की चुनौती है लेकिन, इन सबके बीच आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई यूरोप के लिए प्राथमिकता बन गई है और मौलवियों को ट्रेनिंग देने से लेकर बॉर्डर्स बंद किए जाने तक पर विचार किया जा रहा है.
लेकिन क्या इस्लामिक कट्टरपंथ के खिलाफ यूरोप की ये लड़ाई इस्लामिक आतंकवाद को रोक पाएगी? वर्ष 2001 में अमेरिका में हुए 9/11 के हमलों के बाद तत्कालीन राष्ट्रपति जॉर्ज बुश ने आतंकवाद के खिलाफ एक वैश्निक लड़ाई की घोषणा की थी लेकिन, 19 साल के बाद भी आतंकवाद को दुनिया से खत्म नहीं किया जा सका है इसलिए सवाल ये है कि क्या यूरोप ऐसा कर पाएगा?
यूरोप के नेताओं को समझनी होगी ये बात
इसका जवाब ये है कि ये तब तक संभव नहीं है जब तक यूरोप भारत जैसे देशों की तकलीफ को नहीं समझेगा, जब तक यूरोप के देश अपने यहां के आतंकवाद को अलग समस्या और भारत जैसे देश के आतंकवाद को अलग समस्या के तौर पर देखेंगे तब तक ये लड़ाई अधूरी रहेगी. क्योंकि, जब आतंकवाद की ज़द में एक देश आता है तो बाकी देशों का भी उसकी ज़द में आना तय होता है और यूरोप के नेताओं को ये बात समझनी होगी.
हम ऐसा इसलिए कह रहे हैं कि यूरोप आतंकवाद की समस्या पर लगातार दोहरा रवैया अपनाता रहा है. जब तक यूरोप के अपने घर में आतंकवाद की आग नहीं लगी, तब तक यूरोप पूरी दुनिया को ये सिखाता रहा कि अल्पसंख्यकों के साथ कैसा व्यवहार करना चाहिए. यूरोप समय समय पर दूसरे देशों के लिए इससे संबंधित गाइडलाइंस जारी करता रहा है.
धार्मिक कट्टरता को रोकने के लिए नए-नए कानून
इस वर्ष यूरोपियन पार्लियामेंट में भारत के नए नागरिकता कानून और कश्मीर से धारा 370 हटाए जाने के फैसले पर भी चर्चा करने की कोशिश हुई थी. जबकि ये दोनों भारत के अंदरूनी फैसले थे और यूरोप का इससे कोई लेना देना नहीं था लेकिन अल्पसंख्यकों के साथ कैसा व्यवहार होना चाहिए. इसका नैतिक पाठ पढ़ाने के लिए यूरोप भारत को लेक्चर देना चाहता था लेकिन, अब यूरोप के देश खुद अपने यहां रहने वाले अल्पसंख्यकों की परवाह किए बिना धार्मिक कट्टरता को रोकने के लिए नए नए कानून बना रहे हैं.
अगर भारत में ऐसा कोई कानून लाया जाता?
फ्रांस इस साल के अंत तक एक ऐसा कानून लाने वाला है जिसके बाद फ्रांस अपने यहां इस्लाम का नया संस्करण विकसित कर पाएगा और मस्जिदों पर ज़्यादा नियंत्रण हासिल कर पाएगा लेकिन, मजे की बात ये है यूरोपियन यूनियन और फ्रांस को अब ये डर नहीं है कि दुनिया उन्हें इस्लामोफोबिक बता सकती है. यूरोप ये सब खुद को सुरक्षित रखने के लिए कर रहा है और ये वक्त की जरूरत भी है लेकिन, जरा कल्पना कीजिए कि अगर भारत में ऐसा कोई कानून लाया जाता तो यूरोप के यही देश क्या प्रतिक्रिया देते? यूरोप के देश भारत को लेक्चर देते और कहते कि भारत का लोकतंत्र ख़तरे में आ गया है.
यूरोप के देशों को ये बात बहुत देर से समझ आई
यूरोप उन देशों पर बहुत आसानी से प्रतिबंध तक लगा देता है जहां अल्पसंख्यकों के साथ अन्याय होने का दावा किया जाता है. लेकिन आज यूरोप को बात समझ में आ गई है.
ऐसा नहीं है कि इस्लाम के प्रसार को रोकने के नाम पर दुनिया के मुसलमानों पर अत्याचार नहीं हो रहा है. चीन इसका सबसे बड़ा उदाहरण है. जहां अब तक लाखों वीगर मुसलमानों को मारा जा चुका है और जो बचे हैं वो भी यातनाएं सह रहे हैं. लेकिन यूरोप के देशों को ये बात बहुत देर से समझ आई है कि इस्लाम का विरोध करना और कट्टर इस्लाम का विरोध करना, दोनों अलग अलग बातें हैं.
यूरोप को ये भी समझ में आ गया होगा कि धर्मनिरपेक्षता के नाम पर लंबे समय तक अल्पसंख्यकों का तुष्टीकरण नहीं किया जा सकता.
इनक्रिप्टेड कम्युनिकेशंस का सहारा
पिछले शुक्रवार को यूरोप के गृहमंत्रियों के बीच एक अहम बैठक हुई और इसमें एक और प्रस्ताव लाया गया. जिसमें कहा गया कि यूरोप के लोगों को इस्लामीकरण से बचाना होगा, ये शब्द अपने आप में गौर करने लायक है क्योंकि इसमें चरमपंथ नहीं बल्कि, इस्लामीकरण का ज़िक्र किया गया है. फिलहाल ये बात ड्राफ्ट में है लेकिन, यूरोपियन यूनियन खुले तौर पर इसकी घोषणा भी कर सकता है. ड्राफ्ट में कही गई ये बात यूरोप और इस्लामिक देशों के बीच तनाव को और बढ़ा सकती है. लेकिन इसमें जो सबसे महत्वपूर्ण बात कही गई है वो ये है कि यूरोप की सरकारें अब इनक्रिप्टेड कम्युनिकेशंस तक अपनी पहुंच बनाना चाहती हैं. वाट्सऐप और टेलीग्राम जैसे सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स पर लोगों के बीच जो बातचीत होती हैं वो इनक्रिप्टेड होती हैं, इसका मतलब ये है कि मैसेज भेजने वाले और इन्हें पढ़ने वाले व्यक्ति के अलावा किसी की पहुंच इस तक नहीं होती. यहां तक कि सुविधा मुहैया कराने वाली कंपनी भी इनक्रिप्टेड बातचीत को नहीं पढ़ सकती लेकिन, यूरोपियन यूनियन ने आतंकवाद से लड़ने के लिए जो ड्राफ्ट तैयार किया है उसके जरिए टेक्नोलॉजी कंपनियों को कहा जा सकता है कि वो इनक्रिप्टेड डेटा तक सरकारों की पहुंच को सुनिश्चित करें.
ऐसा इसलिए किया जा रहा है है ताकि सरकार इन लोगों पर नज़र रख सके जो इनक्रिप्टेड कम्युनिकेशंस का सहारा लेकर लोगों को कट्टर बनाते हैं या आतंकवादी गतिविधियों के लिए उकसाते हैं. लेकिन आप सोचिए अगर ऐसा ही प्रस्ताव भारत की सरकार लाती तो यूरोप के ये देश इसका विरोध करने लगते और कहते कि भारत में लोगों की प्राइवेसी यानी निजता को छीना जा रहा है. जिस यूरोप के लिए लोगों की निजता सर्वोपरि हुआ करती थी, वो यूरोप अब आतंकवाद से निपटने के लिए अपने लोगों की प्राइवेसी की बलि भी देने के लिए तैयार है.
इसके अलावा यूरोप के देश टेक कंपनियों को अपनी वेबसाइट और प्लेटफॉर्म्स से वो सामग्री हटाने के लिए भी कह सकते हैं, जिनका इस्तेमाल नफरत और आतंकवाद फैलाने के लिए किया जाता है. ऐसा न करने वाली कंपनियों पर भारी जुर्माना भी लगाया जा सकता है. इसके लिए एक Digital Service Act लाया जा सकता है जिसके तहत कंपनियों को एक घंटे के अंदर ऐसा कंटेंट हटाने के लिए कहा जा सकता है जो आतंकवाद को बढ़ावा देते हैं.