LAC पर तनाव कम करने के लिए पहली बार भारत और चीन के बीच सैन्य और कूटनीतिक स्तर की संयुक्त बातचीत हुई है. भारत और चीन के बीच LAC पर चीन के इलाके मॉल्डो में 13 घंटे से भी अधिक समय तक ये बातचीत चली है. इस वर्ष जून महीने से अब तक कोर कमांडर स्तर की यह छठी मीटिंग थी.
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नई दिल्ली: LAC पर तनाव कम करने के लिए पहली बार भारत और चीन के बीच सैन्य और कूटनीतिक स्तर की संयुक्त बातचीत हुई है. भारत और चीन के बीच LAC पर चीन के इलाके मॉल्डो में 13 घंटे से भी अधिक समय तक ये बातचीत चली है. इस वर्ष जून महीने से अब तक कोर कमांडर स्तर की यह छठी मीटिंग थी. अब आपको भारत और चीन के बीच सैन्य कूटनीति वाली मुलाकात की 4 बड़ी बातें बताते हैं.
- इस मीटिंग में चीन ने पैंगोंग झील से पीछे हटने से मना कर दिया है. इसलिए ऐसा लगता है कि अब दोनों देशों की बातचीत लंबी खिंचेगी.
- इस मुलाकात में भारत ने चीन से अप्रैल 2020 से पहले की स्थिति को बहाल करने के लिए कहा है. यानी चीन के सैनिक पीछे हटकर वहां तक चले जाएं जिस स्थान पर वो अप्रैल 2020 में थे.
- तीसरी बड़ी बात ये है कि भारतीय प्रतिनिधिमंडल में लेफ्टिनेंट जनरल पीजीके मेनन भी शामिल हैं. वो अक्टूबर से 14वीं कोर की कमान संभालेंगे. इसी कोर के जिम्मे लद्दाख की सुरक्षा है. वर्तमान कोर कमांडर जनरल हरिंदर सिंह का कार्यकाल अक्टूबर में समाप्त हो रहा है.
- चौथी और आखिरी बड़ी बात ये है कि पहली बार ऐसी बातचीत में विदेश मंत्रालय का कोई अधिकारी शामिल हुआ है. इस मीटिंग में सैन्य अधिकारियों के साथ विदेश मंत्रालय के संयुक्त सचिव नवीन श्रीवास्तव भी शामिल हुए.
कुल मिलाकर भारतीय प्रतिनिधिमंडल में दो लेफ्टिनेंट जनरल, दो मेजर जनरल, चार ब्रिगेडियर और ITBP के IG सहित विदेश मंत्रालय के एक संयुक्त सचिव भी शामिल हुए.
सैन्य और राजनयिक बातचीत के 5 बड़े मतलब
अब आपको कल 21 सितंबर की सैन्य और राजनयिक बातचीत के 5 बड़े मतलब बताते हैं.
- दोनों देशों के बीच पहली बार ऐसी बातचीत हो रही है, जिसमें सेना लीड कर रही है यानी अगुवाई कर रही है और इसमें राजनयिक भी शामिल हो रहे हैं. इसे आप नए भारत की विदेश नीति के New Rules of Engagement यानी नए नियम कह सकते हैं.
-इसी महीने की 10 तारीख को मॉस्को में भारत के विदेश मंत्री एस जयशंकर और चीन के विदेश मंत्री की एक मुलाकात हुई थी. कल 21 सितंबर की मीटिंग को मॉस्को में हुई मुलाकात का फॉलो-अप कह सकते हैं यानी वहां जिन 5 मुद्दों पर सहमति हुई उसे अब दोनों देश आगे ले जा रहे हैं.
- बातचीत में शामिल संयुक्त सचिव नवीन श्रीवास्तव विदेश मंत्रालय में चीन डेस्क के प्रभारी हैं. यानी भारत और चीन के बीच सीमा विवाद के बारे में उन्हें पूरी जानकारी है. इसलिए उनकी उपस्थिति से बातचीत को किसी नतीजे तक पहुंचाने में मदद मिलेगी, On the Spot फैसले भी लिए जा सकते हैं.
- बातचीत में विदेश मंत्रालय के प्रतिनिधि का एक मतलब ये भी है कि तनाव कम करने के लिए भारत गंभीरता से कोशिश कर रहा है. भारत चाहता है कि चीन के साथ लगातार मीटिंग होती रहे, ताकि दोनों देश किसी समाधान तक पहुंच सकें.
- बातचीत को आप चीन के खिलाफ सेना और विदेश मंत्रालय का संयुक्त प्रयास कह सकते हैं. संभव है अगली बार होने वाली किसी कूटनीतिक मुलाकात में भारतीय सेना के प्रतिनिधि भी शामिल हों. चीन में भी इसी फॉर्मूले का इस्तेमाल किया जाता है.
सीमा विवाद पंडित नेहरू के वक्त में शुरू हुआ...
LAC पर पहले और अब की बातचीत में एक अंतर दिखाई दिया है. अब भारत ने भी LAC पर कई चोटियों पर कब्जा कर लिया है, जिससे चीन परेशान है. पहले जब कमांडर लेवल की बातचीत होती थी तो भारत, चीन से ये कहता था कि वो पुरानी स्थिति बहाल करें और अप्रैल 2020 की पोजिशन पर जाएं. लेकिन अब चीन भी Status Quo बहाल करने की बात कर रहा है.
भारतीय सेना का काम सीमा की रक्षा करना है और भारत सरकार का काम सीमा का सही तरीके से निर्धारण करना है. भारत और चीन के बीच 3,488 किलोमीटर लंबी LAC है. लेकिन LAC को लेकर दोनों देशों के बीच सहमति नहीं है. अब भारत सरकार इस विषय पर ध्यान दे रही है और उम्मीद है कि आने वाले समय में इसका सकारात्मक नतीजा आपको दिखाई देगा.
चीन के साथ भारत का सीमा विवाद पंडित नेहरू के वक्त में शुरू हुआ, जो आज तक नहीं सुलझा. यही हाल भारत-पाकिस्तान के बीच सीमा विवाद का है.
जल्दबाजी में किए गए फैसले में कई बड़ी गलतियां
भारत और पाकिस्तान के बीच वर्ष 1947 में हुए बंटवारे की गलतियों को हमारा देश अब तक भुगत रहा है. तब बंटवारे की जिम्मेदारी ब्रिटिश सरकार के वकील Sir Cyril Radcliffe((सिरिल रेडक्लिफ)) को दी गई थी. सिर्फ 5 हफ्ते में ही उन्होंने नक्शे पर दोनों देशों का बंटवारा कर दिया. जल्दबाजी में किए गए इस फैसले में कई बड़ी गलतियां थीं. तब एक इंटरव्यू में Cyril Radcliffe ने बताया था कि तब पाकिस्तान के पास कोई बड़ा शहर नहीं था, इसलिए उन्होंने लाहौर शहर पाकिस्तान को दे दिया.हालांकि लाहौर में ज्यादातर जनसंख्या हिंदू थी, लेकिन तत्कालीन ब्रिटिश सरकार ने भारत के आम लोगों की भावना की परवाह नहीं की थी.
भारत और पाकिस्तान के बंटवारे पर कई फिल्में बनी हैं जिसमें ब्रिटिश सरकार की गलतियों को दिखाया गया है.
अफगानिस्तान और पाकिस्तान के बीच की अंतरराष्ट्रीय सीमा
ऐसा ही विवाद अफगानिस्तान और पाकिस्तान के बीच की अंतरराष्ट्रीय सीमा है जिसे Durand((डूरंड)) रेखा कहा जाता है.
ये सीमा रेखा आज भी विवादों का कारण है. वर्ष 1893 में अफगानिस्तान के अमीर अब्दुर-रहमान खान और भारत के ब्रिटिश सचिव मॉर्टीमर डूरंड (Sir Mortimer Durand) के बीच हुए समझौते के तहत एक सीमा तय की गई थी. वर्ष 1919 में इसे ब्रिटिश भारत और अफगानिस्तान के बीच की अंतरराष्ट्रीय सीमा मान लिया गया था. लेकिन वर्ष 1947 में पाकिस्तान बनने के बाद अफगानिस्तान ने डूरंड रेखा को मानने से इनकार कर दिया. जिसकी वजह से इस क्षेत्र में लगातार अशांति बनी हुई है.
गलत तरीके से सीमा रेखा का निर्धारण
अब आपको बताते हैं कि अंग्रेजों ने अपना वर्चस्व बनाए रखने के लिए दूसरे देशों के बीच जानबूझकर गलत तरीके से सीमा रेखा का निर्धारण किया. ये वो देश थे जो पहले ब्रिटेन के अधीन थे और इन्हें आजाद करते समय अंग्रेजों ने ये तरीका अपनाया था. ताकि दो देशों के बीच विवाद चलता रहे और अंग्रेज आगे भी इनका फायदा उठाते रहें.
- प्रथम विश्व युद्ध के बाद ब्रिटिश साम्राज्य ने अपने उपनिवेशों की सीमाएं तय करना शुरू किया.
- इसी क्रम में उन्होंने वर्ष 1914 में भारत की सीमाएं भी तय कीं. हालांकि 1865 के सर्वे ऑफ इंडिया के अफसर डब्ल्यू एच जॉनसन द्वारा बनाए गए कश्मीर के नक्शे को स्वीकार किया जिसे भारत आज भी अपने नक्शे पर दिखाता है. तब तिब्बत स्वतंत्र देश था, बाद में तिब्बत पर चीन का अपना दावा करने लगा.
- इसके लिए ब्रिटिश अधिकारियों ने चीन के साथ तिब्बत को स्वायत्त दर्जा देने और भारत के साथ सीमा तय करने के लिए एक मीटिंग की थी.
- तब शिमला में हुई इस बैठक में चीन और तिब्बत के प्रतिनिधि शामिल हुए और इसे शिमला सम्मेलन कहा गया. लेकिन चीन ने इस मीटिंग में तिब्बत को स्वायत्त दर्जा देने से मना कर दिया था. लेकिन मैकमोहन रेखा को सीमा मान लिया था.
- भारत की तत्कालीन अंग्रेज सरकार के विदेश सचिव Sir Henry McMahon ने तत्कालीन ब्रिटिश भारत और तिब्बत की बीच 890 किलोमीटर लंबी सीमा का निर्धारण किया. उनके नाम पर ही इस सीमा का नाम मैकमोहन रेखा रखा गया.
- वर्ष 1911 में चीन में हुई क्रांति के बाद वहां की सरकार ने ब्रिटिश भारत के साथ निर्धारित की गई सीमा को मान्यता दे दी थी और तब अक्साई चिन और अरुणाचल प्रदेश को भारत का हिस्सा माना गया था.
- हालांकि वर्ष 1959 में चीन के प्रधानमंत्री चाऊ एन लाई ने भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू को पत्र लिखकर कहा था कि चीन मैकमहोन रेखा को नहीं मानता है.
लेकिन वर्ष 1949 में चीन में कम्युनिस्ट पार्टी की सरकार बनी और उन्होंने वर्ष 1950 में तिब्बत पर आक्रमण किया और 1962 में भारत के साथ युद्ध करके अक्साई चिन के बड़े हिस्से पर कब्जा कर लिया.
73 वर्षों बाद भी सीमा का निर्धारण नहीं हो पाया
भारत और चीन के बीच आज भी 3 हजार 488 किलोमीटर लंबी वास्तविक नियंत्रण रेखा है और आजादी के 73 वर्षों बाद भी सीमा का निर्धारण नहीं हो पाया है.
कूटनीति का सबसे प्रमुख सिद्धांत ये है कि हमेशा खुद पर भरोसा करो, और जरूरत से ज्यादा भरोसा किसी पर मत करो. लेकिन हमारे देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू ने चीन पर जरूरत से ज्यादा भरोसा किया और नेहरू का यही भरोसा भारत की भूमि पर चीन के अवैध कब्जे की बड़ी वजह बन गया.
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