आज हम आपको बताएंगे कि कैसे इमरजेंसी लगने के बाद देश में लोकतांत्रिक शासन की व्यवस्था समाप्त हो गई और इंदिरा गांधी ने गांधी नेहरू खानदान की विरासत को बचाए रखने के लिए देश के हर वर्ग का दमन किया.
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नई दिल्ली: अब बात करते हैं इमरजेंसी पर हमारी स्पेशल सीरीज की, जिसके दूसरे और अंतिम एपिसोड के बारे में आज हम आपको बताएंगे और इसकी शुरुआत हम 26 जून 1975 की सुबह 7 बजे ऑल इंडिया रेडियो के दफ्तर से इंदिरा गांधी द्वारा की गई भारत में इमरजेंसी की घोषणा से करेंगे, जहां कल हमने इस सीरीज के पहले एपिसोड को समाप्त किया था.
उस दिन की सुबह अपने साथ एक काला अध्याय लेकर आई थी और देश में चारों तरफ अनिश्चितता का माहौल था और ये एक ऐतिहासिक और दुर्भाग्यपूर्ण घोषणा थी, जिसने भारतीय संविधान को भी कलंकित करने का काम किया.
इंदिरा गांधी ने 26 जून को इमरजेंसी का ऐलान किया था, लेकिन इमरजेंसी की घोषणा पर तत्कालीन राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद ने रात 11 बजे ही हस्ताक्षर कर दिए थे. उस समय एक तरफ दिल्ली के रामलीला मैदान में चल रही जे.पी की रैली में नेताओं को गिरफ्तार किया जा रहा था और दूसरी तरफ इमरजेंसी को आधिकारिक रूप देने की तैयारी चल रही थी और इस काम में इंदिरा गांधी को कोई मुश्किल नहीं आई.
आज हम आपको बताएंगे कि कैसे इमरजेंसी लगने के बाद देश में लोकतांत्रिक शासन की व्यवस्था समाप्त हो गई और इंदिरा गांधी ने गांधी नेहरू खानदान की विरासत को बचाए रखने के लिए देश के हर वर्ग का दमन किया.
इस क्रूर आपातकाल की शुरुआत इमरजेंसी के घोषणापत्र पर तत्कालीन राष्ट्रपति के हस्ताक्षर के बाद हुई. उस दिन इंदिरा गांधी ने देश को इस फैसले के बारे में बताने के लिए एक स्पीच तैयार की और रात 3 बजे वो सोने चली गईं.
इसके बाद सुबह 6 बजे कैबिनेट की बैठक बुलाई गई और सभी केंद्रीय मंत्रियों को पहली बार देश में इमरजेंसी लगाने के बारे में बताया गया.
उस समय सूचना एवं प्रसारण मंत्री इंद्र कुमार गुजराल को कैबिनेट सचिव ने आधी रात को फोन कर सुबह 6 बजे कैबिनेट की बैठक में आने के लिए कहा था.
तब कुल 8 केंद्रीय मंत्री इस बैठक में शामिल हुए थे. इनमें पहले थे उस समय के विदेश मंत्री यशवंतराव चव्हाण, कृषि मंत्री बाबू जगजीवन राम, रक्षा मंत्री सरदार स्वर्ण सिंह, कानून मंत्री एच.आर. गोखले, संसदीय कार्य मंत्री के. रघु रमैया, गृह मंत्री कासू ब्रह्मानंद रेड्डी, स्वास्थ्य मंत्री कर्ण सिंह और सूचना एवं प्रसारण मंत्री इंद्र कुमार गुजराल, लेकिन इनमें से किसी भी मंत्री ने उस समय इंदिरा गांधी के फैसले पर सवाल नहीं उठाया.
सोचिए, अगर इन नेताओं ने उस समय इमरजेंसी का विरोध किया होता और बगावत की होती तो क्या इमरजेंसी को लागू करना इतना आसान होता.
सच्चाई ये है कि अगर इन सभी पूर्व केंद्रीय मंत्रियों ने इस फैसले के खिलाफ सामूहिक रूप से इंदिरा गांधी की कैबिनेट से इस्तीफा दे दिया होता तो शायद इंदिरा गांधी की मुश्किलें बढ़ जाती और वो इस बैठक के तुरंत बाद ऑल इंडिया रेडियो के दफ्तर जाकर इमरजेंसी का ऐलान नहीं करती क्योंकि, वो क्या बताती लोगों को? ये कि उनके इस फैसले में उनकी सरकार और सांसद ही साथ नहीं है. ये होता, अगर इस बैठक में इन नेताओं ने विरोध किया होता, लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ.
बल्कि इंद्र कुमार गुजराल को तो लग रहा था कि शायद इंदिरा गांधी ने इस्तीफा देने का मन बना लिया है, लेकिन बैठक में इंदिरा गांधी ने कहा कि जेंटलमेन, इमरजेंसी का ऐलान कर दिया गया है और जेपी, मोरारजी भाई और दूसरे नेता गिरफ्तार कर लिए गए हैं.
इस बात पर कैबिनेट मंत्रियों ने विरोध नहीं किया, बल्कि सिर झुकाकर अध्यादेश पर कैबिनेट की बाकी औपचारिकता पूरी की. केवल सरदार स्वर्ण सिंह ने सवाल किया कि ये गिरफ्तारियां किस कानून के तहत हुई हैं. हालांकि इंदिरा गांधी ने इस पर भी कोई जवाब नहीं दिया.
एक तरफ कैबिनेट मंत्री इमरजेंसी के लिए इंदिरा गांधी को अपनी लिखित और मौखिक सहमति दे चुके थे तो दूसरी तरफ इंदिरा गांधी लगातार विपक्ष की आवाज को दबा रही थीं. इसके लिए उन्होंने जे.पी और मोरारजी देसाई समेत हजारों नेताओं की गिरफ्तारियां कराईं और साथ ही संसद के दोनों सदनों में प्रश्नकाल पर भी रोक लगा दी.
दरअसल, संसद के दोनों सदन यानी लोक सभा और राज्य सभा में कार्यवाही के पहले घंटे में संसद के सदस्य कोई भी प्रश्न पूछ सकते हैं. इसे प्रश्नकाल कहते हैं, लेकिन इंदिरा गांधी को उस दौर में प्रश्न पूछना भी बर्दाश्त नहीं था और दूसरी तरफ उनके कैबिनेट मंत्री उनकी खुलकर वकालत कर रहे थे. 21 जुलाई को संसद के मॉनसून सत्र के दौरान कैबिनेट मंत्री बाबू जगजीवन राम ने संसद में कहा था कि विपक्ष लोकतंत्र को नष्ट करना चाहता था, ऐसे में इंदिरा गांधी ने जो किया, वो बिल्कुल सही किया. कांग्रेस के बड़े नेताओं का भी उस समय यही हाल था.
तब कांग्रेस के तत्कालीन राष्ट्रीय अध्यक्ष देवकांत बरुआ ने भी इंदिरा गांधी को समर्थन जारी रखा. उन्होंने वर्ष 1976 में ये नारा भी दिया कि Indira is India and India Is Indira. इसके अलावा उस समय कांग्रेस में और भी कई बड़े नेता थे. जैसे पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी, बंसीलाल, विद्या चरण शुक्ला और ज्ञानी जेल सिंह. इन नेताओं ने भी अपना नैतिक और राजनीतिक समर्थन इंदिरा गांधी को दिया और संविधानिक व्यवस्था को मरते हुए देखते रहे.
कांग्रेस नेता ज्ञानी जेल सिंह ने तो एक बार कहा था कि जिस फर्श पर इंदिरा गांधी चलती हैं, वो उस फर्श को खुशी खुशी साफ कर सकते हैं और यही नहीं कहा जाता है कि उस समय के उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री एन.डी. तिवारी ने वर्ष 1976 में एक कार्यक्रम के दौरान संजय गांधी की चप्पलें उठाई थीं. यानी यही वो दौर था, जब भारतीय राजनीति में वंशवाद और दरबारी परम्परा की जड़ें मजबूत हो रही थीं और इसका जिक्र जे.पी ने नजरबंद रहते हुए लिखी अपनी जेल डायरी में भी किया था.
उन्होंने लिखा है कि कांग्रेसियों ने इतनी बुजदिली से समर्पण क्यों कर दिया? ऐसा दिखाई देता है कि वास्तव में सच्चे कांग्रेसजन बहुत कम हैं. चंद्रशेखर और रामधन की गिरफ्तारी के बाद भी इन सच्चे कांग्रेसजनों में विद्रोह करने का साहस नहीं रहा.
इमरजेंसी के दौरान देश में अनिश्चितता और भय का माहौल था और जे.पी अपनी इस डायरी में इस डर को भी बयान करते हैं.
वो लिखते हैं कि मैंने अपने दिन को टटोला है और मैं सच्चाई से कह सकता हूं कि यदि मेरी अंत में मृत्यु भी हो जाए तो मुझे इसकी तनिक भी परवाह नहीं है. लेकिन मैं ये आवश्य चाहूंगा कि मेरे अजीज मेरे अंतिम समय में मेरे पास रहें. बहुत पहले ही मैंने ये निर्णय किया था कि यदि मेरे अजीज मेरे पास उस दिन न भी हुए तो भी मेरी मृत्यु शांतमय होगी. लोकतंत्र पर जो गहरी परछाइयां आई हैं, इनसे मेरा दिल रोने लगता है. जे.पी की इन बातों से आप समझ सकते हैं कि उस समय कितना डरावना माहौल था और जे.पी को लग रहा था कि वो अब जीवित नहीं रहेंगे और उनकी इस क्रूर आपातकाल में मृत्यु हो जाएगी.
जे.पी. ने इमरजेंसी के दौरान नजरबंद रहते हुए ये भी कहा था कि इंदिरा गांधी के शासन से अच्छा तो ब्रिटिश सरकार का शासन था.
आपको शायद पता नहीं होगा कि बांग्लादेश और भारत में लगी इमरजेंसी के बीच भी एक कनेक्शन था. भारत में इमरजेंसी लगने से पहले बांग्लादेश के तत्कालीन राष्ट्रपति और इंदिरा गांधी के मित्र शेख मुजीब उर रहमान ने 25 जनवरी 1975 को बांग्लादेश में इमरजेंसी लगा दी थी और इस इमरजेंसी के तहत उन्होंने खुद को जीवनभर के लिए बांग्लादेश का राष्ट्रपति घोषित कर दिया था.
यही नहीं बांग्लादेश में विपक्षी दलों पर पाबंदियां लगा दी गई थीं और विपक्षी नेताओं की बड़े पैमाने पर गिरफ़्तारियां हुई थीं. प्रेस से उसकी आज़ादी छीन ली गई थी.
शेख मुजीब ने एक और काम ये किया था कि उन्होंने सेना विद्रोह की आशंका को देखते हुए बांग्लादेश की सेना में एक गुट को अपना समर्थन दे दिया था. इसी से ये सैनिक विद्रोह और भड़का और 15 अगस्त 1975 आते आते उनकी और उनके परिवार के सदस्यों की बांग्लादेश में हत्या कर दी गई और सबसे अहम बांग्लादेश में इमरजेंसी लगने के बाद इंदिरा गांधी को भी यही डर था कि उनके ख़िलाफ़ सैनिक विद्रोह हो सकता था.
असल में इमरजेंसी से पहले जेपी आन्दोलन आक्रामक हो गया था और इंदिरा गांधी को इलाहाबाद हाई कोर्ट दोषी ठहरा चुका था. जे.पी ने सेना से ये आह्वान किया था कि वो इंदिरा गांधी के फैसले को नहीं मानें और देश निर्माण में अपना सहयोग दें. इसी के बाद इंदिरा गांधी को लगा कि जे.पी की अपील पर उनके खिलाफ सैनिक विद्रोह हो सकता है और शायद इसीलिए उन्होंने भी भारत में इमरजेंसी लगा दी.
यहां शेख मुजीब और इंदिरा गांधी में एक समानता ये भी थी कि दोनों ही नेता अपने अपने देश में परिवारवाद की राजनीति को बढ़ा रहे थे. शेख मुजीब ने अपने परिवार के लगभग सभी सदस्यों को बांग्लादेश में अलग अलग महकमों और मंत्रालयों में लगा दिया था और इंदिरा गांधी भी यही कर रही थी, उन्होंने संजय गांधी की भूमिका अपनी सरकार में काफी बढ़ा दी थी. इस समय बांग्लादेश की मौजूदा प्रधानमंत्री शेख हसीना शेख मुजीब की ही पुत्री हैं. वो इस विदेश में होने की वजह से इस सैनिक विद्रोह में बच गई थीं.
आज हम यहां इमरजेंसी से जुड़ी कुछ कुछ और बातें आपको बताना चाहते हैं और इसके लिए हम क्रिस्टोफर जैरेट और प्रतिनव अनिल द्वारा लिखी इस पुस्तक की मदद लेंगे, जिसका शीर्षक है, इंडियाज फर्स्ट डिक्टेटरशिप. इसके चौथे चैप्टर में क्या लिखा है कि भारत में इमरजेंसी के 19 महीने दो अलग अलग भागों में बंटे थे. जहां शुरुआती महीनों में इंदिरा गांधी का प्रभाव दिखा तो अंतिम वर्षों में संजय गांधी पूरी तरह से इंदिरा सरकार पर हावी हो गए यानी सरकार वो चलाने लगे.
संजय गांधी ने दिल्ली में एक नए किस्म के शासन की शुरुआत की, जिसे Sultanism कहा गया. यानी एक ऐसा शासन, जिसमें शासक अपनी सहूलियत के हिसाब से कोई भी फैसला ले सकता है.
इंदिरा गांधी उस समय सत्ता के नशे में चूर थीं, लेकिन साहित्य बिरादरी और अंतरराष्ट्रीय मंच पर उनकी काफी आलोचना हो रही थी और कहा जाता था कि नेहरू की पुत्री ने ये क्या कर दिया?. इस संदर्भ में मशहूर कवि बाबा नागार्जुन द्वारा लिखी एक कविता उस दौर में काफी प्रसिद्ध हुई. इस कविता की कुछ पंक्तियां इस तरह थीं-
क्या हुआ आपको?
सत्ता की मस्ती में
भूल गई बाप को?
इन्दु जी, इन्दु जी, क्या हुआ आपको?
बेटे को तार दिया, बोर दिया बाप को!
क्या हुआ आपको?
आपकी चाल-ढाल देख- देख लोग हैं दंग
हकूमती नशे का वाह-वाह कैसा चढ़ा रंग
सच-सच बताओ भी
क्या हुआ आपको
यों भला भूल गईं बाप को!
सुन रहीं गिन रहीं
एक-एक टाप को
हिटलर के घोड़े की
एक-एक टाप को...
छात्रों के ख़ून का नशा चढ़ा आपको
यही हुआ आपको
यही हुआ आपको
इमरजेंसी के दौरान अंतरराष्ट्रीय नेताओं ने भी इंदिरा गांधी के फैसलों से असहमति जताई थी. तब जर्मनी के भूतपूर्व चांसलर और सोशलिस्ट नेता Willy Brandt भारत आना चाहते थे लेकिन इंदिरा गांधी ने इसकी अनुमति उन्हें नहीं दी. इसके बाद उन्होंने इंदिरा गांधी से जॉर्ज फर्नांडिस को छोड़ने की अपील की थी, जो इमरजेंसी लगने के बाद से जेल में बंद थे और उन्हें डर था कि उनकी हत्या हो सकती है.
इसके अलावा उस समय के ब्रिटेन के हाउस ऑफ कॉमन्स के नेता Michael foot अक्टूबर 1976 में भारत के दौरे पर आए थे और उन्होंने इंदिरा गांधी से भी मुलाकात की थी. इस मुलाकात में उन्होंने जॉर्ज फर्नांडिस की सुरक्षा की मांग की थी क्योंकि, उन्हें भी उनकी हत्या का डर था. यहां समझने वाली बात ये है कि इंदिरा गांधी, Michael foot को अपने बड़े भाई की तरह मानती थीं इसलिए उनकी इस बात ने उन्हें काफी शर्मिंदा किया.
उस दौर में जॉर्ज फर्नांडिस की एक तस्वीर भी काफी चर्चित रही थी, जिसमें वो बेड़ियों से बंधे नजर आए थे.
भारत में आपातकाल लगभग 19 महीनों तक लग रहा और 21 मार्च 1977 को देश से इमरजेंसी हटाई गई. इसलिए आज ये समझने का भी दिन है कि इंदिरा गांधी इमरजेंसी हटाने के लिए क्यों और कैसे तैयार हुईं?
इंदिरा गांधी को धीरे धीरे समझ आ गया था कि इस तरह से स्थितियां ज्यादा दिन तक नहीं चलेंगी. इसके लिए तब इंटेलिजेंस ब्यूरो को जिम्मेदारी सौंपी गई, जिसने देश में राजनीतिक माहौल को लेकर एक सर्वे किया और इस दौरान खुफिया विभाग ने इंदिरा गांधी को दो बार अलग अलग मौक़ों पर ज़रूरी सलाह दी.
पहली बार जनवरी 1976 में इंटेलिजेंस ब्यूरो ने कहा कि अगर सरकार इमरजेंसी हटा कर मार्च 1976 में चुनाव कराती है तो सरकार को आसानी से बहुमत मिल जाएगा और सरकार को कोई खतरा नहीं होगा.
दूसरा इंटेलिजेंस ब्यूरो ने जून 1976 में फिर से इंदिरा गांधी को सलाह दी और कहा कि अब भी अगर सरकार इमरजेंसी को हटा देती है और अक्टूबर 1976 तक चुनाव करा लेती है तो देश में फिर से उन्हीं की सरकार बनेगी और बहुमत भी कांग्रेस पार्टी को मिल जाएगा. यानी गुप्तचरों ने इंदिरा गांधी को खुश करने के लिए ये कह दिया कि अगर चुनाव हुए तो वो 300 से ज्यादा सीटें जीतेंगी और इसी गलतफहमी में इंदिरा गांधी ने कुछ महीने बाद चुनाव करा दिए और देश के लोगों ने उन्हें करार जवाब दिया. इसका जिक्र रामचंद्र गुहा की India After Gandhi पुस्तक में मिलता है.
उस समय इंदिरा गांधी की कांग्रेस उत्तर भारत के राज्यों से साफ हो गई थी, लेकिन दक्षिण भारत के राज्यों में उन्हें अच्छी सीटें मिली थीं.
1977 के चुनावों में कांग्रेस को 154 सीट मिली थी और जनता पार्टी गठबंधन ने 295 सीटें जीती थीं. उस समय इंदिरा गांधी ने सोचा था कि विपक्ष के सभी बड़े नेता या तो जेल में हैं या नजरबंद हैं. ऐसे में वो चुनाव भी नहीं लड़ पाएंगे और अगर लड़ा भी तो तब भी उन्हें जीत नहीं मिलेगी, लेकिन इंदिरा गांधी गलत साबित हुईं और जॉर्ज फर्नांडिस जेल में बैठे बैठे चुनाव जीत गए और इस तरह इमरजेंसी के साथ इंदिरा गांधी की भी सरकार से विदाई तय हो गई.
1977 में इंदिरा गांधी सत्ता से बाहर हो गईं, लेकिन तीन वर्षों के 1980 में फिर से चुनाव हुए और जनता पार्टी हार गई और इंदिरा गांधी की फिर से सरकार बन गई. यानी लोग तीन वर्षों में ही सबकुछ भूल गए. इंदिरा गांधी ने ये सब इसलिए किया क्योंकि, वो गांधी नेहरू खानदान को सत्ता में बनाए रखना चाहती थी और वो देश में खुद को महारानी समझने लगी थीं.