क्या एक दिन बराबरी की कसमें खाने से, साल के बाकी 364 दिन की तस्वीर बदल सकती है? शायद आपके पास इस सवाल का जवाब न हो, लेकिन हमने आज इस सवाल की जड़ में जाने की कोशिश की है और इसे समझने के लिए सबसे पहले आपको हमारे देश की कड़वी सच्चाई बताते हैं.
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नई दिल्ली: आज DNA में हम दुनिया की 382 करोड़ महिलाओं को समर्पित एक विश्लेषण करेंगे. कल 8 मार्च को अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस था और इस दिन हर साल हमारे देश में बराबरी की कसमें खाई जाती हैं. बड़े बड़े शॉपिंग मॉल्स में महिलाओं को खरीदारी पर स्पेशल डिस्काउंट मिलते हैं. कई राज्यों में महिलाओं के लिए बसों और ट्रेनों में मुफ्त सफर की भी व्यवस्था होती है और इस दिन कई तरह के कार्यक्रमों का भी आयोजन होता है, जिनमें महिलाओं पर बड़े-बड़े भाषण दिए जाते हैं.
आपने भी कल 8 मार्च को अपने परिवार की महिलाओं को Happy International Women’s Day कहा होगा. उन्हें फूल दिए होंगे, स्पेशल कार्ड लिखकर इसकी बधाई दी होगी और होटलों, रेस्टोरेंट में साथ खाना खाने भी गए होंगे. लेकिन सोचिए, क्या एक दिन बराबरी की कसमें खाने से, साल के बाकी 364 दिन की तस्वीर बदल सकती है? शायद आपके पास इस सवाल का जवाब नहीं हो, लेकिन हमने आज इस सवाल की जड़ में जाने की कोशिश की है और इसे समझने के लिए सबसे पहले आपको हमारे देश की कड़वी सच्चाई बताते हैं.
भारत में इस समय 71 करोड़ 71 लाख 970 पुरुष हैं जबकि महिलाओं की कुल आबादी 66 करोड़ 29 लाख 3 हज़ार 415 है. इस हिसाब से हर 100 महिलाओं पर 108.18 पुरुष हैं. यानी भारत में महिलाओं और पुरुषों की आबादी के बीच बहुत बड़ा अंतर है और ये अंतर महिलाओं को कैसे प्रभावित करता है, अब इसे समझिए-
भारत में महिलाएं हर दिन लगभग 6 घंटे घर का काम करती हैं, जबकि महिलाओं की तुलना में पुरुष 24 घंटे में मात्र 52 मिनट ही घर का काम कर पाते हैं. यानी महिलाएं, पुरुषों के मुकाबले 577 प्रतिशत ज्यादा घर का काम करती हैं.
इस हिसाब से देखें, तो 70 वर्ष की उम्र तक एक भारतीय महिला अपने जीवन के लगभग 17 साल किचन में बिता देती है, जबकि पुरुष अपने जीवन के औसतन 22 वर्ष सोने में बिता देते हैं. इन आंकड़ों से ही आप समझ सकते हैं कि भारत में महिलाओं और पुरुषों के बीच बराबरी की खाई कितनी गहरी है.
हम बराबरी की बातें तो करते हैं, लेकिन सच ये है कि भारत में महिलाएं खाना सबसे पहले बनाती हैं, लेकिन खाती सबसे बाद में हैं. घर का काम करने के लिए सबसे पहले सुबह उठती हैं लेकिन सोती तभी हैं, जब पूरे घर का काम हो जाता है. सबकी बातें सुनती हैं और उनका दुख दर्द भी बांटती हैं, लेकिन उनका दुख दर्द बांटने के लिए कोई मौजूद नहीं होता. उन्हें कोई नहीं सुनता. आराम को भूलकर घर का सारा काम करती हैं, लेकिन कभी पूरी नींद नहीं लेती और परिवार के बाकी सदस्यों के हिस्से में अगर दूध का ग्लास आता है तो महिलाओं के हिस्से में हमेशा आंसू आते हैं और आज आप कह सकते हैं कि भारत की ज़्यादातर महिलाओं के लिए उनका किचन ही उनका ड्रॉइंग रूम बन गया है.
भारत में ये धारणा आम है कि घर का काम महिलाओं की ही जिम्मेदारी है. हालांकि ये धारणा कितनी गलत है, इसे भी आज आपको समझना चाहिए. अगर आज भारत में घर का कामकाज करने वाली महिलाओं को इसके बदले तनख्वाह मिलने लगे तो ये महिलाएं भारत के विकास में अहम योगदान दे सकती हैं और ये योगदान भारत की कुल जीडीपी के 3.1 प्रतिशत के बराबर होगा. हालांकि इसके बावजूद न तो इस काम की भारत में कोई पहचान है और न ही इसके लिए कोई तनख्वाह मिलती है. 2018 में भारत सरकार द्वारा कराए गए एक सर्वे के मुताबिक, भारत की 64 प्रतिशत महिलाओं को लगता है कि उन्हें अपनी देखभाल के लिए बिल्कुल भी समय नहीं मिलता और वो इसकी वजह घर के काम को मानती हैं.
ऐसा नहीं है कि दूसरे देशों में भी महिलाओं की स्थिति यही है. पड़ोसी देश चीन इस मामले में हमारे देश के पुरुषों से काफी बेहतर है. चीन में पुरुष हर दिन में 1 घंटा 31 मिनट घर का काम करते हैं. यानी भारतीय पुरुषों के मुकाबले 39 मिनट ज्यादा. यही नहीं, चीन की महिलाएं भारतीय महिलाओं की तुलना में लगभग दो घंटे कम काम करती हैं.
हमारा समाज जितना सम्मान कामकाजी पुरुषों का देता है, उतना सम्मान घर का काम करने वाली महिलाओं को नहीं देता और शायद यही वजह है कि महिलाएं कभी इस काम से अपने लिए समय नहीं निकाल पाती और उन्हें कोई छुट्टी नहीं मिलती. इसलिए हमें लगता है कि पुरुषों की तरह महिलाओं के लिए भी हफ्ते में एक दिन रविवार होना चाहिए, ताकि वो इस दिन घर के काम से छुट्टी ले सकें.
ये सवाल आपको खुद से पूछना है कि क्या आप अपने घर की महिलाओं को हफ्ते में एक दिन की छुट्टी देने के लिए तैयार हैं. ये सवाल हम इसलिए भी पूछ रहे हैं क्योंकि, आज महिला दिवस एक Marketing Event तक सीमित रह गया है और आप कह सकते हैं कि ऐसा करके हमने इस दिन के महत्व को कम कर दिया है.
पहली बार अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस 110 वर्ष पहले 1911 में मनाया गया था. यानी एक पूरी शताब्दी बीत चुकी है और इसलिए आज ये समझना भी जरूरी है कि इन 111 वर्षों में महिलाओं की स्थिति दुनिया में कितनी बदली है?
-दुनिया के अब भी कई देशों में महिलाओं को अबॉर्शन कराने का अधिकार नहीं है. दुनिया की 9 करोड़ महिलाएं ऐसे देशों में रहती हैं, जहां उन्हें आज भी अबॉर्शन कराने की इजाजत नहीं है, जबकि दुनिया की 41 प्रतिशत महिलाएं ऐसे देशों में रहती हैं, जहां ये अधिकार काफी सीमित है.
-ये स्थिति इसलिए भी चिंताजनक है क्योंकि, दुनिया में हर वर्ष लगभग 23 हजार महिलाओं की मृत्यु सिर्फ इसलिए हो जाती है क्योंकि, उन्हें अबॉर्शन के लिए सुरक्षित और सही इलाज नहीं मिल पाता.
-नॉर्दर्न आयरलैंड, माल्टा , फिलिपींस, लाओस, कॉन्गो और निकारागुआ जैसे देशों में आज भी अबॉर्शन को अपराध माना जाता है. हालांकि भारत उन देशों में आता है, जहां महिलाओं को इसका अधिकार मिला हुआ है.
-ये हालात बताते हैं कि हमने महिलाओं के लिए एक दिन तो समर्पित कर दिया लेकिन हम उन्हें बराबरी के अधिकार नहीं दे पाए और उनके साथ न्याय नहीं कर पाए. इसे अब कुछ और आंकड़ों से समझिए. हर एक घंटे में पुरुषों द्वारा 6 महिलाओं की हत्या की जाती है और ये आंकड़ा पूरी दुनिया का है.
महिलाओं के खिलाफ अपराध के मामले में भारत की स्थिति तो और भी खराब है. भारत में हर रोज महिलाओं के खिलाफ 47 अपराध होते हैं और हर 20 मिनट में एक महिला के साथ रेप की वारदात होती है और NCRB के मुताबिक, वर्ष 2019 में महिलाओं के खिलाफ अपराध के 4 लाख 5 हजार 861 मामले दर्ज हुए थे और यहां ध्यान देने वाली बात ये है कि इनमें से 31 प्रतिशत मामलों में अपराध करने वाला व्यक्ति या तो पीड़ित महिला का पति था या उसका करीबी रिश्तेदार था.
यही नहीं, संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट के मुताबिक दुनिया में हर रोज 137 महिलाओं की हत्या उनके परिवार के लोग करते हैं. यही नहीं, इसी रिपोर्ट में ये भी बताया गया है कि दुनिया की 35 प्रतिशत महिलाओं ने कभी न कभी यौन हिंसा का सामना किया है. जो महिलाएं समाज की बेड़ियों को तोड़ कर अपने देशों की संसद तक पहुंचती हैं, उन्हें भी मानसिक शोषण का सामना करना पड़ता है. दुनिया की 82 प्रतिशत महिला सांसद कभी न कभी इससे गुजर चुकी हैं. महिलाओं को अच्छी और पूरी शिक्षा देना भी एक बड़ी चुनौती है. पूरी दुनिया में महिलाओं की साक्षरता दर 83.02 प्रतिशत है और पुरुषों की साक्षरता दर लगभग 90 प्रतिशत है. इसे ऐसे समझिए कि 100 में से 90 पुरुष पढ़े लिखे हैं, जबकि पढ़ी लिखी महिलाओं की संख्या 100 में से 83 है.
भारत की बात करें तो भारत में महिलाओं का ये आंकड़ा सिर्फ 65.5 प्रतिशत है और पुरुषों की साक्षरता दर 82.1 प्रतिशत है. यानी भारत में पुरुषों की तुलना में महिलाएं कम पढ़ी-लिखी हैं और यही वजह है कि भारत में ऐसी महिलाओं की संख्या तेजी से बढ़ रही है, जो नौकरी न करके सिर्फ घर का कामकाज करती हैं.
-मौजूदा समय में ऐसी महिलाओं की संख्या 61 प्रतिशत है, जिन्हें घर के काम के बदले कोई पैसा नहीं मिलता. शहरों में ये आंकड़ा और भी ज्यादा 63.7 प्रतिशत है.
-यही नहीं भारत में 11.49 प्रतिशत पुरुष ऐसे हैं, जिनके पास ग्रेजुएशन की डिग्री है, जबकि ऐसी महिलाओं की संख्या 6.72 प्रतिशत है.
-गंभीर बात ये है कि प्राथमिक शिक्षा के मामले में दुनिया के जिन 66 प्रतिशत देशों ने पूर्ण समानता हासिल कर ली है, उनमें भारत शामिल नहीं है.
-और यही नहीं ऐसी लड़कियों की संख्या दुनिया में 13 करोड़ 20 लाख है, जो किसी ना किसी वजह से स्कूल नहीं जा पाती और जिन देशों में लड़कियां स्कूल जाती भी हैं, वहां उन्हें कई जोखिम उठाने पड़ते हैं.
ये आंकड़े बताते हैं कि अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस आज भी पूरी तरह व्यवहारिक नहीं बन पाया है और हम महिलाओं को बराबरी देने में नाकाम रहे हैं. इसे आप कुछ और आंकड़ों से भी समझ सकते हैं-
-दुनिया भर में सिर्फ 25 प्रतिशत सांसद महिलाए हैं.
-198 में से सिर्फ 21 देशों का प्रतिनिधित्व महिलाओं के पास है.
-और सिर्फ 14 देशों की कैबिनेट में ही 50 प्रतिशत महिलाओं को जगह मिली है.
-भारत में 2019 के आम चुनावों में 542 में से 78 महिला सांसद चुनी गई थी, जो अपने आप में एक रिकॉर्ड है. हालांकि इसके बावजूद संसद में महिलाओं की हिस्सेदारी सिर्फ 14.4 प्रतिशत ही है.
अगर नौकरीपेशा महिलाओं की बात करें तो भारत में महिलाओं और पुरुषों के बीच Labour Force Participation Rate में काफी बड़ा अंतर है. इसका मतलब होता है कि मान लीजिए 100 महिलाएं काम कर सकती हैं लेकिन कर पाती सिर्फ 10 हैं.
2020 में 15 या उससे ज्यादा उम्र की महिलाओं का Labour Force Participation Rate 20.3 प्रतिशत था जबकि पुरुषों का ये आंकड़ा 76 प्रतिशत था. यानी नौकरी करने के लिए सक्षम हर पांच में केवल एक ही महिला काम कर पाती है. ये इसलिए भी अहम है क्योंकि, अगर महिलाओं की भागीदारी बढ़े तो अगले 5 वर्षों में भारत की GDP 770 बिलियन डॉलर यानी 54 लाख करोड़ रुपये बढ़ सकती है.
-भारत में महिलाओं और पुरुषों के वेतन के बीच भी काफ़ी बड़ा अंतर है. 2018 में ऑर्गनाइज्ड सेक्टर में पुरुषों का एक घंटे का औसतन वेतन 242.50 रुपये था और महिलाओं को एक घंटे के काम के लगभग 196 रुपये ही मिल पाते थे. यानी पुरुषों को महिलाओं के मुक़ाबले हर घंटे औसतन 46 रुपये ज़्यादा मिलते हैं
-IT Sector में पुरुष महिलाओं की तुलना में 26 प्रतिशत ज़्यादा वेतन पाते हैं जबकि मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर में ये आंकड़ा 24 प्रतिशत है.
-National Stock Exchange पर लिस्टेड कंपनियों में से सिर्फ 3.7 प्रतिशत कम्पनियों की सीईओ महिला है. ये आंकड़ा 2019 का है, जबकि 2014 में ये संख्या 3.2 प्रतिशत. यानी इन पांच वर्षों में सिर्फ 0.5 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई.
-अगर पूरी दुनिया की बात करें, तो 2020 में समान कार्य के लिए जहां पुरुषों को 100 यूएस डॉलर मिले, तो वहीं महिलाओं को 81 यूएस डॉलर ही मिले.
सोचिए, अगर किसी दिन ऐसा हो कि देश की महिलाएं घर का काम करना बंद कर दें तो क्या होगा. हमारा मतलब ये है कि सुबह सुबह जब घर के पुरुष उठें तो महिलाएं उनसे कहें कि आज उन्हें ही घर का सारा काम करना होगा. यकीन मानिए पुरुषों के लिए ये कोई साधारण दिन नहीं होगा और अगर ये सारा काम करने के बाद आपको ऑफिस जाकर काम करना पड़े तो सोचिए क्या हाल होगा?
वर्ष 1975 में ऐसा ही हुआ था. तब आइसलैंड की 90 प्रतिशत महिलाओं ने 24 अक्टूबर को एक दिन के लिए खाना बनाने, सफाई करने और बच्चों की देखभाल करने से इनकार कर दिया था. महिलाओं के इस ऐलान का असर ये हुआ कि पूरा देश ही अचानक रुक गया.
ये सब बताने के पीछे हमारा मकसद ये है कि पुरुष प्रधान समाज अक्सर महिलाओं के काम को कम आंकता है. चाहे कोई महिला किसी कंपनी में काम करती हो या फिर घर में. उसके प्रति सोच समान रहती है. यही वजह है कि बात भले ही बराबरी की जाती हो, लेकिन सैलरी या प्रमोशन के मामले में भी पुरुष कर्मचारियों की तुलना में महिला कर्मचारियों को पीछे रखा जाता है. इसे आप इन आंकड़ों से समझिए-
-भारत में महिलाओं की सैलरी पुरुषों से 19 प्रतिशत कम है.
-पुरुषों के हर घंटे की सैलरी 242 रुपये 49 पैसे है और उसी काम के लिए महिलाओं की हर घंटे की सैलरी 196 रुपये 30 पैसे है.
-यानी देखा जाए तो महिला और पुरुष की प्रति घंटे की औसतन सैलरी में 46 रुपये 19 पैसे का अंतर है.
-अगर आपको ये लगता है कि ये सिर्फ भारत की समस्या है तो आप गलत हैं. पूरी दुनिया में ये अंतर है, दुनिया के कई विकसित देशों में भी महिलाओं के वेतन और पुरुषों के वेतन में काफी अंतर है.
अमेरिका में महिलाओं को पुरुषों के मुकाबले औसतन 18 प्रतिशत कम सैलरी मिलती है. ऑस्ट्रेलिया में ये आंकड़ा 13 प्रतिशत है, ब्रिटेन के फाइनांस सेक्टर में डायरेक्टर के स्तर पर काम करने वाली महिलाओं को पुरुषों की तुलना में 66 प्रतिशत तक कम वेतन मिलता है.
पुरुषों और महिलाओं की सैलरी के बीच के इस अंतर को समझाने के लिए हमने एक ग्राउंड रिपोर्ट तैयार की है.
शिल्पा अरोड़ा, पेशे से आईटी प्रोफेशनल हैं. पेटिंग करने की शौकीन हैं, रंग भरना इनको पसंद है. लेकिन बात जब ऑफिस की आती है तो उनके मन की व्यथा का अलग रंग दिखता है.
शिल्पा अरोड़ा कहती हैं, वक्त बीतता गया, तो मैंने भेदभाव महसूस किया. शुरुआत में परेशानी नहीं आई. बच्चे के समय दिक्कत आई, जिस प्रोजेक्ट में प्रमोशन मिला उन्होंने हटा दिया. बच्चा था, तो दूसरे प्रोजेक्ट में जूनियर रोल मिला, जो मिला वही किया. वहां भी भेदभाव होता था. बेबी है तो क्रिटिकल वर्क नहीं देंगे. भले ही रात में काम किया. ये एक्सेप्ट करती रही, लेकिन बाद में लगा कि ये भेदभाव है.
पढ़ाई में अव्वल रहने वाली शिल्पा को उनके टेलैंट के बूते मल्टीनेशनल कंपनी में नौकरी तो मिल गई,लेकिन महिला होने की वजह से उन्हें वो नहीं मिल सका जिसकी योग्यता उनमें थी. बॉस ने प्रमोशन वादा किया, लेकिन सिर्फ इसलिए प्रमोशन नहीं हुआ क्योंकि, उनका बच्चा छोटा था और वो वर्क फ्रॉम होम की सुविधा ले रही थीं.
शिल्पा कहती हैं कि बच्चों को देखना है तो फ्लेक्सिबिलिटी मिल जाती है, लेकिन मुझ पर एहसान जैसा किया जाता है. पुरुष की सैलरी बढ़ जाती है. हमारी नहीं बढ़ती है. सब जगह यही होता है. सैलरी सेम नहीं होती, एक ही पोजिशन पर काम मिलने के मामले में भी भेदभाव होता है. कहते हैं कि महिलाओं को रखना है, लेकिन वो काम ज्यादा कराएंगे. फ्लेक्सिबिलिटी मिल रही है. पुरुषों के मुकाबले सैलरी कम है. महिलाओं को नौकरी कभी कभी इसलिए भी नहीं दी जाती है कि उन्हें मैटरनिटी लीव देनी पड़ जाएगी.
ये कहानी सिर्फ शिल्पा की नहीं है, ये हर उस मेहनतकश महिला की कहानी है जिसको सिर्फ इसलिए आगे बढ़ने का मौका नहीं दिया जाता क्योंकि वो महिला हैं. लिंक्डइन अपॉर्च्युनिटी 2021 की एक रिपोर्ट ने हैरान करने वाली जानकारी दी है. रिपोर्ट के मुताबिक,
-85% महिलाओं को सही टाइम पर प्रमोशन, सैलरी हाइक या वर्क ऑफर नहीं मिलता.
-देश की 37% कामकाजी महिलाओं को पुरुषों के मुकाबले में कम मौके मिलते हैं.
-महिलाओं को पुरुषों की तुलना में कम तनख्वाह भी मिलती है.
-22 प्रतिशत महिलाओं ने माना कि पुरुषों के मुकाबले महिला कर्मचारियों को कम तरजीह दी जाती है.
कोरोना महामारी का विदेशों में काम कर रही महिलाओं के मुकाबले भारतीय कामकाजी महिलाओं पर ज्यादा असर पड़ा है. महामारी की वजह से बच्चों की देखभाल को लेकर भी चुनौतियां सामने आई हैं. वर्क फ्रॉम होम बहुत से लोगों के लिए वरदान हो सकता है, लेकिन इसकी वजह से वर्किंग मदर्स की दिक्कतें बढ़ी हैं. कामकाजी महिलाओं का कहना है कि उन्हें पारिवारिक और घरेलू जिम्मेदारियों की वजह से ऑफिस में भेदभाव का सामना करना पड़ा.
कहा जाता है कि महिलाओं को नहीं रखना है एक्स्ट्रा टाइम रोकने पर पुरुष रुकते हैं, महिलाओं को नहीं रोक सकते इसलिए भी भेदभाव होता है. ऑड ऑवर्स में महिलाओं को सेफ्टी ज्यादा जरूरी होती है, तो उसमें पैसे लगते हैं इसलिए निर्देश मिलते हैं.
प्राइवेट कंपनियां भले ही कहें कि महिला कर्मचारियों के साथ भेदभाव नहीं किया जाता, लेकिन सच्चाई इससे अलग नजर आती है. देश का संविधान बिना किसी भेदभाव के अवसरों की समानता की बात करता है लेकिन ज्यादातर प्राइवेट कंपनी ऐसे तरीके ढूंढ लेती हैं जिसमें महिला कर्मचारियों को पुरुषों कीअपेक्षा कमजोर मानकर भेदभाव किया जाता है. पर परेशानी ये है कि इस भेदभाव को कानून रूप से साबित कर पाना मुश्किल होता है.
सुप्रीम कोर्ट के एडवोकेट ऑन रिकॉर्ड विवेक नारायण शर्मा कहते हैं, संविधान बराबरी की बात करता है, भेदभाव की बात कभी प्रूव नहीं हो पाती है. संविधान कहता है कि भेदभाव न हो. यहां प्रूव करना मुश्किल है कि भेदभाव हो रहा है कि नहीं. प्राइवेट कंपनी में किसी न किसी तरीके से वर्क नेचर अलग बता दिया जाता है. बराबरी के पैसे वाली बात कोर्ट में नहीं आती, तो प्रूव कैसे करें.
ऑफिस में काम करने वाली महिला कर्मचारियों के साथ सबसे बड़ी चुनौती परिवार और दफ्तर में संतुलन बिठाने की होती है. इस मामले में पुरुष कर्मचारियों के हाथ बाजी इसलिए भी लगती है क्योंकि वो ज्यादा समय तक ऑफिस में रुक सकते हैं लेकिन ज्यादातर महिलाओं के साथ सुरक्षा और घर की जिम्मेदारियों की वजह से ऐसा मुमकिन नहीं हो पाता. महिला और पुरुष कर्मचारियों के बीच मसला प्रोडक्टिविटी का नहीं है. मसला है, पुरुष को श्रेष्ठ और महिला को कम करके देखने वाली सोच का, जिसका अंत जरूरी है.
अब हम आपको ये बताते हैं कि हर साल 8 मार्च को दुनिया महिला दिवस क्यों मनाती है?
ये बात वर्ष 1908 की है.तब अमेरिका के न्यूयॉर्क शहर में समान वेतन के लिए 8 मार्च को 15 हजार महिलाओं ने हड़ताल की थी. दूसरे साल इसी की याद में अमेरिका की सोशलिस्ट पार्टी ने राष्ट्रीय महिला दिवस मनाया था और इसके बाद 1910 में कोपेनहेगेन में एक कांफ्रेंस हुई थी, जहां 17 देशों की 100 महिलाएं शामिल हुईं. इसके बाद वर्ष 1911 में ऑस्ट्रिया, डेनमार्क, जर्मनी और स्विटजरलैंड में अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस मनाया गया और तभी से इसकी शुरुआत मानी जाती है.