अमेरिका को दुनिया का सबसे आधुनिक, समृद्ध और उदार समाज माना जाता है, लेकिन वहां की राजनीति में धर्म का इतना अधिक प्रभाव होना उसके झूठे सिद्धांतों को एक्सपोज करता है.
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नई दिल्ली: आज के हमारे इस विश्लेषण की शुरुआत करने से पहले मैं आपको दो पुस्तकों के बारे में बताना चाहता हूं. एक है, रामचरित मानस है और दूसरा है, भारत का संविधान. सोचिए, अगर हमारे देश का कोई प्रधानमंत्री संविधान की जगह रामचरित मानस पर हाथ रख कर पद और गोपनीयता की शपथ ले तो क्या होगा. इसे संविधान के बुनियादी ढांचे के खिलाफ माना जाएगा और ये शपथ कम्युनल रूप ले लेगी. लेकिन यही चीज जब कल अमेरिका में हुई तो किसी को इसमें कुछ गलत नहीं लगा और किसी ने अमेरिका पर साम्प्रदायिक होने का भी आरोप नहीं लगाया और न ही वहां लोकतंत्र खतरे में आया. लेकिन अगर ये भारत या किसी ऐसे देश में होता जो संविधान के हिसाब से चलता है तो यही अमेरिका उस देश के लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता पर सवाल खड़े कर देता और इसलिए आज हम इन डबल स्टैंडर्ड्स को आपके लिए डिकोड करना चाहते हैं. इसकी शुरुआत मैं रामचरित मानस के बालकांड में लिखे गए एक दोहे से करना चाहता हूं-
सुभ अरु असुभ सलिल सब बहई..
सुरसरि कोउ अपुनीत न कहई..
समरथ कहुं नहिं दोषु गोसाईं..
रबि पावक सुरसरि की नाईं..
इसका अर्थ है, गंगाजी में शुभ और अशुभ सभी जल बहता है. पर कोई उन्हें अपवित्र नहीं कहता. सूर्य, अग्नि और गंगाजी की भांति ताकतवर को कोई दोष नहीं लगता और अमेरिका भी अपनी इस झूठी ताकत की वजह से सभी दोषों से मुक्त हो जाता है. इससे ये भी पता चलता है कि जब धर्मनिरपेक्षता को लोकतंत्र की आत्मा बताने वाला कोई देश एक्स्ट्रा रिलिजियस एक्टिविटी करता है, तो कैसे उस देश के नकली और झूठे सिद्धांतों की पोल खुल जाती है और अमेरिका से बड़ा इसका कोई और उदाहरण नहीं हो सकता. अमेरिका ने 200 वर्षों तक दुनिया में अपनी एक ऐसी छवि पेश की, जिसमें धर्म के विचार को सेकुलरिज्म के महत्व के सामने हमेशा से नकारा गया. लेकिन जब अमेरिका में नए राष्ट्रपति के पद की शपथ लेने के लिए जो बाइडेन कैपिटल हिल पहुंचे, तो इस सिद्धांत को स्विच ऑफ मोड पर डाल दिया गया.
बाइडेन ने अमेरिका के 46वें राष्ट्रपति की शपथ 128 साल पुरानी बाइबल पर हाथ रख कर ली. जिस Inauguration को पूरी दुनिया अमेरिका के लोकतंत्र का नया अध्याय मान रही थी. उसकी शुरुआत धार्मिक ग्रंथ बाइबल से की गई. सोचिए, अगर भारत में कोई प्रधानमंत्री संविधान की जगह गीता या रामचरित मानस पर हाथ रख कर शपथ लेता तो क्या होता ? भारत में ऐसी शपथ को Communal यानी साम्प्रदायिक मान लिया जाता और अमेरिका जैसा देश लोकतंत्र पर उसे ट्यूशन देनी शुरू कर देता. लेकिन चूंकि ये भारत में नहीं अमेरिका में हुआ है. इसलिए आज हम इस विषय पर अमेरिका को Secularism का असली सिद्धांत बताना चाहते हैं.
अमेरिका में लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता का विचार अंदर से कितना खोखला है. इसे भी आज आपको समझना चाहिए. अमेरिका में राष्ट्रपति के शपथ ग्रहण से पहले एक धार्मिक अनुष्ठान किया जाता है. जिसमें एक धर्मगुरु भगवान की पूजा करते हैं और उनसे शक्ति और आशीर्वाद मांगते हैं. इस धार्मिक अनुष्ठान में राष्ट्रपति बनने वाले व्यक्ति के पूर्वजों को भी याद किया जाता है और ऐसी मान्यता है कि वो अपना आशीर्वाद उन्हें देते हैं. सोचिए, ये अमेरिका में होता है, जो खुद को सुपरपावर बताता है. ये ठीक वैसा ही जैसे प्राचीन युग में अशिक्षित लोगों का एक संगठन, जिसे कबीला भी कहते हैं. वह पौराणिक संस्कृति को जीवित रखने के लिए आत्माओं को बुलाते थे. भारत में जब ऐसी मान्यताओं का वजूद नजर आता है तो पश्चिमी देश हमारी गलत ब्रांडिंग करते हैं. ब्रिटिश राज में तो भारत को सपेरों का देश भी कहा गया. Snake Charmers जैसे शब्द इस्तेमाल किए गए. लेकिन आज जब अमेरिका जैसे आधुनिक, समृद्ध और शक्तिशाली देश में ऐसी धार्मिक मान्यताओं को महत्व दिया जाता है, तो कोई कुछ नहीं कहता और हमें लगता है कि ये डबल स्टैंडर्ड्स का एक ऐसा उदाहरण है, जिसकी आलोचना की जाए तो शायद शब्द भी कम पड़ जाएंगे.
जो बाइडेन कैथोलिक धर्म से आते हैं, जो ईसाई धर्म की ही एक प्रमुख शाखा है और अमेरिका को जॉन एफ केनेडी के बाद जो बाइडेन के रूप में दूसरा कैथोलिक राष्ट्रपति मिला है.
अब यहां ये समझना जरूरी है जब किसी देश में धार्मिक भावनाएं मजबूत होती हैं, तो वहां धर्मनिरपेक्षता का विचार अपनी शक्ति कैसे खो देता है. इसके लिए आपको Secularism यानी धर्मनिरपेक्षता को समझना होगा. धर्मनिरपेक्षता का मतलब है कि एक ऐसा विचार जो सभी धर्मों का सम्मान करता है. किसी धर्म को सही और गलत नहीं बताता और संविधान को सर्वोपरि मानता है. इसलिए धर्मनिरपेक्षता को लोकतंत्र की आत्मा भी कहा जाता है. लेकिन जब इस आत्मा पर धर्म हावी हो जाता है तो इससे लोकतंत्र प्रभावित होता है और संविधान की बड़ी बड़ी बातों का भी कोई अर्थ नहीं रह जाता और अमेरिका में ऐसा ही हुआ है.
अमेरिका के संविधान में पहला संशोधन वर्ष 1791 में हुआ था. तब इस संशोधन में स्पष्ट किया गया था कि अमेरिका में कांग्रेस यानी वहां की संसद किसी भी धर्म से प्रभावित हो कर कोई कानून नहीं बना सकती और अमेरिका के संविधान में सभी धर्मों को बराबर अधिकार सुनिश्चित किए गए हैं.
हालांकि आज अमेरिका में पैदा हुई इन परिस्थितियों को आपको भारत के नजरिए से भी समझना चाहिए.
सबसे पहले आप ये समझिए कि अमेरिका में राष्ट्रपति के पद के लिए क्या शपथ ली जाती है. हमने इसका हिंदी में अनुवाद किया है और ये शपथ है- मैं सत्यनिष्ठा से प्रतिज्ञा करता हूं कि मैं अमेरिका के राष्ट्रपति पद का दायित्व पूरे विश्वास से निभाऊंगा और अपनी पूरी क्षमता से अमेरिका के संविधान को संरक्षित और सुरक्षित रखूंगा.
भारत में प्रधानमंत्री शपथ लेते हुए क्या कहते हैं अब आपको ये बताते हैं. ये शपथ है- मैं फिर यहां नाम आता है. ईश्वर की शपथ लेता हूं कि मैं श्रद्धापूर्वक भारत के प्रधानमंत्री के पद का कार्यपालन करूंगा और अपनी पूरी योग्यता से संविधान और विधि का परिरक्षण, संरक्षण और प्रतिरक्षण करूंगा और मैं भारत की जनता की सेवा और कल्याण में निरत रहूंगा.
अमेरिका को दुनिया का सबसे आधुनिक, समृद्ध और उदार समाज माना जाता है, लेकिन वहां की राजनीति में धर्म का इतना अधिक प्रभाव होना उसके झूठे सिद्धांतों को एक्सपोज करता है. यहां एक बात और समझने वाली है कि जो बाइडेन ने जिस बाइबल पर हाथ रख कर शपथ ली. वो 128 वर्ष पुरानी है और 5 इंच मोटी है और सबसे अहम बाइडेन के स्वर्गीय बेटे ब्यू बाइडेन ने भी डेलावेयर के अटॉर्नी जनरल की शपथ इसी बाइबल पर हाथ रख कर ली थी. अब आप सोच सकते हैं कि जब कोई परिवार अपनी धार्मिक पुस्तक को इतने वर्षों तक संभाल कर रखता है तो उसके विचारों में धर्म का स्थान कितना महत्वपूर्ण होगा.
जो बाइडेन ने जब बाइबल पर हाथ रख कर अमेरिका के राष्ट्रपति के पद की शपथ ली, तो हम इसके पीछे की वजहों को समझने की कोशिश कर रहे थे और इस दौरान हमें कुछ ऐसी बातें पता चलीं जो अमेरिका के दिखावटी लोकतंत्र का क़रीब से दर्शन कराती हैं.
अमेरिका का संविधान बाइबल पर शपथ लेने के लिए नहीं कहता है. ये एक परंपरा है जो वर्ष 1789 में अमेरिका के पहले राष्ट्रपति जॉर्ज वॉशिंगटन ने शुरू की थी. हालांकि कुछ मौके ऐसे भी आए, जब इस परंपरा को नहीं निभाया गया.
वर्ष 1825 में अमेरिका के छठे राष्ट्रपति John Quincy Adams ने बाइबल की जगह Book of Law पर हाथ रख कर राष्ट्रपति के पद की शपथ ली थी और ऐसा उन्होंने अमेरिका के संविधान में अपनी निष्ठा को दिखाने के लिए किया था.
1901 में अमेरिका के 26वें राष्ट्रपति Theodore Roosevelt ने भी शपथ में बाइबल का इस्तेमाल नहीं किया था.
1963 में अमेरिका के 36वें राष्ट्रपति Lyndon B. Johnson ने रोमन कैथोलिक की एक किताब के साथ शपथ ली थी.
हालांकि अमेरिका में कई ऐसे राष्ट्रपति भी आए, जिन्होंने अपने Innaugration Day पर एक नहीं दो-दो बाइबल के साथ शपथ ली और इनमें डोनाल्ड ट्रंप भी शामिल हैं.
अब आप ये समझिए कि हमारे देश का संविधान क्या कहता है. भारत का संविधान किसी एक धर्म की बात नहीं करता और हमारे देश के इतिहास में कभी कोई ऐसा उदाहरण नहीं मिलता जब किसी धार्मिक पुस्तक पर हाथ रख कर किसी प्रधानमंत्री ने शपथ ली हो और ये इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि, हमारे देश में अब तक 15 प्रधानमंत्री बन चुके हैं और किसी भी प्रधानमंत्री ने धार्मिक पुस्तकों पर हाथ रख कर शपथ नहीं ली क्योंकि, भारत में संविधान को सर्वोपरि माना गया है और धर्मनिरपेक्षता इसकी मूल भावना में है.
हालांकि आपको याद होगा जब देश के रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने लड़ाकू विमान रफाल की पूजा की थी तो इस पर कितना विवाद हुआ था. इसी तरह पिछले दिनों नए संसद भवन के भूमि पूजन को भी सांप्रदायिक बताने की कोशिश की गई थी, वो भी तब जब इस भूमि पूजन में सभी धर्मों की प्रार्थना हुई थी.
सरल शब्दों में इसे समझें तो हमारा देश में धर्मनिरपेक्षता का सत्य निष्ठा से पालन होता है, लेकिन फिर भी अमेरिका और पश्चिमी देश हमें इस पर लेक्चर देते हैं. जबकि अमेरिका में बात तो मजबूत लोकतंत्र की होती है लेकिन शपथ बाइबल पर हाथ रख ली जाती है और फिर यही अमेरिका दुनियाभर के देशों को ये सिखाता है कि एक मजबूत लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता का स्वरूप कैसा होना चाहिए.
आपने कई भारतीय फिल्मों में कोर्ट रूम सीन देखे होंगे, जिनमें गीता पर हाथ रख कर सच बोलने की शपथ दिलाई जाती है. लेकिन इसमें कितना सच है, अब ये समझिए. भारत पर जब अंग्रेजों का शासन था तब 1873 में Indian Oaths Act लाया गया, जिसमें धार्मिक पुस्तकों पर हाथ रख कर शपथ दिलाने का प्रावधान था. 1947 में जब भारत आजाद हुआ तब भी ये कानून प्रभावी बना रहा. लेकिन वर्ष 1969 में एक नया कानून आया. Oaths Act, 1969 और यहां से भारत में शपथ भी धर्मनिरपेक्ष हो गई. इस कानून के पास होने से भारत की अदालतों में शपथ लेने की प्रथा में बदलाव हुआ और अब ये शपथ सिर्फ भगवान के नाम पर दिलाई जाती है.