DNA ANALYSIS: युसूफ खान के दिलीप कुमार बनने की कहानी, इस शर्त की वजह से बदला नाम
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DNA ANALYSIS: युसूफ खान के दिलीप कुमार बनने की कहानी, इस शर्त की वजह से बदला नाम

दिलीप कुमार के बारे में कहा जाता है कि वो घंटों तक आइने के सामने खड़े होकर एक ही डायलॉग को 10 बार अलग-अलग भाव से बोलते थे. मतलब ये कि एक ही संवाद को वो 10 अलग-अलग तरीकों से बोलते थे.

DNA ANALYSIS: युसूफ खान के दिलीप कुमार बनने की कहानी, इस शर्त की वजह से बदला नाम

नई दिल्ली: कल 7 जुलाई को मशहूर एक्टर दिलीप कुमार का निधन हो गया. 98 वर्ष के दिलीप कुमार पिछले काफी समय से बीमार थे. कल शाम करीब 5 बजे सांताक्रूज कब्रिस्तान में उन्हें सुपर्द- ए-खाक किया गया. उनके पार्थिव शव को उनके घर से राजकीय सम्मान के साथ तिरंगे में लपेटकर लाया गया और उन्हें 'गार्ड ऑफ ऑनर' भी दिया गया.

  1. 1940 के दशक में दिलीप कुमार पेशावर से नौकरी की तलाश में पुणे पहुंचे थे.
  2. तब वो दिलीप कुमार नहीं, युसुफ खान थे.
  3. लेकिन देविका रानी के कहने पर उन्होंने अपना स्टेज नेम दिलीप कुमार चुना.

हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में पहले किंग खान

दिलीप कुमार का जाना किसी एक्टिंग संस्थान के बंद हो जाने जैसा है क्योंकि, दिलीप कुमार उन कलाकारों में से थे, जिनसे अगली पीढ़ी एक्टिंग की प्रेरणा लेती थी. हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में दिलीप कुमार को पहला किंग खान कहा जाता था क्योंकि, दिलीप कुमार का असली नाम युसूफ खान था और वो पेशावर के एक पठान परिवार से ताल्लुक रखते थे.

हमारे पास उनकी ऑटोबायोग्राफी दिलीप कुमार- द स्बसटांस एंड द शैडो (Dilip Kumar- The Substance and the shadow) है, जिसमें दिलीप कुमार की जिंदगी से जुड़ी कई कहानियां हैं. इस किताब में युसूफ खान के दिलीप कुमार बनने की कहानी भी विस्तार से बताई गई है, लेकिन हम आपको संक्षेप में इसके बारे में बताते हैं.

युसूफ खान के दिलीप कुमार बनने की कहानी

1940 के दशक में दिलीप कुमार पेशावर से नौकरी की तलाश में पुणे पहुंचे थे और तब वो दिलीप कुमार नहीं, युसुफ खान थे. उनके पिता लाला गुलाम सरवर पेशावर में एक फल विक्रेता थे. जब दिलीप कुमार घर से भागकर पुणे पहुंचे, तो उन्होंने वहां ब्रिटिश आर्मी कैंटीन में सैंडविच का एक स्टॉल लगा लिया. इस काम से दिलीप कुमार ने 5 हजार रुपये कमाए, जो उस वक्त के हिसाब से बहुत ज्यादा थे. उस समय दिलीप कुमार इन पैसों के साथ वापस अपने घर लौट गए थे, लेकिन वर्ष 1942 में दिलीप कुमार को फिर से काम की तलाश थी और तब उनके एक फैमिली फ्रेंड ने उन्हें बॉम्बे टॉकीज स्टूडियो की मशहूर अदाकारा देविका रानी से मिलवाया. इसके बाद दिलीप कुमार ने बॉम्बे टॉकीज में एक स्क्रिप्ट राइटर के तौर पर काम करना शुरू कर दिया क्योंकि, उनकी उर्दू बहुत अच्छी थी. वो उर्दू में नाटक लिखते थे.

वर्ष 1944 में देविका रानी ने अपनी फिल्म 'ज्वार भाटा' के लिए युसूफ खान को लीड रोल ऑफर किया था और इसके लिए वो उन्हें 1250 रुपये महीना देने के तैयार थीं. उस वक्त ये रकम काफी बड़ी थी. दिलीप कुमार को यकीन नहीं हुआ और उन्हें लगा कि ये उनकी सालाना सैलरी है. दिलीप कुमार ने अपनी उलझन दूर करने के लिए देविका रानी से दोबारा संपर्क किया और देविका ने दिलीप कुमार को बहुत प्रतिभावान बताया और कहा कि वो ऐसा ऑफर देना चाहती थीं जिसे दिलीप कुमार मना न कर पाएं, लेकिन उनकी शर्त ये थी कि युसूफ खान को अपना एक स्टेज नेम चुनना होगा. देविका रानी ने ही युसूफ खान को स्टेज नेम दिलीप कुमार दिया. देविका रानी का तर्क ये था कि दिलीप कुमार नाम उनके रोमांटिक छवि को बढ़ाएगा और इसका उन्हें आने वाली फिल्मों में फायदा मिलेगा.

एक ही डायलॉग को 10 अलग-अलग तरीकों से बोलते थे दिलीप कुमार

दिलीप कुमार ने अपने फिल्मी करियर में केवल 63 फिल्में की हैं. इसके पीछे वजह ये थी कि वो अपनी फिल्मों को बहुत सोच समझकर ही चुनते थे. अपने हर काम को करने से पहले वो काफी सोच विचार करते थे. दिलीप कुमार के बारे में कहा जाता है कि वो घंटों तक आइने के सामने खड़े होकर एक ही डायलॉग को 10 बार अलग-अलग भाव से बोलते थे. मतलब ये कि एक ही संवाद को वो 10 अलग-अलग तरीकों से बोलते थे.

दिलीप कुमार की इसी प्रतिभा की वजह से महान फिल्म निर्देशक सत्यजीत रे ने उनको सबसे बड़ा मेथड एक्टर कहा था. छह दशकों तक चले अपने फिल्मी करियर में दिलीप कुमार हमेशा अपने हर किरदार में पूरी तरह से डूब जाते थे.

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