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नई दिल्ली: अमेरिका (US) के राष्ट्रपति जो बाइडन (Joe Biden) ने अपने सैनिकों को अफगानिस्तान (Afghanistan) से वापस बुलाने के फैसले का बचाव किया है. उन्होंने कहा तालिबान (Taliban) सिर्फ इसलिए जीता क्योंकि राष्ट्रपति अशरफ गनी (President Ashraf Ghani) ने तालिबान के सामने हार मान ली थी. वहीं अफगानिस्तान की सेना (Afghan Army) ने भी तालिबान के खिलाफ संघर्ष नहीं किया.
करीब 20 साल पहले जब अमेरिका ने अपने सैनिकों को अफगानिस्तान भेजा था तो उसका एक मकसद वहां लोकतंत्र की बहाली भी बताया गया था. हालांकि अफगानिस्तान ये बात कभी नहीं समझा कि अमेरिका के लिए लोकतंत्र सिर्फ एक सीढ़ी है, जिसका इस्तेमाल वो अपने हितों को साधने के लिए करता है. वहीं अफगानिस्तान के नेता और देश की राजनीति सिर्फ भ्रष्टाचार में डूबी रही.
अमेरिका ने 2001 से मार्च 2021 तक अफगानिस्तान की सेना पर 88 अरब डॉलर (Billion Dollor) यानी 6 लाख 60 हजार करोड़ रुपये खर्च किए. अफगानिस्तान की सरकार जब तक अमेरिका से ये मदद मिलती रही, तब तक उसके सैनिकों को वेतन और दूसरी ज़रूरते मिलने में परेशानी नहीं हुई, लेकिन जैसे ही अमेरिका ने ये मदद बन्द कर दी तो वहां के सैनिकों को वेतन मिलना बन्द हो गया. और तालिबान से हार का ये प्रमुख कारण रहा.
कुछ साल पहले अमेरिका में एक रिपोर्ट पेश की गई थी, जिसमें कह गया था कि लाखों करोड़ रुपये खर्च करने के बाद भी अफगानिस्तान की सेना कमजोर क्यों हैं? इनमें पहली वजह भ्रष्टाचार को बताया गया था. इसके मुताबिक अमेरिका जो पैसा और हथियार अफगानिस्तान को भेजता था, वो मदद सैनिकों को मिलने के बजाय ब्लैक मार्केट (Black Market) में पहुंच जाता था. कई बार ये मदद तालिबान तक पहुंच जाती थी. इसके लिए अशरफ गनी को जिम्मेदार माना गया.
क्योंकि उन्होंने इस भ्रष्टाचार पर अपनी ना सिर्फ आंखें बन्द रखी बल्कि अमेरिकी फंड्स पर भी खूब ऐश की. वहीं भूतिया सैनिकों (Ghost Soldiers) यानी जो सैनिक सिर्फ कागजों पर हैं, उनको भी वेतन देकर अफगानिस्तान में बड़े पैमाने पर भ्रष्टाचार हुआ.
अफगानिस्तान की सेना में वैचारिक एकता नहीं थी. और हर महीने लगभग 5 हज़ार सैनिक. अपनी ड्यूटी छोड़ कर मैदान से भाग जाते थे. अशरफ गनी ने अफगान सेना के नेतृत्व को भी बार बार बदला, जिससे वहां के सैनिकों में अंसतोष बढ़ा. अशरफ गनी सरकार के भ्रष्टाचार ने अफगानिस्तान की सेना को अन्दर से इस कदर खोखला कर दिया था कि. जब तालिबान से लड़ने की बारी आई तो ये सैनिक मैदान में खड़े ही नहीं रह पाए. अफगानिस्तान की सेना के पास आधुनिक हथियार थे, वायु सेना थी, 3 लाख सैनिक थे, खतरनाक रॉकेट लॉन्चर थे, बड़े सैन्य अड्डे थे, लेकिन इच्छाशक्ति नहीं थी. वहीं इस इच्छाशक्ति को अफगानिस्तान की राजनीति ने पहले ही मार दिया था.
अफगानिस्तान के संकट से ये भी पता चलता है कि किसी भी देश के अस्थिर होने में सबसे बड़ी भूमिका विदेशी ताकतों और संस्थाओं की होती है. अगर अफगानिस्तान की तरह कश्मीर में भारत ने दूसरे देशों को घुसने दिया होता तो आज वहां क्या हाल होता. ऐसे हालात में ये देश तो वहां से चले जाते लेकिन उसके बाद वहां के कट्टरपंथी संगठन कश्मीर को अस्थिर करने के बाद उस पर कब्जा कर लेते थे. इसलिए ये भारत की बड़ी उपलब्धि है कि उसने बड़े देशों के दबाव के बावजूद कश्मीर में विदेशी ताकतों को घुसने नहीं दिया.
इस बात को चीन भी समझता है. चीन के सरकारी अखबार ग्लोबल टाइम्स ने इस पूरे घटनाक्रम से ताइवान को सीख लेने के लिए कहा है. उसका कहना है कि ताइवान भी अफगानिस्तान की तरह अमेरिका के समर्थन पर निर्भर है. वहीं अमेरिका रातों रात कैसे किसी देश को छोड़ कर भाग सकता है, उसे ये अफगानिस्तान से सीखना चाहिए.
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