Trending Photos
नई दिल्ली: काबुल (Kabul) में अफगानिस्तान (Afghanistan) के लोग तालिबान (Taliban) का विरोध कर रहे हैं लेकिन क्या आप जानते हैं कि आज से 106 वर्ष पहले यानी वर्ष 1915 में इसी काबुल में एक देशभक्त भारतीय ने भारत की पहली निर्वासित सरकार का गठन किया था. इस सरकार और इसमें शामिल दूसरे देशभक्त नेताओं से अफगानिस्तान के लोग बहुत प्यार करते थे और अफगानिस्तान के लोगों ने तब भारत की आजादी का समर्थन किया था.
काबुल में भारत की पहली निर्वासित सरकार का गठन करने वाले इस राष्ट्रवादी नेता का नाम था राजा महेंद्र प्रताप सिंह. राजा महेंद्र प्रताप सिंह (Raja Mahendra Pratap Singh) एक पत्रकार भी थे, एक स्वतंत्रता सेनानी भी थे, क्रांतिकारी भी थे और समाज सुधारक भी थे. राजा महेंद्र प्रताप सिंह का जन्म 1 दिसंबर 1886 को अलीगढ़ के मुरसान राजघराने में हुआ था लेकिन कहा जाता है कि उन्हें हाथरस के राजा हर नारायण सिंह ने गोद ले लिया था और उन्हें अपना वारिस घोषित कर दिया था.
वर्ष 1914 में राजा महेंद्र प्रताप सिंह जब सिर्फ 28 साल के थे तब वो भारत से बाहर चले गए थे, वो चाहते थे कि वो ब्रिटिश सरकार के खिलाफ दुनिया के अलग-अलग देशों का समर्थन हासिल करें. इसके अगले वर्ष यानी 1915 में वो स्विट्जरलैंड, जर्मनी, विएना और टर्की से भारत की आजादी का समर्थन हासिल करके काबुल पहुंचे और वहां उन्होंने भारत की पहली निर्वासित सरकार का गठन किया.
ये भी पढ़ें- नहीं बदला तालिबान का चाल, चरित्र और चेहरा, जानें नई सरकार के मायने?
उन्होंने इसके लिए काबुल का चयन इसलिए किया था क्योंकि ये भौगोलिक रूप से एक महत्वपूर्ण जगह थी. तब भारत की सीमाएं अफगानिस्तान से मिला करती थीं. भौगोलिक रूप से अफगानिस्तान चीन के भी करीब है, अफगानिस्तान की सीमाएं उस समय के Russia से भी मिलती थीं और यहां ये टर्की भी बहुत करीब था और टर्की और Russia के रास्ते यूरोप जाना आसान था. महेंद्र प्रताप सिंह इन देशों के साथ-साथ यूरोप के कुछ देशों और अमेरिका का भी समर्थन हासिल करना चाहते थे.
उनकी इस कोशिश से ब्रिटिश सरकार इतना डर गई थी कि उसने ऐलान कर दिया था कि जो भी राजा महेंद्र प्रताप सिंह के बारे में बताएगा या उन्हें जिंदा या मुर्दा पकड़ेगा, उसे इनाम दिया जाएगा. लेकिन आपमें से शायद बहुत कम लोगों को महेंद्र प्रताप सिंह के बारे में ये सारी बातें पता होंगी और बहुत कम लोगों को ही इसकी जानकारी होगी कि महेंद्र प्रताप सिंह ने ही अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी यानी AMU को अपनी निजी जमीन दान में दी थी.
आज भारत के लोग AMU की स्थापना करने वाले सर सैयद अहमद खान के बारे में तो जानते हैं, जिन्हें ब्रिटेन की सरकार ने Order Of The Star Of India पुरस्कार से सम्मानित किया था और जिन्हें Sir की उपाधि भी थी. यहीं से भारत में पुरस्कार गैंग की शुरुआत हुई थी. लेकिन भारत के लोग राजा महेंद्र प्रताप सिंह के बारे में नहीं जानते जिनसे अंग्रेजों की सरकार खौफ खाती थी. लेकिन अब राजा महेंद्र प्रताप सिंह के नाम पर अलीगढ़ में ही एक नई यूनिवर्सिटी शुरू की जाएगी जिसका भूमि पूजन 14 सितंबर को खुद देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी करेंगे.
ये भी पढ़ें- तालिबान की सरकार में 17 आतंकवादी, तय है अफगानिस्तान की बर्बादी
बहुत सारे लोग कह रहे हैं कि ये फैसला इसलिए लिया गया है क्योंकि राजा महेंद्र प्रताप सिंह एक जाट नेता थे. उत्तर प्रदेश में जाट वोटर्स अच्छी खासी संख्या में हैं और आने वाले विधान सभा चुनाव से पहले बीजेपी इन वोटर्स को अपने पक्ष में करना चाहती है. लेकिन आज महेंद्र प्रताप सिंह के बारे में जो हम आपको बताएंगे उससे आपको समझ आ जाएगा कि वो किसी विचारधारा, पार्टी, धर्म और जाति से कितने ऊपर थे.
राजा महेंद्र सिंह वर्ष 1895 से 1905 तक अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के ही छात्र थे लेकिन तब इसका नाम Muhammadan Anglo-Oriental College हुआ करता था जो 1920 में अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में बदल गया.
राजा महेंद्र प्रताप सिंह ने ही वर्ष 1929 में AMU के विस्तार के लिए अपनी तीन एकड़ जमीन दान की थी. राजा महेंद्र प्रताप सिंह ने ये जमीन 90 वर्ष की Lease पर दी थी जिसके लिए वो AMU से हर साल सिर्फ 2 रुपये किराया लिया करते थे. आज इसी जमीन पर AMU City High School और एक पार्क है. इस स्कूल में आज भी बड़ी संख्या में अलीगढ़ के छात्र पढ़ते हैं.
लेकिन विडंबना देखिए अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी की स्थापना करने वाले सर सैयद अहमद खान आगे चलकर Two Nation Theory के जनक बन गए और यही Theory भारत के बंटवारे का आधार बनी. जबकि AMU से ही पढ़कर निकले राजा महेंद्र प्रताप सिंह ने दुनिया भर में भारत की आजादी की लड़ाई लड़ी. फिर भी लोग सैयद अहमद खान को तो जानते हैं लेकिन राजा महेंद्र प्रताप सिंह के बारे में लोगों को ज्यादा जानकारी नहीं है.
राजा महेंद्र प्रताप सिंह की ही कोशिशों का नतीजा था कि वर्ष 1914 से 1919 तक चले पहले विश्वयुद्ध के दौरान जर्मनी और Turkey जैसे देशों ने भारत की निर्वासित सरकार को मान्यता दे दी थी, जिसके राष्ट्रपति खुद राजा महेंद्र प्रताप सिंह थे. उन्होंने मौलवी बरकत उल्लाह को प्रधानमंत्री बनाया था. इस सरकार के गृहमंत्री थे मौलवी उबेदुल्लाह सिंधी और चंपक रमन पिल्लई को इसका विदेश मंत्री बनाया गया था. इस निर्वासित सरकार का नाम था हुकुमत ए मुख्तार ए हिंद यानी आजाद हिंदुस्तान की सरकार.
जो लोग महेंद्र प्रताप सिंह को जाति धर्म से जोड़ रहे हैं उन्हें पता होना चाहिए कि राजा महेंद्र प्रताप सिंह एक हिंदू परिवार में पैदा हुए थे. उन्होंने मुस्लिमों के कॉलेज से शिक्षा हासिल की और उनका विवाह राजकुमारी बलबीर कौर से हुआ था जो एक सिख थीं.
राजा महेंद्र प्रताप सिंह खुद जाति प्रथा के खिलाफ थे. 1911 में उन्होंने दलितों के साथ खाना खाकर भारत को छुआछूत के खिलाफ संदेश दिया था. ये तब की बात है जब Television कैमरा नहीं हुआ करते थे. दलितों के साथ खाना खाते हुए नेताओं की तस्वीरें खींचने वाले पत्रकार नहीं हुआ करते थे और ना तब सोशल मीडिया हुआ करता था. राजा महेंद्र प्रताप सिंह ने ये सब प्रचार के लिए नहीं करते थे बल्कि वो पूरे देश को एक करना चाहते थे.
राजा महेंद्र प्रताप सिंह राष्ट्रवादी थे लेकिन वो ये भी चाहते कि देर सवेर पूरी दुनिया में एक ही सरकार हो. यानी देश तो अलग-अलग हो लेकिन उन पर शासन एक ही सरकार का हो ताकि दुनिया के संसाधन सभी देशों के बीच बराबर बंट सके और विकसित और विकासशील देशों के बीच की खाई को भरा जा सके. वो कुछ गिने चुने देशों को ज्यादा शक्तियां और अधिकार दिए जाने के भी खिलाफ थे. राजा महेंद्र प्रताप सिंह अगर आज जिंदा होते तो वो संयुक्त राष्ट्र की सुरक्षा परिषद में शामिल पांच देश को हासिल Veto Power का विरोध करते.
कुल मिलाकर राजा महेंद्र प्रताप सिंह ना सिर्फ भारत को आजाद कराना चाहते थे बल्कि वो एक नया World Order भी बनाना चाहते थे. समाज सुधार के कार्यों के लिए वर्ष 1932 में उनका Nomination Nobel पुरस्कार के लिए भी हुआ था.
महेंद्र प्रताप सिंह ने वर्ष 1914 में भारत छोड़ा था और ब्रिटिश सरकार नहीं चाहती थी कि वो भारत वापस आएं लेकिन पूरी दुनिया पर महेंद्र प्रताप सिंह का इतना प्रभाव था कि 1946 में ब्रिटिश सरकार को उन्हें भारत आने की इजाजत देनी पड़ी. पूरे 32 वर्षों तक निर्वासन में रहने के बाद महेंद्र प्रताप सिंह भारत लौट आए और देश वापस आते ही वो सबसे पहले महात्मा गांधी से मिलने गए जो उस समय महाराष्ट्र के वर्धा में थे.
महेंद्र प्रताप सिंह महात्मा गांधी से बहुत प्रभावित थे और उनके हर आंदोलन का समर्थन करते थे लेकिन महेंद्र प्रताप सिंह भारत के बंटवारे के खिलाफ थे. 1939 में उन्होंने गांधी जी को एक चिट्ठी लिखी थी जिसमें उन्होंने मोहम्मद अली जिन्ना को लेकर गांधी जी को चेताया था.
इस चिट्ठी में महेंद्र प्रताप सिंह ने लिखा था कि जिन्ना विश्वास के काबिल नहीं है क्योंकि वो एक सांप की तरह हैं जो किसी को भी डस सकता है. इसके एक वर्ष बाद ही यानी 1940 में पहली बार भारत के बंटवारे की और पाकिस्तान के निर्माण की मांग रख दी थी यानी जिन्ना के बारे में महेंद्र प्रताप सिंह का डर सच साबित हुआ था.
महेंद्र प्रताप सिंह भारत की आजादी के बाद भी भारत में समाज सुधार के लिए लड़ते रहे, वो पंचायती राज के बहुत बड़े समर्थक थे और भारत के युवाओं को आधुनिक शिक्षा देना चाहते थे. 1957 में महेंद्र प्रताप सिंह ने निर्दलीय उम्मीदवार के तौर पर मथुरा लोक सभा सीट से अटल बिहारी वाजपेयी के खिलाफ चुनाव लड़ा था और महेंद्र प्रताप सिंह ने ये चुनाव जीता भी था.
दिलचस्प बात ये है कि एक समय में महेंद्र प्रताप सिंह ने अपना नाम बदलकर पीटर पीर प्रताप रख लिया था. वो हिंदु, मुस्लिम और ईसाइयों की एकता के पक्ष में थे और यही संदेश देने के लिए उन्होंने अपना नाम बदल लिया था. 1909 में उन्होंने वृंदावन में एक प्रेम विद्यालय भी खोला था जिसका उद्देश्य भारत के युवाओं को आत्म निर्भर बनाना था. इस प्रेम विद्यालय में युवाओं के कौशन यानी Skills पर ध्यान दिया जाता था.
आप अंदाजा लगा सकते हैं कि महेंद्र प्रताप सिंह कितने दूरदर्शी थे. जो सुधार आजादी के 74 वर्षों के बाद आज भारत में हो रहे हैं, उनकी नींव राजा महेंद्र प्रताप सिंह ने वर्षों पहले रख दी थी. सबसे बड़ी बात ये कि भारत के नेताओं ने पूर्ण स्वराज की मांग वर्ष 1929 में रखी थी जबकि राजा महेंद्र प्रताप सिंह ने 1915 में ही पूर्ण स्वराज की मांग रख दी थी.