DNA ANALYSIS: क्या आज का भारत महात्मा गांधी के आदर्शों को भूल चुका है?
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DNA ANALYSIS: क्या आज का भारत महात्मा गांधी के आदर्शों को भूल चुका है?

किसानों से जुड़े अलग-अलग बिल पर नरेंद्र मोदी सरकार और विपक्ष के बीच टकराव बढ़ता जा रहा है. 20 सितंबर को राज्य सभा में जब ये बिल पेश किए गए थे, तब विपक्षी सांसदों ने भारी हंगामा मचाया था. उन्होंने सभापति के माइक को भी तोड़ दिया था. 

DNA ANALYSIS: क्या आज का भारत महात्मा गांधी के आदर्शों को भूल चुका है?

नई दिल्ली: राज्य सभा में किसानों से जुड़े बिल पर 20 सितंबर को चर्चा के दौरान कई सांसद सभापति की कुर्सी तक पहुंच गए थे. उन्होंने सभापति के सामने लगे माइक तोड़ दिया और बिल के दस्तावेजों को उठाकर फेंक दिया. इतना ही नहीं, सदन की सुरक्षा के लिए तैनात गार्ड्स के साथ मारपीट भी की गई.

संत कबीर दास का एक दोहा है-

शब्द शब्द सब कोइ कहे, शब्द के हाथ न पांव
एक शब्द औषधि करे और इक शब्द करे सौ घाव।

यानी अपनी वाणी से शब्द बहुत सोच-समझकर बोलना चाहिए. क्योंकि यही शब्द कभी औषधि का काम करता है और कभी घाव भी दे सकता है. शब्दों के हाथ-पांव नहीं होते कि वो खुद चला आए. यानी अपनी बोलचाल और व्यवहार के जिम्मेदार हम खुद हैं. लेकिन लगता है कि संत कबीर दास की यह सीख हमारी संसद के कुछ सदस्यों को समझ में नहीं आती है. वो पहले संसद में हंगामा और तोड़फोड़ करते हैं, ऐसे नारे लगाते हैं जो लोकतंत्र के मंदिर की मर्यादा के खिलाफ हैं. पूरे देश ने इन सांसदों का शर्मनाक व्यवहार टेलीविजन पर देखा लेकिन खुद इन सांसदों को अपने किए का कोई अफसोस नहीं है. जब उन्हें इसके बदले में सजा दी जाती है तो वो सजा को स्वीकार करने के बजाय फिर से हंगामा करने लगते हैं.

क्या आज का भारत महात्मा गांधी के आदर्शों को भूल चुका है? इन सांसदों के व्यवहार को देखकर तो ऐसा ही लगता है.

दरअसल, किसानों से जुड़े अलग-अलग बिल पर नरेंद्र मोदी सरकार और विपक्ष के बीच टकराव बढ़ता जा रहा है. 20 सितंबर को राज्य सभा में जब ये बिल पेश किए गए थे, तब विपक्षी सांसदों ने भारी हंगामा मचाया था. उन्होंने सभापति के माइक को भी तोड़ दिया था. इसके बाद कल 21 सितंबर राज्य सभा के सभापति वेंकैया नायडू ने सबसे ज्यादा हंगामा मचाने वाले 8 विपक्षी सांसदों को एक सप्ताह के लिए निलंबित कर दिया. जिन सांसदों को निलंबित किया गया है.उनमें तृणमूल कांग्रेस के डेरेक ओ’ब्रायन और डोला सेन, कांग्रेस के राजीव सातव, रिपुन बोरा और सैयद नासिर हुसैन, CPM के ई करीम और केके रागेश और आम आदमी पार्टी के संजय सिंह शामिल हैं.

किसानों के बहाने विपक्ष को राजनीति का मौका मिल गया
हंगामा मचाने वाले सांसदों का व्यवहार ऐसा था कि पूरे देश का सिर शर्म से झुक जाए. राज्य सभा के सभापति और उपराष्ट्रपति वेंकैया नायडू ने कुछ सांसदों के बर्ताव पर दुख जताया और उनके खिलाफ सजा की घोषणा की.

इस पूरे विवाद से प्रश्न उठ रहा है कि कहीं ऐसा तो नहीं कि किसानों के बहाने विपक्ष को राजनीति का मौका मिल गया. क्योंकि अगर चिंता किसानों की होती तो विरोध के दूसरे तरीके भी अपनाए जा सकते थे. विपक्ष का ये विरोध जारी है और दिन भर सदन में कोई कामकाज नहीं हो पाया.

कल 21 सितंबर को विपक्षी सांसद काफी देर तक संसद के परिसर में धरने पर बैठे रहे. उन्होंने इस मामले पर राष्ट्रपति से मिलने की बात भी कही है. पूरे हंगामे का सबसे दुखद पहलू है, दोषी सांसदों और उनके दलों के नेताओं का व्यवहार. राहुल गांधी और ममता बनर्जी ने हंगामा मचाने वाले अपने सांसदों की करतूत पर कोई अफसोस नहीं जताया है. उल्टा वो अपने सांसदों का बचाव करते दिखाई दे रहे हैं.

विपक्ष के सदस्यों के इस व्यवहार पर सरकार आक्रामक मुद्रा में है. केंद्रीय मंत्री रविशंकर प्रसाद ने आज एक प्रेस कॉन्फ्रेंस करके कहा है कि विपक्ष संसदीय मर्यादाओं की अनदेखी कर रहा है. उन्होंने कहा कि कल उपसभापति हरिवंश को भी चोट लग गई होती, अगर उन्हें सुरक्षा अधिकारी ने बचाया नहीं होता.

कांग्रेस पार्टी खुद को किसानों का हितैषी बताकर कृषि बिलों का विरोध कर रही है. लेकिन 4 दिसंबर 2012 को पूर्व संचार मंत्री कपिल सिब्बल का लोक सभा में दिया बयान आज आपको जरूर सुनना चाहिए. तब कांग्रेस पार्टी सत्ता में थी और बीजेपी विपक्ष में थी. उस वक्त केंद्रीय मंत्री कपिल सिब्बल ने कहा था कि किसानों को अपनी फसल की कीमत का सिर्फ 15 प्रतिशत हिस्सा ही मिलता है. बाकी का पैसा बिचौलियों के पास चला जाता है.

राज्य सभा में जो कुछ हुआ उस पर पूरे देश की नजर है. हमारे सांसद शायद यह भूल गए हैं कि उनके व्यवहार को देश की जनता बहुत ध्यान से देखती है और उसके आधार पर अपनी राय भी बनाती है. हमने अलग-अलग शहरों में आम लोगों से बात की कि वो इस सारी घटना के बारे में क्या सोचते हैं.

राज्य सभा के सांसदों पर लागू होती है आचार संहिता
अब आपको उस आचार संहिता के बारे में बताते हैं जो राज्य सभा के सांसदों पर लागू होती है. ये आचार संहिता 2005 में लागू की गई थी. इसके अनुसार—

- राज्यसभा के सदस्यों की जिम्मेदारी है कि जनता का लोकतंत्र में विश्वास बना रहे. उन्हें संविधान, कानून, संसदीय संस्थाओं और इन सबसे ऊपर आम जनता का सम्मान करना चाहिए.

- सदस्यों को कोई ऐसा काम नहीं करना चाहिए जिससे संसद की बदनामी होती हो और जनता की नजर में उनकी विश्वसनीयता प्रभावित होती हो.

- सांसदों को ध्यान रखना चाहिए कि उनके निजी या पारिवारिक वित्तीय हितों के कारण जनता के हितों पर कोई संकट पैदा न हो. मतलब ये कि सांसदों को किसी ऐसे बिजनेस में नहीं होना चाहिए, जिसमें वो खुद को ही लाभ पहुंचा रहे हों.

- राज्य सभा की आचार संहिता के अनुसार सदस्यों को ऐसे किसी मुद्दे पर समर्थन या विरोध नहीं करना चाहिए, जिनके बारे में उन्हें पूरी जानकारी न हो. कृषि से जुड़े इन बिलों के मामले में हम देख रहे हैं कि कई सांसदों ने बिना किसी जानकारी के ही बिल का विरोध किया.

- सदस्यों से यह भी अपेक्षा की जाती है कि वो सार्वजनिक जीवन में उच्च स्तरीय नैतिकता, प्रतिष्ठा और शालीनता के मूल्यों को बनाए रखें.

केंद्र सरकार ने 6 रबी फसलों का न्यूनतम समर्थन मूल्य बढ़ाया
केंद्र सरकार ने 6 रबी फसलों का MSP यानी न्यूनतम समर्थन मूल्य बढ़ा दिया है. यह खबर महत्वपूर्ण है क्योंकि विपक्ष आरोप लगा रहा है कि सरकार MSP खत्म करना चाहती है. फैसले के अनुसार—

गेहूं की MSP में 50 रुपए प्रति क्विंटल की वृद्धि हुई है. अब ये 1 हजार 9 सौ 75 रुपए प्रति क्विंटल हो गया है.

जौ की MSP को 75 रुपए प्रति क्विंटल बढ़ा दिया गया है. जौ का नया न्यूनतम समर्थन मूल्य 1 हजार 600 रुपए प्रति क्विंटल होगा और सरसों का न्यूनतम समर्थन मूल्य 225 रुपए प्रति क्विंटल बढ़ाया गया है. सरसों का न्यूनतम समर्थन मूल्य 4 हजार 6 सौ 50 रुपए प्रति क्विंटल कर दिया गया है.

अपमानजनक और अभद्र भाषा 
हमने आपको बताया कि देश की संसद में पिछले दो दिन में क्या हुआ. अब इसी बात को हम देश के संदर्भ में रखकर देखते हैं कि इन दिनों देश में क्या हो रहा है? हमने सुशांत सिंह राजपूत पर मीडिया कवरेज देखा है. इस मामले पर मीडिया में जिस तरह की भाषा का प्रयोग किया गया, वो आपको अच्छी तरह याद होगा. जिस तरह की अपमानजनक और अभद्र भाषा हम मीडिया में देखते हैं, उसी तरह की भाषा राजनीति में भी इस्तेमाल हो रही है.

देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के जन्मदिन पर विपक्ष ने उनके लिए जो भाषा प्रयोग की उसे भी हम सबने सुना भी और देखा भी है. इसलिए राज्य सभा में जिस तरह का हंगामा और मारपीट हम देख रहे हैं, उसे देखकर अब बहुत ज्यादा आश्चर्य नहीं होता. एक समाज के तौर पर हम लगातार ऐसे व्यवहार को स्वीकार करते जा रहे हैं, जिसमें कोई व्यक्ति अपनी भाषा और आचरण से किसी दूसरे को अपमानित करने का प्रयास करता है.

जितना अभद्र भाषा प्रयोग करो, उतना ही अच्छा रहेगा?
हम न्यूज चैनलों पर इन दिनों ऐसी ही भाषा देख रहे हैं जो नेता जितनी अभद्र भाषा का इस्तेमाल करता है उसे उतनी ही ज्यादा पहचान मिलती है. सभी उसे ही दिखाने लगते हैं. न्यूज चैनलों की डिबेट में उन्हें ही बुलाया जाता है. यही कारण है कि आज सबको लगने लगा है कि जितना शोर मचाओ या जितना अभद्र भाषा प्रयोग करो, उतना ही अच्छा रहेगा. क्योंकि ऐसा करने पर ज्यादा TRP मिलेगी.

कोई भी समाज इसी बात से जाना जाता है कि
- वहां का मीडिया कैसा है?
- वहां संसद में कैसा आचरण किया जाता है.
- और लोगों का व्यक्तिगत आचरण कैसा है.

मीडिया किसी समाज में बहुत बड़ी संख्या में लोगों की अभिव्यक्ति के तौर-तरीके का प्रतिनिधि होता है. जबकि संसद राजनीतिक आकांक्षाओं और प्रशासन का प्रतिनिधित्व करती है. ये दोनों ही संस्थाएं बहुत हद तक आम लोगों और दूसरी सामाजिक संस्थाओं के व्यवहार को भी प्रभावित करती हैं.

जो लक्षण हमने ऊपर आपको बताएं उनके आधार पर कह सकते हैं कि हमारा देश आज एक वैचारिक पतन के दौर से गुजर रहा है. इस बात की पूरी आशंका है कि आने वाले समय में और बुरा हाल हो सकता है. आज शोर मचाना हमारी नई संस्कृति बनता जा रहा है. जो शोर मचा सकता है वो चर्चाओं में बना रह सकता है.

देश में किसानों की हालत जस की तस
बीते दौर की मशहूर पत्रिका धर्मयुग के सितंबर 1972 के अंक में किसानों की समस्या के बारे में बताया गया था. कवरपेज पर लिखा है- अन्न उपजाये किसान, भूखों मरे किसान यानी जो किसान अन्न उपजाता है वो ही भूखा मरता है. 1972 से आज 2020 आ चुका है लेकिन, 48 वर्षों में भी देश में किसानों की हालत जस की तस है. हर साल बड़ी संख्या में किसान आत्महत्या करते हैं लेकिन उनके लिए कोई शोर नहीं मचाता. क्योंकि वो सेलिब्रिटी या कोई फिल्म स्टार नहीं हैं.

यह स्थिति बताती है कि कहीं न कहीं किसानों के साथ बेइमानी हुई है. देश के हर बड़े नेता का भाषण बिना किसान के मुद्दे के पूरा नहीं होता. देश में हर चुनाव किसानों की भलाई के नाम पर लड़ा जाता है. लेकिन ऐसी क्या समस्या है जो इतने साल में भी समाप्त नहीं हो पाई. ये कवर पेज भले ही 1972 का हो, लेकिन समस्या उससे भी पहले की है. देश के दूसरे प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री ने जय जवान जय किसान का नारा दिया था. बाद में इंदिरा गांधी के दौर में हरित क्रांति की बातें हुईं, लेकिन किसान आज भी बुरी हालत में है.

मंडियों में किसानों का शोषण
1990 में आई फिल्म 'जीने दो' का एक सीन अनुपम खेर ने ट्विटर पर पोस्ट किया है. इस फिल्म में एक सरकारी मंडी का दृश्य दिखाया गया है. इस सीन को देखकर आप समझ सकते हैं कि हमारे देश की मंडियों में किसानों का किस तरह से शोषण किया जाता है. यानी आजादी के फौरन बाद का वक्त हो, 1972 का साल हो या फिर 1990 किसानों का हाल जस का तस रहा.

जिस दिन ये 100 रुपये की पिसाई हमारी समझ में आएगी, हमारे दिन बदल जाएंगे अनुपम खेर का ये डायलॉग बहुत कुछ कहता है. 1990 में सरकारी मंडियों का जो हाल इस सीन में दिखाया गया है. लगभग वैसा ही हाल आज भी है. अब जाकर किसी सरकार ने इस स्थिति को बदलने की कोशिश की है तो उस पर भी राजनीति हो रही है.

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