शहीद भगत सिंह कैसा भारत चाहते थे. आज DNA में हम इसी का विश्लेषण करेंगे. इसके साथ ही हम देश के नौजवानों को ये भी बताएंगे कि वो भगत सिंह से क्या सीख सकते हैं और भगत सिंह के लिए अटूट प्रेम का अर्थ क्या था.
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नई दिल्ली: आज का DNA बहुत महत्वपूर्ण है क्योंकि, आज हम आपको आज़ादी के मतवालों के बारे में बताएंगे. 23 मार्च 1931 का दिन याद कीजिए. ये वही दिन था, जब महान क्रांतिकारी भगत सिंह, सुखदेव थापर और शिवराम हरि राजगुरु ने फांसी के फंदे को आज़ादी का आभूषण मानकर अपने गले में डाल लिया था.
शहीद भगत सिंह कहते थे कि बम और पिस्तौल से क्रांति नहीं आती. क्रांति की तलवार विचारों की सान पर तेज़ होती है. भगत सिंह भारत को अंग्रेज़ों की बेड़ियों से स्वतंत्र देखना चाहते थे, लेकिन आज़ादी से 16 साल 4 महीने और 23 दिन पहले ही उन्हें फांसी दे दी गई और हंसते हुए उन्होंने अपनी शहादत को गले लगा लिया.
शहीद भगत सिंह कैसा भारत चाहते थे. आज DNA में हम इसी का विश्लेषण करेंगे. इसके साथ ही हम देश के नौजवानों को ये भी बताएंगे कि वो भगत सिंह से क्या सीख सकते हैं और भगत सिंह के लिए अटूट प्रेम का अर्थ क्या था. यानी आज का हमारा ये विश्लेषण पूरी तरह भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को समर्पित है.
इंकलाब की धुरी पर आज़ाद भारत की नींव डालने वाले भगत सिंह के विचार आज भी ऊर्जा से भरे हुए हैं. भारत की आज़ादी के लिए उन्होंने सिर्फ़ 23 साल की उम्र में शहादत दे दी थी. सोचिए उस समय भगत सिंह सिर्फ 23 साल के थे, लेकिन उनके जीवित रहने की शर्तें और सिद्धांत बिल्कुल अलग थे. एक चिट्ठी में उन्होंने लिखा था कि
'मैं आज एक ही शर्त पर जिंदा रह सकता हूं. अब मैं क़ैद होकर या पाबंद होकर जीना नहीं चाहता. मेरा नाम हिन्दुस्तान की क्रांति का प्रतीक बन चुका है. क्रांतिकारी दल के आदर्शों और कुर्बानियों ने मुझे बहुत ऊंचा उठा दिया है. इतना ऊंचा कि जीवित रहने की स्थिति में इससे ऊंचा मैं हरगिज नहीं हो सकता.'
शायद आपको पता नहीं होगा कि भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को पहले फांसी देने की तारीख 24 मार्च तय की गई थी. लेकिन ये वो दौर था, जब अंग्रेज़ी हुकूमत भगत सिंह के विचारों से कांप रही थी. लेकिन भगत सिंह के चेहरे पर साहस झलक रहा था और वो हंस रहे थे. जब उनके पास फांसी के लिए तैयार होने की सूचना पहुंची तब भी इन क्रांतिकारियों के चेहरे पर कोई शिकन नहीं थी. लाहौर जेल का कोना-कोना इंकलाब ज़िंदाबाद के नारों से गूंज रहा था.
भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु के हाव-भाव देखकर लग रहा था जैसे इन्हें इसी शुभ मुहूर्त का इंतज़ार था और भगत सिंह ने अपनी एक चिट्ठी में इसका ज़िक्र भी किया था. उन्होंने लिखा था कि
'मेरे मन में कभी कोई लालच फांसी से बचे रहने का नहीं आया. मुझसे अधिक भाग्यशाली कौन होगा. आज कल मुझे स्वयं पर बहुत गर्व है. मुझे अब पूरी बेताबी से अंतिम परीक्षा का इंतज़ार है. कामना है कि ये और जल्दी आ जाए.'
भगत सिंह द्वारा लिखी गई ये बातें आज भी करोड़ों लोगों की संवेदनाओं को छू लेती हैं. सोचिए, वो फांसी के फंदे से कुछ ही दूर थे. उनकी शहादत का समय था, लेकिन वो हंस रहे थे और इसलिए हंस रहे थे क्योंकि, वो जानते थे कि उनकी शहादत स्वतंत्रता के अंकुर बनकर इस धरती पर फूटेगी. उन्हें लाहौर सेंट्रल जेल में फांसी दी गई थी, लेकिन फांसी से पहले पूरी जेल इंकलाब जिंदाबाद के नारों से महक रही थी.
उस समय अचानक कैदियों से कहा गया था कि वो अपनी-अपनी सेल में यानी कोठरी में चले जाएं. जल्द ही जेल में ये खबर फैल गई कि भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को आज ही फांसी होने वाली है. कहते हैं कि इसके बाद जेल में सिर्फ तीन लोग खुश थे और वो थे- भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव क्योंकि, तीनों देश के लिए सर्वोच्च बलिदान देने वाले थे. उन तीनों के अलावा जेल के बाकी कैदियों में शोक और सन्नाटा फैल गया. कैदियों में अपने क्रांतिकारियों को एक बार देख लेने की और निशानी के तौर पर उनकी इस्तेमाल की वस्तु को पाने की होड़ लग गई. इस तरह से भगत सिंह का पेन, उनकी कंघी, उनकी घड़ी शहादत के प्रतीक चिह्न बन गए.
भारत के ये तीन बेटे हंसते-हंसते फांसी के तख्ते पर चढ़ गए. देशप्रेम के गीत गाते हुए भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु ने मृत्यु का स्वागत किया था और अपनी शहादत को क्रांति की आग बना दिया था.
हालांकि उन्हें फांसी देने में जेल के कर्मचारी और अधिकारियों के भी हाथ कांप रहे थे. फांसी से पहले तीनों को नहलाया भी गया था और फिर उन्हें नए कपड़े पहनाकर जल्लाद के सामने लाया गया थ. यहां एक महत्वपूर्ण बात ये है कि इसके बाद जब भगत सिंह का वजन नापा गया तो उनका वजन काफी बढ़ा हुआ था. कहते हैं कि फांसी की सजा के ऐलान के बाद भगत सिंह का वजन बढ़ गया था.
उस समय भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव पूरे भारत के आदर्श पुरुष बन चुके थे. युवाओं की टोलियां देशभर की गली-गली में वंदेमातरम् के नारे लगा रही थीं. आंदोलन की आग को देखकर अंग्रेज़ अधिकारियों के पसीने छूट रहे थे. उनकी मांग की जा रही थी और अंग्रेज़ों को भी विद्रोह का डर सता रहा था. यही वजह है कि तय तारीख़ से एक दिन पहले ही तीनों को फांसी की सज़ा दे दी गई.
आज बहुत से लोगों को ये पता नहीं होगा कि भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को किस मामले में फांसी दी गई थी? तो आज हम आपको इसके बारे में भी विस्तार से बताना चाहते हैं.
ये बात वर्ष 1928 की है. जब 30 अक्टूबर को साइमन कमीशन यानी 7 अंग्रेज़ों का एक दल लाहौर पहुंचा था. इस कमीशन की स्थापना वर्ष 1927 में हुई थी, जिसका मकसद था भारत में संविधान सुधारों पर काम करना और ब्रिटिश शासन की शक्तियों में परिवर्तन कर इन्हें और मज़बूत बनाना.
जब 30 अक्टूबर को कमीशन के सभी सदस्य लाहौर पहुंचे तो उनका विरोध हुआ. विरोध की एक बड़ी वजह ये थी कि इस कमीशन में एक भी भारतीय को शामिल नहीं किया गया था जबकि संविधान सुधार भारत की व्यवस्था को लेकर थे. ऐसे में लाला लाजपत राय ने क्रांतिकारी दल का नेतृत्व किया और इस कमीशन के खिलाफ सड़कों पर उतर आए. अंग्रेज़ इस विद्रोह से इस कदर घबरा गए थे कि उन्होंने दमन करना शुरू कर दिया.
तब जेम्स ए स्कॉट लाहौर का सुपरिटेंडेंट ऑफ पुलिस था और उसने लाला लाजपत राय और दूसरे प्रदर्शनकारियों पर लाठीचार्ज के आदेश दे दिए. इस दौरान लाला लाजपत राय पर भी निर्ममता से लाठियां बरसाई गईं और वो बुरी तरह घायल हो गए. इस क्रूर लाठीचार्ज के 18 दिन बाद 17 नवम्बर 1928 को लाला लाजपत राय की मौत हो गई और उनकी इस मौत ने क्रांतिकारियों को रोष से भर दिया. इसके बाद ये तय हुआ कि उनकी मौत का बदला लिया जाएगा.
भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरु और चंद्रशेखर आजाद समेत कई क्रांतिकारियों ने मिलकर जेम्स स्कॉट की हत्या कर बदला लेने की योजना बनाई थी और इसके लिए ठीक एक महीने बाद 17 दिसंबर की तारीख चुनी गई. तय हुआ था कि जेम्स स्कॉट की गोलियों से भून कर हत्या की जाएगी, लेकिन क्रांतिकारियों के गलत निशाने से सबकुछ बदल गया.
गोलियां भगत सिंह और राजगुरु ने चलाई थीं, लेकिन इनका निशाना जेम्स स्कॉट की जगह जॉन सॉन्डर्स बना, जो लाहौर का एएसपी था और उसकी मौत हो गई. हालांकि यहां ये भी कहा जाता है कि भगत सिंह और राजगुरु ने जॉन सॉन्डर्स पर ही गोली चलाई थी क्योंकि, वो भी लाला लाजपत राय पर हुए क्रूर लाठीचार्ज का हिस्सा था.
1928 की इस घटना में भगत सिंह और राजगुरु पकड़े नहीं गए थे और इस मामले की जांच चल रही थी. हालांकि इस जांच के बीच में ही क्रांतिकारियों ने सेंट्रल असेंबली में बम फेंकने की योजना बना. ये बात 8 अप्रैल 1929 की है. उस दिन क्रांतिकारी भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने सेंट्रल असेंबली, जो आज संसद भवन है. वहां बम फेंक कर धमाका किया. ये विस्फोट उस समय अंग्रेज़ों के लाए गए नए क़ानून के विरोध में था, जिसके तहत ब्रिटिश सरकार बिना सबूतों के भी लोगों को गिरफ़्तार कर उन्हें जेलों में रख सकती थी.
इस धमाके का एक और उद्देश्य था और वो था, अंग्रेज़ों की गूंगी-बहरी सरकार को जगाना. उस समय क्रांतिकारियों ने तय किया था कि पहले वो सेंट्रल एसेंबली में बम धमाके करेंगे, जिसमें किसी को नुकसान नहीं पहुंचाया जाएगा. फिर भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त अपनी गिरफ़्तारी देंगे और बाद में अदालत को मंच बनाकर आज़ादी के सूत्र वाक्य का प्रचार प्रसार पूरे देश में किया जाएगा.
जैसा सोचा गया था, वैसा हुआ भी. भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त इस बम धमाके के बाद गिरफ़्तार हो गए और दोनों को दिल्ली के अलग अलग पुलिस थानों में रख गया ताकि उनसे पूछताछ हो सके. हमारे पास भगत सिंह के ख़िलाफ़ इस मामले में हुई FIR की एक कॉपी भी है.
सेंट्रल असेंबली में बम धमाके के दौरान भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने पर्चे भी फेंके थे, जिन पर लिखा था कि बहरे कानों को सुनाने के लिए धमाकों की जरूरत पड़ती है. भगत सिंह की गिरफ़्तारी इसी मामले में हुई थी, लेकिन बाद में जब इन पर्चों की जांच शुरू हुई तो ब्रिटिश सरकार को पता चला कि जॉन सॉन्डर्स की हत्या में भी भगत सिंह शामिल थे और इस मामले में उनके ख़िलाफ़ अलग से मुकदमा चला.
इसे लाहौर षड्यंत्र केस भी कहा जाता है, जो उस समय काफी चर्चित हुआ था. ये मुकदमा 5 मई 1930 को शुरू हुआ और 11 सितंबर 1930 तक चला और आख़िर में 17 अक्टूबर 1930 को अदालत ने भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु की फांसी का फैसला सुना दिया.
हालांकि सेंट्रल असेंबली में बम धमाके के बाद जब भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त की गिरफ़्तारी हुई, तब उनकी तरफ से एक बयान भी जारी किया गया था. इसमें उन्होंने कहा था कि
'बहरों को सुनाने के लिए बहुत ऊंची आवाज़ की आवश्यकता होती है. हम विदेशी सरकार को ये बता देना चाहते हैं कि हम सार्वजनिक सुरक्षा और औद्योगिक विवाद के दमनकारी क़ानूनों और लाला लाजपत राय की हत्या के विरोध में देश की जनता की ओर से ये क़दम उठा रहे हैं. हम इंसान का खून बहाने की विवशता पर दुखी हैं, लेकिन क्रांति द्वारा सबको समान स्वतंत्रता देने और मनुष्य द्वारा मनुष्य के शोषण को समाप्त कर देने के लिए क्रांति में कुछ न कुछ रक्तपात जरूरी है. इंकलाब जिंदाबाद.'
भगत सिंह की इन बातों से साफ़ है कि वो बम और पिस्तौल के समर्थक नहीं थे और वो हिंसा का भी समर्थन नहीं करते थे. उनका मानना था कि जब शोषण बहुत बढ़ जाता है और क्रान्ति का सुर धीमा पड़ने लगता है तब बहरे कानों को सुनाने के लिए तेज़ धमाकों की ज़रूरत होती है.
हालांकि आज ये समझने का भी दिन है कि भगत सिंह के मुकदमे में कैसे ब्रिटिश सरकार ने नियमों का उल्लंघन किया गया था. भारत के तत्कालीन वायसराय लॉर्ड इरविन ने एक मई 1930 को भगत सिंह के मामले में जल्दी फैसले के लिए एक अध्यादेश पास किया था, जिसके तहत हाई कोर्ट के तीन जजों का एक स्पेशल ट्रिब्यूनल बनाया गया. इसका एकमात्र मकसद था भगत सिंह को जल्दी से जल्दी फांसी की सज़ा देना.
अहम बात ये है कि इन तीन जजों के फ़ैसले को भारत की ऊपरी अदालत में चुनौती नहीं दी जा सकती थी. अपील के लिए सिर्फ़ एक विकल्प दिया गया था, जो काफ़ी मुश्किल था. इसमें इंग्लैंड की Privy council में ही इस फ़ैसले को चुनौती देने की छूट थी. यानी ये विकल्प पूरी तरह दिखावटी था.
बड़ी बात ये है कि इन जजों के सामने 12 मई 1930 को भगत सिंह और उनके साथियों पर ब्रिटिश पुलिस ने अदालत के अंदर ही गंभीर हमला किया था, जिसमें क्रांतिकारी अजय घोष, कुंदन लाल और प्रेम दत्त अदालत में ही बेहोश हो गए थे. इसके बाद ही क्रांतिकारियों ने अदालत की कार्यवाही में हिस्सा लेने से मना कर दिया था.
नियमों का उल्लंघन सिर्फ़ यहीं तक सीमित नहीं था. जब भगत सिंह के ख़िलाफ़ हत्या का मुकदमा चलाया जा रहा था. तब उनके वकील राम कपूर ने अदालत से 457 गवाहों से सवाल पूछने की इजाज़त मांगी थी, लेकिन उन्हें सिर्फ़ पांच लोगों से ही सवाल पूछने की मंज़ूरी मिली. यानी भगत सिंह के ख़िलाफ़ एकतरफ़ा मुकदमा चलाया गया और ब्रिटिश सरकार ने न्याय के सिद्धांत का भी गला घोंट दिया. इस तरह 7 अक्टूबर 1930 को भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को फांसी की सज़ा सुना दी गई.
शहीद भगत सिंह एक क्रांतिकारी होने के साथ महान विचारक भी थे. जिसकी झलक उनकी लिखी कुछ चिट्ठियों में भी दिखती है. इनमें एक चिट्ठी उन्होंने 5 अप्रैल 1929 को अपने सहयोगी और स्वतंत्रता के नायक सुखदेव को लिखी थी. इस चिट्ठी में वो बताते हैं इंसानों के बीच कैसे प्रेम संबंध होने चाहिए.
वो लिखते हैं, जहां तक प्यार के नैतिक स्तर का संबंध है. मैं ये कह सकता हूं कि ये एक भावना से अधिक कुछ भी नहीं है. प्यार सदैव मानव चरित्र को ऊंचा करता है. कभी भी नीचा नहीं दिखाता. बस शर्त है कि प्यार, प्यार हो. वो ये भी लिखते हैं कि सच्चा प्यार कभी भी सृजित नहीं किया जा सकता. ये अपने ही आप आता है. कब? ये कोई नहीं कह सकता.
आज कल प्रेम के साथ लोगों में छल और कपट की भावना भी रहती है. हम प्यार तो करते हैं लेकिन लालच और फायदे की भावना से कभी उठ नहीं पाते और यही वजह है कि लोग प्रेम के लक्ष्यों को भी हासिल नहीं कर पाते. आपसी रिश्तों में कड़वाहट, परिवारों में झगड़ा, मनमुटाव और अपने देश के प्रति नाराज़गी का भाव इसे ही व्यक्त करता है और भगत सिंह के नज़रिए से ये प्रेम हो ही नहीं सकता.
भगत सिंह जब जेल में बंद थे, तब उन्होंने अपने छोटे भाई कुलतार सिंह को एक आख़िरी चिट्ठी भी लिखी थी, जिसमें उन्होंने उर्दू की नज़्म भी लिखी थी. इसकी आख़िरी पंक्तियां थीं-
ख़ुश रहो अहले वतन, अब हम तो सफ़र करते हैं..
भगत सिंह ने अपनी शहादत से एक दिन पहले 22 मार्च 1931 को भी एक चिट्ठी लिखी थी. इसमें उन्होंने लिखा था-
अगर मैं फांसी से बच गया तो क्रांति का प्रतीक चिन्ह मद्धिम पड़ जाएगा या संभवत: मिट ही जाएगा, लेकिन दिलेराना ढंग से हंसते-हंसते मेरे फांसी पर चढ़ने की सूरत में देश की माताएं, अपने बच्चों के भगत सिंह बनने की उम्मीद करेंगी और देश की आज़ादी के लिए कुर्बानी देने वालों की तादाद इतनी ज़्यादा हो जाएगी कि क्रांति को रोकना साम्राज्यवाद के बूते की बात नहीं रहेगी.
यानी अपनी शहादत से कुछ घंटे पहले तक भगत सिंह के मन में क्रांति की ज्वाला भड़क रही थी. जिसका उन्होंने करोड़ों लोगों के मन में संचार भी किया.
भगत सिंह ने अपने जूते साथी क्रांतिकारी जयदेव कपूर को दिए थे. इसके अलावा एक घड़ी भी उन्होंने सेंट्रल असेंबली में बम धमाका करने से पहले जयदेव कपूर को दी थी और इस घड़ी का भी काफी पुराना इतिहास है. सबसे पहले ये घड़ी ग़दर पार्टी के एक सदस्य ने फ़रवरी 1915 में खरीदी थी. इसके बाद रास बिहारी बोस ने ये घड़ी 'बंदी जीवन' के लेखक शचींद्र नाथ सान्याल को दे दी और सान्याल से ये घड़ी भगत सिंह को भेंट में मिली. 8 अप्रैल 1929 को भगत सिंह ने जब सेंट्रल असेंबली में बम धमाका किया. तब उन्होंने खाकी रंग की कमीज़ पहनी थी. इसके अलावा वो पेन की है जिससे उनकी फांसी की सज़ा लिखी गई थी. भगत सिंह ने अपनी बहन को भी एक आख़िरी चिट्ठी लिखी थी.
आज हम आपको शहीद भगत सिंह के पुश्तैनी गांव ले जाएंगे, जो पंजाब के नवांशहर में है. यहां से हमने एक ग्राउंड रिपोर्ट तैयार की है, जो आपको शहीद-ए-आज़म भगत सिंह के बारे में काफ़ी कुछ बताएगी.
भगत सिंह उस वक्त मात्र 12 साल के थे, जब उन्होंने जलियांवाला बाग कांड के दर्द को इस छोटी सी उम्र में देखा. दिल्ली से 344 किलोमीटर दूर पंजाब के नवांशहर में जिसका नाम अब बदलकर शहीद भगत सिंह नगर कर दिया गया है, हम भगत सिंह के पैतृक गांव खटकड़ कलां पहुंचे जहां एक म्यूजियम में शहीद भगत सिंह और उनके साथियों की निशानियां रखी हुई हैं. हमने यहां पर जब शहीद ए आज़म के भांजे प्रोफेसर जगमोहन सिंह से बात की तो उन्होंने उनके जुड़ी कई बातें बताईं.
शहीद भगत सिंह के परिवार द्वारा बनाया गया इस म्यूजियम में भगत सिंह से जुड़ी कई चीजें हैं. इसमें उनसे जुड़ी तस्वीरें जिसमें वो 15 साल की उम्र के दिख रहे हैं. यहां शहादत से पहले उनके साथियों की तस्वीरें हैं. इसके अलावा उनकी एक बहुत पुरानी और प्रसिद्ध तस्वीर हैं जिसमें वो एक चारपाई पर बैठे हैं और उस इलाके के डीएसपी उनसे बात कर रहे हैं.
म्यूजियम में हमने वो वारंट देखा जिसमें शहीद भगत सिंह की फांसी दिए जाने की जिक्र था. इस म्यूजियम में वो कलम भी रखी है जिसको सजा के ऐलान के बाद तोड़ा गया था. म्यूजियम में शहीद-ए-आजम के साथियों से जुड़े कुछ सामान भी रखे गए हैं ताकि हिंदुस्तान उन्हें कभी भुला न पाए. ये भारतीय इतिहास के वो सबूत हैं जिनका जिक्र अक्सर दबा दिया जाता है.
भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने जब नेशनल असेंबली में बम और पर्चे फेंककर इंकलाब के नारे लगाए थे तो बहुत से लोगों को ये बात अखरी थी. अहिंसावाद का नारा देने वालों ने इसे हिंसक कार्रवाई बताया था, लेकिन इतिहास जानता है कि तब जानबूझकर वो बम वहां फेंका गया जहां से किसी को चोट न पहुंचे. उस संदेश को लोगों को समझाने के लिए इस म्यूजियम में नेशनल असेंबली की नकल बनाई गई है.
इसी म्यूजियम के पास है शहीद भगत सिंह का पैतृक घर है, जहां हर गर्मी की छुट्टियों में भगत सिंह आया करते थे. शहीद भगत सिंह के भांजे जगमोहन सिंह बताते हैं कि भगत सिंह को आम बहुत पसंद थे इसलिए वो हर छुट्टियों में आम का मजा लेने के लिए यहां आया करते थे.
आज आपको ये भी समझना चाहिए कि भगत सिंह कैसे भारत का सपना देखते थे. इसे आप कुछ पॉइंट्स में समझिए
पहली बात भगत सिंह ने मार्च 1926 में नौजवान भारत सभा की स्थापना की थी. 1928 में उन्होंने Hindustan Republican Association का नाम बदल कर Hindustan Socialist Republican Association कर दिया था। इन संगठनों के नाम से ही आप ये समझ सकते हैं कि भगत सिंह के विचारों में सिर्फ़ आज़ाद भारत के लिए ही जगह थी.
दूसरी बात भगत सिंह ऐसे भारत का सपना देखते थे, जहां हम अपनी धार्मिक पहचान की बजाय अपनी भारतीय पहचान को महत्व दें.
तीसरी बात ये कि वो ऐसा भारत चाहते थे जहां धर्म से ज़्यादा नागरिकों के स्वतंत्र अधिकारों की बात हो.
चौथी बात ये कि वो आज़ादी को राजनीतिक बंधनों तक सीमित नहीं मानते थे, बल्कि उनका मानना था कि आर्थिक और सामाजिक आज़ादी भी उतनी ही महत्वपूर्ण है.
पांचवीं बात ये कि वो ऐसे भारत का सपना देखते थे, जो शोषण, अन्याय, असमानता, अंधविश्वास और अज्ञानता से मुक़्त हो.
और आख़िरी बात ये कि भगत सिंह ऐसे भारत की कल्पना करते थे, जहां लोगों के बीत आपसी भाईचार हो, वो साम्प्रदायिक दंगों की मानसिकता को लेकर हमेशा से चिंतित रहते थे.
तो ये वो बातें हैं, जिनसे पता चलता है कि भगत सिंह असल में कैसे भारत का सपना देखते थे. हमें लगता है कि भारत 15 अगस्त 1947 को आज़ाद तो हो गया लेकिन उन्होंने जिस भारत का सपना देखा था, वैसा हमारा देश आज भी बनने के लिए संघर्ष कर रहा है.
अब हम आपको जल्दी से शहीद भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु से जुड़े रोचक तथ्य बताते हैं..
-जब 13 अप्रैल 1919 को जलियांवाला बाग हत्याकांड हुआ था, तब शहीद भगत सिंह की उम्र सिर्फ़ 12 साल थी और तब वो अपना स्कूल छोड़ कर जलियांवाला बाग पहुंच गए थे. यहां से वो कुछ मिट्टी उठा कर अपने घर ले गए थे जिसमें मारे गए लोगों का ख़ून भी था.
-भगत सिंह के माता पिता उनकी शादी कराना चाहते थे तो वो अपना घर छोड़ कर उत्तर प्रदेश के कानपुर चले गए थे और तब उन्होंने अपने माता पिता से कहा था कि अगर मैं गुलाम भारत में शादी करूंगा तो मेरी दुल्हन मेरी मौत होगी.
-फांसी की सज़ा से पहले उन्होंने पंजाब के तत्कालीन राज्यपाल को एक चिट्ठी लिखी थी, जिसमें उन्होंने ब्रिटिश सरकार से कहा था कि उन्हें फांसी देने की बजाय उन्हें गोली मार दी जाए.
-भगत सिंह ने सुखदेव और राजगुरु के साथ जेल में 116 दिनों की हड़ताल की थी और इस हड़ताल ने ब्रिटिश सरकार की जड़ों को हिला कर रख दिया था.
-भारत की आजादी के लिए भगत सिंह ने ही इंकलाब जिंदाबाद का नारा दिया था.
-शहीद भगत सिंह की उम्र जब सिर्फ 8 वर्ष थी, तभी से वो ब्रिटिश सरकार को भारत से भगाने की बातें करने लगे थे.
-यही नहीं सिर्फ 23 वर्ष की उम्र में उन्होंने फांसी के फंदे को आजादी का आभूषण समझ कर अपने गले में डाल लिया था.
-बहुत कम लोग जानते हैं कि क्रांतिकारी सुखदेव थापर ने ही भगत सिंह को सेंट्रल असेंबली में बम फेंकने के लिए मनाया था. सुखदेव ने तब भगत सिंह से कहा था कि वो इस काम के लिए बिल्कुल सही व्यक्ति हैं.
-इसके अलावा शहीद राजगुरु सिर्फ 16 साल की उम्र में Hindustan Socialist Republican Association में शामिल हो गए थे.
-राजगुरु जब 6 साल के थे. तभी उनके पिता की मौत हो गई थी.