#NetajiVsNehruji: सुभाष चंद्र बोस के विचार इतने शक्तिशाली थे कि कांग्रेस में ही उनके शत्रु पैदा होने लगे और आपको जानकर आश्चर्य होगा कि महात्मा गांधी ने भी बोस के विचारों से खुद को अलग कर लिया था और कहा था कि बोस के विचार अहिंसक नहीं हैं.
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नई दिल्ली: आज नेताजी सुभाष चंद्र बोस की 125वीं जयंती (Netaji Subhash Chandra Bose Jayanti) है. आपने उनके बारे में कई किताबें पढ़ी होंगी और कई किस्से भी सुने होंगे. इतिहास के पन्नों को पलट कर उन्हें करीब से जानने की कोशिश की होगी. लेकिन आज हम आपको उनके बारे में कुछ ऐसा बताने वाले हैं, जिसे बताने में हमारे देश के डिजाइनर इतिहासकारों और बुद्धीजीवियों ने हमेशा से कंजूसी की है. लेकिन हम ऐसा नहीं करेंगे. नेताजी सुभाष चंद्र बोस पर आज हम एक ऐसा विश्लेषण आपके लिए लाए हैं, जो अभूतपूर्व है और जो पूरी तरह आजादी के नायक सुभाष चंद्र बोस को समर्पित है. आप हमारी इस मुहिम का समर्थन करने के लिए #NetajiVsNehruji पर Tweet कर सकते हैं.
भारत को वर्ष 1947 में अंग्रेजों से आजादी मिल गई थी और बोस इस आजादी से ठीक दो साल पहले रहस्यमय तरीके से लापता हो गए थे. लेकिन सोचिए अगर ऐसा नहीं हुआ होता तो भारतीय राजनीति का स्वरूप कैसा होता और अगर पंडित जवाहर लाल नेहरू की जगह नेताजी सुभाष चंद्र बोस आजाद भारत के पहले प्रधानमंत्री होते तो आज हमारा देश कैसा होता? आज इस विचार का दर्शन कराने के लिए हम इतिहास के उन पन्नों को पलटेंगे, जिन पर धूल जम चुकी है.
साथ ही आज हम आपको ये भी बताएंगे कि कैसे महात्मा गांधी और पंडित जवाहर लाल नेहरू के गठजोड़ ने भारत की आजादी में नेताजी के महत्व को कमजोर करने का काम किया. हम इस विषय पर पिछले कुछ दिनों से रिसर्च कर रहे थे और इस दौरान हमें कुछ ऐसा मिला जिससे हम अपने इस विश्लेषण की शुरुआत करना चाहते हैं.
ये किस्सा वर्ष 1956 का है. जब भारत को आजादी मिले 9 वर्ष हुए थे. उस समय ब्रिटेन के पूर्व प्रधानमंत्री लॉर्ड क्लीमेंट एटली कलकत्ता आए थे. जहां उन्होंने पश्चिम बंगाल के उस समय के गर्वनर पीबी चक्रवर्ती से मुलाकात की थी.
पीबी चक्रवर्ती ने तब एटली से पूछा था कि जब 1942 में अंग्रेजों के खिलाफ भारत छोड़ो आंदोलन शुरू हुआ और 1944 में बिना परिणाम के खत्म हो गया, तो अंग्रेज भारत छोड़ने के लिए तैयार क्यों हो गए ?
इस सवाल पर एटली ने कहा था कि इसके पीछे सुभाष चंद्र बोस और उनकी आजाद हिंद फौज थी, जिसने अंग्रेजों को भारत छोड़ने के लिए मजबूर किया. इस पर पीबी चक्रवर्ती ने एक और सवाल पूछा, तो फिर भारत की आजादी में महात्मा गांधी की क्या भूमिका थी. इसके जवाब में एटली ने कहा था कि महात्मा गांधी का भारत की आजादी में योगदान बहुत कम था.
ये किस्सा बताता है कि उस समय की भारतीय राजनीति में सुभाष चंद्र बोस के प्रयासों को कमजोर किया गया और उनके महत्व को कम करके दिखाया गया, जिससे उन्हें वो पहचान नहीं मिली, जिसके वो हकदार थे.
लेकिन अगर ऐसा नहीं होता और सुभाष चंद्र बोस भारत की आजादी से 727 दिन पहले 1945 में रहस्यमय तरीके से लापता नहीं हुए होते तो भारत की राजनीति बिल्कुल अलग होती और ये कहना गलत नहीं होगा कि सुभाष चंद्र बोस आजाद भारत के पहले प्रधानमंत्री भी हो सकते थे.
अब हम आपको 83 साल पीछे ले जाना चाहते हैं, जब भारत अंग्रेजों का शासन था और वर्ष था 1938.
उस समय बोस को सर्वसम्मति से कांग्रेस का अध्यक्ष चुना गया था. उनसे पहले जवाहर लाल नेहरू भी ये जिम्मेदारी संभाल चुके थे. तब कांग्रेस के कई बड़े नेता थे जो आजादी के लिए संघर्ष कर रहे थे और कांग्रेस इस पूरे आंदोलन का चेहरा थी. इनमें महात्मा गांधी, सुभाष चंद्र बोस, डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद, जवाहर लाल नेहरु और सरदार वल्लभ भाई पटेल प्रमुख थे.
कांग्रेस अध्यक्ष रहते हुए अपने एक साल के कार्यकाल में सुभाष चंद्र बोस ने आजाद भारत का एक ऐसा वृक्ष खड़ा किया, जिसकी पांच शाखाएं थीं. पहला संगठन का स्वरूप, दूसरा आक्रामक आंदोलन का विचार, तीसरा आजादी के लिए संघर्ष, चौथा अंग्रेजों के खिलाफ रणनीति और 5वां था दूसरे विश्व युद्ध का फायदा उठा कर आजादी हासिल करना.
बोस के विचार इतने शक्तिशाली थे कि कांग्रेस में ही उनके शत्रु पैदा होने लगे और आपको जानकर आश्चर्य होगा कि महात्मा गांधी ने भी बोस के विचारों से खुद को अलग कर लिया था और कहा था कि बोस के विचार अहिंसक नहीं हैं और इसी का नतीजा है कि 1939 में जब बोस ने कांग्रेस का फिर से अध्यक्ष बनने के लिए अपनी दावेदारी पेश की तो उनके खिलाफ महात्मा गांधी और जवाहर लाल नेहरू का ऐसा गठजोड़ बना जिसने धीरे धीरे बोस के महत्व की जड़ों को कमजोर करने का काम शुरू किया.
तब बोस का कहना था कि कांग्रेस अध्यक्ष पद का चुनाव, विभिन्न उम्मीदवारों द्वारा विभिन्न समस्याओं और कार्यक्रमों पर लड़ा जाना चाहिए. लेकिन बोस की इस बात को नकार दिया गया और 24 जनवरी 1939 को डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद, सरदार पटेल और जेबी कृपलानी ने इसके खिलाफ अपना मत जाहिर किया और महात्मा गांधी का साथ दिया.
उस समय इस गठजोड़ ने बोस के खिलाफ पट्टाभि सीतारमय्या को अपना उम्मीदवार घोषित कर दिया लेकिन यहां अहम बात ये है कि महात्मा गांधी के विरोध के बावजूद बोस ये चुनाव जीत गए और पट्टाभि सीतारमय्या की हार हुई और यहीं से कांग्रेस में सुभाष चंद्र बोस के महत्व को कम करने के लिए राजनीति शुरू हो गई. जिसमें एक तरफ बोस अकेले खड़े थे और दूसरी तरफ महात्मा गांधी और जवाहर लाल नेहरू का गठजोड़ था.
इस गठजोड़ से लड़कर बोस चुनाव तो जीत गए लेकिन कांग्रेस नेताओं और संस्थाओं का उन्हें सहयोग मिलना बंद हो गया. जिसकी वजह से बाद में उन्हें इस्तीफा भी देना पड़ा और तब उन्होंने फॉरवर्ड नामक एक पार्टी भी बनाई थी. इस पार्टी का मकसद कांग्रेस से अलग देश की आजादी के लिए संघर्ष करना था.
कांग्रेस को लेकर सुभाष चंद्र क्या सोचते थे. आज आपको ये भी समझना चाहिए. बोस ने एक बार कहा था कि कांग्रेस दक्षिणपंथी विचारों की एक पार्टी है जिसने अंग्रेजों से सत्ता के लिए समझौता कर लिया है और संभावित मंत्रियों की सूची भी तैयार कर ली. यानी बोस का मानना था कि उस समय कांग्रेस की राष्ट्रीय इकाई में कई बड़े नेता ऐसे थे जिनका सरोकार आजादी से नहीं, सिर्फ सत्ता के लालच से था.
कहते हैं कि तूफान भी डगमगा जाता है जब उसका सामना समुद्र की लहरों से होता है. बोस समुद्र की इन्हीं लहरों की तरह थे. वह आजादी के किनारे को छूना चाहते थे. लेकिन भारतीय राजनीति में उनके महत्व को दबा दिया गया.
अपनी हिम्मत, साहस और दूरदृष्टि की वजह से ही नेताजी सुभाष चंद्र बोस आजादी के अपने लक्ष्य से भटके नहीं. लेकिन कई बार ऐसा हुआ जब महात्मा गांधी और नेहरू के गठजोड़ ने उनके विचारों को वो सम्मान नहीं दिया. जिसकी उन्हें उम्मीद थी. इसे आप सिर्फ तीन पॉइंट्स में समझिए-
सुभाष चंद्र बोस का मानना था कि 1939 में जब दूसरा विश्व युद्ध शुरू हुआ तब अंग्रेजों की भारत पर पकड़ कमजोर होने लगी थी और बोस उस समय अंग्रेजों के खिलाफ बड़ा आंदोलन करना चाहते थे. लेकिन बोस के इस विचार का महात्मा गांधी और नेहरू ने समर्थन नहीं किया और इसे खारिज कर दिया गया. लेकिन 3 साल बाद ये गठजोड़ इसी विचार से प्रभावित होकर काम करने लगा और गांधीजी ने तब करो और मरो का नारा भी दिया. यानी जब बोस कह रहे थे तो उनकी बात नहीं मानी और बाद में उनके ही विचारों को अपनाना पड़ा.
इसी तरह सुभाष चंद्र बोस का कहना था कि आजादी के लिए सही समय का इंतजार करना गलत रणनीति होगी. लेकिन गांधीजी ने उनकी बात नहीं मानी और ये कहा कि इसके लिए कांग्रेस में संगठन को मजबूत करना होगा और लोगों को ट्रेनिंग देनी होगी. महात्मा गांधी ने बोस के इस विचार को भी नकार कर दिया लेकिन वर्ष 1942 में वो इसके लिए तैयार हो गए और तब भारत छोड़ो आंदोलन उन्होंने शुरू किया और सबसे अहम इसके लिए बोस को कोई श्रेय नहीं दिया गया. जबकि कहा जाता है कि ये विचार उन्हीं का था.
वर्ष 1939 में सुभाष चंद्र बोस भारत की आज़ादी के लिए बड़ा आंदोलन शुरू करना चाहते थे, लेकिन तब गांधीजी ने कहा कि इससे देश में दंगे हो जाएंगे और ये रणनीति सही नहीं हो सकती. हालांकि वर्ष 1942 में जब अंग्रेजों के खिलाफ भारत छोड़ो आंदोलन शुरू हुआ, तो इसमें किसी तरह के दंगे नहीं भड़के. इससे ये पता चलता है कि गांधीजी ने जो वर्ष 1942 में किया, उसके लिए बोस वर्ष 1939 में ही कह चुके थे.
इन उदाहरणों से ये साबित होता है कि सुभाष चंद्र बोस उस समय भारत की परिस्थितियों को महात्मा गांधी और नेहरू से बेहतर समझ रहे थे और शायद इसी वजह से उनके खिलाफ उस समय एक गठजोड़ बनकर उभरा था. योग्य होने के बावजूद सुभाष चंद्र बोस से उनका श्रेय छीन लिया गया.
आज हम यहां एक सवाल और पूछना चाहते हैं कि जब 21 अक्टूबर 1943 में आजादी से पहले सिंगापुर में नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने भारतीय सरकार की स्थापना कर ली थी तो उस समय भारत में इसे नकार क्यों दिया गया? उस समय 11 देशों ने नेताजी की इस शपथ को अपनी सहमति दी थी, जिनमें जापान, थाईलैंड, चीन , म्यानमार Burma, इटली, जर्मनी और फिलिपींस प्रमुख थे.
30 दिसम्बर 1943 में बोस ने अंडमान निकोबार में झंडा लहराते हुए ये कहा था कि आज से ये द्वीप ब्रिटिश राज से आजाद है. लेकिन बोस की इन उपलब्धियों को भारत में चर्चा का विषय ही नहीं माना गया. यहां एक समझने वाली बात ये भी है कि इन घटनाओं के बाद देश के लोगों ने नेताजी को अपना प्रधानमंत्री मान लिया था. यानी आप कह सकते हैं कि वो देश के पहले Natural Prime Minister थे. लेकिन बाद में उनके रहस्यमय तरीके से लापता होने के बाद उनकी ये उपलब्धियां देश के इतिहास से गायब कर दी गईं. इसलिए हम चाहते हैं कि आज इस गलती को अन डू किया जाए और बोस को उनका वो सम्मान मिले, जिसके वो हकदार थे.
आज ये समझने का भी दिन है कि आजादी से पहले नेताजी सुभाष चंद्र बोस भारत के लोगों के बीच कितने लोकप्रिय थे. इस पर हमने बहुत कीमती जानकारियां इकट्ठा की हैं, जिन्हें आप चाहें तो नोट भी कर सकते हैं.
18 अगस्त 1945 को ये दावा किया गया था कि ताईवान जाते समय सुभाष चंद्र बोस का विमान दुर्घटना का शिकार हो गया. हालांकि इस दावे को कई बार चुनौती भी दी गई और बोस की मृत्यु पर आज भी रहस्य बना हुआ है. लेकिन जब उनकी मृत्यु का दावा किया गया उससे पहले जून 1945 में भारत में एक राष्ट्रीय लहर चल रही थी. उस समय आजाद हिंद फौज के खिलाफ देश के कई हिस्सों में मुकदमे दर्ज किए जा रहे थे. लेकिन तब इसके खिलाफ एक ऐसा आंदोलन शुरू हुआ, जो भारत छोड़ो आंदोलन से भी बड़ा और प्रभावी था. उस समय आजाद हिंद फौज की मदद के लिए नगर पालिकाओं, प्रवासी भारतीयों, गुरुद्वारा समितियों, कैंब्रिज मजलिस, बंबई और कलकत्ता के फिल्मी सितारों और कई तांगेवालों ने भी पैसे भेजे थे और संयुक्त पंजाब के बहुत से शहरों में उस साल दीवाली का त्योहार भी नहीं मनाया गया था.
यही वजह है कि उस समय अंग्रेजों ने ये स्वीकार किया था कि शायद ही कोई और मुद्दा हो जिसमें भारत के लोगों ने इतनी दिलचस्पी दिखाई और ये कहना गलत नहीं होगा कि जिसे इतनी व्यापक सहानुभूति मिली. इससे पता चलता है कि आजादी से पहले सुभाष चंद्र बोस भारत के लोगों के बीच नेहरू से भी ज्यादा लोकप्रिय थे और महात्मा गांधी भी ये बात अच्छी तरह जानते थे. शायद इसीलिए जब वो रहस्यमय तरीके से लापता हुए तो भारतीय राजनीति में उनके महत्व को कम करके दिखाने की एक कोशिश शुरू हुई.