एक गढ़वाली, चीन के 100 सैनिकों पर भारी; REGIMENT में आज गढ़वाल राइफल्स की बारी
Advertisement
trendingNow1654312

एक गढ़वाली, चीन के 100 सैनिकों पर भारी; REGIMENT में आज गढ़वाल राइफल्स की बारी

सैनिक सेवा की ये परंपरा सदियों पुरानी है. गढ़वाल को कभी मुगल हरा नहीं पाए और हर बार उन्हें नुकसान उठाकर वापस लौटना पड़ा. अंग्रेज़ों ने शुरुआत में गढ़वाली नौजवानों को गोरखा राइफल्स में भर्ती करना शुरू किया लेकिन सन 1887 में फील्ड मार्शल सर एफ एस राबर्ट्स ने गढ़वालियों की वीरता से प्रभावित होकर उनकी अलग रेजिमेंट बनाई. 

एक गढ़वाली, चीन के 100 सैनिकों पर भारी; REGIMENT में आज गढ़वाल राइफल्स की बारी

नई दिल्ली: हिमालय की खूबसूरत पहाड़ियों से घिरी ये छोटी सी जगह दूसरे किसी हिलस्टेशन जैसी ही लगती है लेकिन ये जगह अलग है. ये भारतीय सेना की सबसे ज्यादा वीरता पुरस्कार पाने वाली रेजीमेंट का घर है. गढ़वाल राइफल्स को भारतीय सेना की सबसे सीमित इलाके से बनने वाली रेजिमेंट भी कहा जाता है क्योंकि इसमें गढ़वाल के केवल सात जिलों से आने वाले नौजवानों की भर्ती होती है इस रेजिमेंट ने अंग्रेजों को अपना इतना मुरीद बना लिया था कि पहले विश्वयुद्ध में इस रेजिमेंट के नायक दरबान सिंह नेगी को विक्टोरिया क्रॉस देने के लिए बर्तानिया के सम्राट को फ्रांस में मैदाने जंग में आना पड़ा था इस रेजिमेंट ने 1962 की निराशाजनक हार के दौरान भी चीनी सेना को रोककर हजारों सैनिकों को पीछे हटने का समय दिया था. इस लड़ाई में केवल तीन गढ़वाली सैनिकों ने 300 चीनी सैनिकों को मार डाला था. स्वभाव से धार्मिक इस रेजिमेंट के सैनिक सही और गलत का अंतर इतना साफ समझते हैं कि उन्होंने 1930 में पेशावर में निहत्थे अहिंसक प्रदर्शनकारियों पर गोलियां चलाने से भी मना कर दिया था. 

सैनिक सेवा की ये परंपरा सदियों पुरानी है. गढ़वाल को कभी मुगल हरा नहीं पाए और हर बार उन्हें नुकसान उठाकर वापस लौटना पड़ा. अंग्रेज़ों ने शुरुआत में गढ़वाली नौजवानों को गोरखा राइफल्स में भर्ती करना शुरू किया लेकिन सन 1887 में फील्ड मार्शल सर एफ एस राबर्ट्स ने गढ़वालियों की वीरता से प्रभावित होकर उनकी अलग रेजिमेंट बनाई. पहले विश्वयुद्ध में गढ़वाल राइफल्स ने दो विक्टोरिया क्रॉस जीते, 721 गढ़वाली सैनिकों ने फ्रांस की ज़मीन पर ब्रिटिश हुकूमत के लिए बलिदान दिया. अंग्रेज गढ़वालियों के मुरीद थे लेकिन धार्मिक स्वभाव के गढ़वाली अंग्रेज़ों का गलत हुक्म मानने से इंकार भी किया और ये घटना अनोखी थी. पेशावर के किस्सा ख्वानी बाजार में 23 अप्रैल 1930 को सीमांत गांधी यानि खान अब्दुल गफ्फार खान के नेतृत्व में सत्याग्रहियों पर अंग्रेज़ों ने फायरिंग शुरू कर दी.

सैकड़ों निहत्थे सत्याग्रही मारे गए लेकिन जब अंग्रेज अफसरों ने गढ़वाल राइफल्स को इस हत्याकांड में शामिल होने का आदेश दिया तो उन्होंने इनकार कर दिया. अंग्रेजों ने कुल 67 गढ़वालियों का कोर्ट मार्शल किया और लंबी सज़ाएं दीं. इनमें चंद्र सिंह गढ़वाली भी थे. इस घटना ने पूरे देश में तूफ़ान खड़ा कर दिया, एक अंग्रेज़ अफसर ने लिखा था, "शायद ही किसी भारतीय रेजिमेंट ने विश्वयुद्ध में इतना नाम कमाया जितना गढ़वाल राइफल्स ने और इस रेजिमेंट की हुक्महुदूली ने पूरे देश को हिला दिया है, कुछ के मन में डर है और कुछ के मन में जीत की खुशी.." चरित्र की ये दृढ़ता गढ़वाल राइफल्स के हर सैनिक में मिलती है. 

1962 में अरुणाचल प्रदेश में भारतीय सेना बहुत निराशाजनक हालत में थी. ट्रेंड, अच्छे हथियारों से लैस और बहुत बड़ी तादाद में अचानक आई चीनी सेना ने भारतीय सेना को बुरी तरह हराया और पीछे धकेल दिया. भारतीय सेना ने पीछे हटकर सेला में मोर्चाबंदी की लेकिन चीनी सेना तेज़ी से वहां तक पहुंच गई. सेला में मोर्चाबंदी कर बैठी भारतीय सेना से थोड़ा आगे नूरानांग में चौथी गढ़वाल राइफल्स तैनात थी. 17 नवंबर लांस नायक त्रिलोक सिंह नेगी और गोपाल सिंह गुसैन के साथ केवल 22 साल के राइफलमैन जसवंत ने चीनी सेना की मशीनगन पोस्ट पर हमला करके पांच चीनियों को मारकर हथियार पर कब्ज़ा कर लिया लेकिन इसमें लांस नायक त्रिलोक सिंह नेगी को वीरगति मिल गई. इसके बाद हुई घमासान लड़ाई में राइफलमैन जसवंत सिंह ने अकेले चीनी सेना के कई हमले नाकाम किए और 300 से ज्यादा चीनियों को मार गिराया. चीनी सैनिक जसवंत सिंह का सिर काटकर अपने साथ ले गए लेकिन उनके कमांडिंग अफसर ने इस बहादुरी से प्रभावित होकर सिर वापस सौंप दिया. राइफलमैन जसवंतसिंह को मरणोपरांत महावीर चक्र मिला और नूरानांग को तब से जसवंतगढ़ के नाम से जाना जाता है. जसवंत सिंह को मरणोपरांत भी रिटायर नहीं किया गया और उन्हें समय-समय पर प्रमोशन दिए जाते हैं. चीनियों ने युद्धबंदी बने गढ़वाली सैनिकों को ज्यादा कठोर बर्ताव का निशाना बनाया, ये गढ़वालियों के हाथों हुई हार की खीझ थी. चौथी गढ़वाल राइफल्स को बैटल ऑनर नूरानांग दिया गया जो उस युद्ध में अरुणाचल में भारतीय सेना को मिला इकलौता बैटल ऑनर था. 

1887 में गठन के समय इस रेजिमेंट ने कालूढाडा को अपना मुख्यालय बनाया जिसे 1890 में तत्कालीन वाइसरॉय के नाम पर लैंस़़डाउन कर दिया गया. लैंस डाउन में गढ़वाल रेजिमेंट सेंटर एक शानदार इतिहास की कई कहानियां समेटे हुए है. यहां की मेस में टंगी ट्रॉफियां उस समय की याद दिलाती हैं जब आसपास घने जंगल थे और वहां के खूंखार जानवरों से भिंडंत एक रोमांचक खेल. 

आपको ये जानकर ताज्जुब होगा कि ऐसी जगहों पर जहां गर्मियों में भी बर्फ जमी रहती है ये गढ़वाली सैनिक बिना किसी मकान या टैंट के रहने के लिए प्रशिक्षित हैं. अगर किसी सेटेलाइट या ड्रोन के ज़रिए इलाके पर नज़र रखी जाएगी तो इनका कोई निशान नहीं मिलेगा. यहां तक कि बाहर से देखने पर भी इनके छिपने और रहने के ठिकानों का पता नहीं चलता. और जब भी ज़रूरत पड़े ये जैसे पहाड़ों या ज़मीन को फाड़कर बाहर निकल आते हैं. इनका काम ही है खामोशी से दुश्मन पर नज़र रखना और अचानक हमले कर उसे चौंका देना. 

उत्तराखंड में हिंदुओं के चार सबसे पवित्र धामों में से एक बद्रीनाथ धाम भी है जिसमें हर हिंदू अटूट आस्था रखता है और गढ़वालियों के लिए तो और भी ज्यादा है. गढ़वाल राइफल्स का युद्धघोष भी बोलो बद्री विशाल लाल की जय ही है. हर गढ़वाली सैनिक स्वभाव से ही धर्म पर आस्था रखने वाला होता है. गढ़वाल राइफल्स की हर यूनिट में शाम की आरती एक ऐसा आयोजन है जिसमें समय मिलने पर हर गढ़वाली सैनिक ज़रूर जाता है. मुश्किल ड्युटी के समय इसी मंदिर परेड से उसे हौसला मिलता है.

Breaking News in Hindi और Latest News in Hindi सबसे पहले मिलेगी आपको सिर्फ Zee News Hindi पर. Hindi News और India News in Hindi के लिए जुड़े रहें हमारे साथ.

TAGS

Trending news