OPINION: 1954 के कुंभ मेले में भगदड़ से...2024 तक हाथरस में हादसे तक क्‍या बदला?
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OPINION: 1954 के कुंभ मेले में भगदड़ से...2024 तक हाथरस में हादसे तक क्‍या बदला?

Hathras Stampede: कुंभ मेले में भगदड़ से लेकर हाथरस में हादसे तक कुछ नहीं बदला है. ऐसे धार्मिक जलसे/आयोजन होते रहते हैं और नियमित अंतराल पर लचर प्रबंधन के कारण ऐसे हादसे होते रहते हैं. हम इतने वर्षों में एक सुव्‍यवस्थित क्राउड मैनेजमेंट सिस्‍टम विकसित नहीं कर सके हैं. 

OPINION: 1954 के कुंभ मेले में भगदड़ से...2024 तक हाथरस में हादसे तक क्‍या बदला?

1954 में आजाद भारत के पहले महाकुंभ का आयोजन प्रयागराज में हो रहा था. खूब सारा तामझाम था. भारत के तत्‍कालीन प्रधानमंत्री पंडित नेहरू प्रयाग के ही थे. कई बड़े नेताओं ने 40 दिन तक चलने वाले कुंभ में शिरकत की थी. आंकड़ों के मुताबिक उस दौरान करीब 50 लाख श्रद्धालु कुंभ में स्‍नान के लिए आए. इन तमाम बातों के होने और दुनियाभर की नजर होने के बावजूद मौनी अमावस्‍या (3 फरवरी, 1954) के दिन मौनी अमावस्‍या के दिन कुंभ मेले में भगदड़ मच गई. श्रद्धालुओं की अटूट संख्‍या, वीआईपी लोगों की उपस्थिति, अखाड़ों के स्‍नान इत्‍यादि के दौरान कब कहां के बैरियर टूट गए और भगदड़ मच गई किसी को पता नहीं चला. क्राउड मैनेजमेंट की सारी तैयारियां ध्‍वस्‍त हो गईं और सैकड़ों लोगों की दबने, दम घुटने से मौत हो गई.

घटना के बाद पंडित नेहरू ने कहा कि इस तरह के मेले/आयोजनों में नेताओं और वीआईपी लोगों को नहीं जाना चाहिए. उनका कहने का आशय ये था कि इनकी वजह से प्रशासन इनकी तीमारदारी में लग जाता है और कहीं न कहीं अनुशासन भंग होता है. उसके बाद जस्टिस कमलकांत वर्मा के नेतृत्‍व में एक ज्‍यूडिशियल इंक्‍वायरी कमीशन बना. इस आयोग ने भविष्‍य की मेला/सत्‍संग/आयोजनों के दौरान किए जाने आयोजनों के लिए सुझाव दिए...दशक दर दशक इनमें कितनी बातें अपडेट हुईं ये पता नहीं लेकिन अब भी धार्मिक जलसों में कमोबेश हादसों की उसी प्रवृत्ति की पुनरावृत्ति देखने को मिलती है. 

हाथरस में हुए हादसे का भी वही पैटर्न देखने को मिल रहा है. कहा जा रहा है कि घटनास्‍थल पर हजारों-लाखों की भीड़ थी. मेन गेट बंद था. उसी दौरान बाबा बाहर जाने के लिए कार की तरफ बढ़ा. भक्‍तों में उनके पास पहुंचने की होड़ मच गई और भगदड़ मच गई. भयानक उमस वाला मौसम था. भगदड़ में अधिकांश महिलाओं और बच्‍चों की मौत दबने, दम घुटने से हुई. सवाल फिर वही है कि हमने सन 1954 से लेकर अब तक क्‍या सीखा? इस घटना का गुनहगार कौन है? 

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क्‍या है उपाय?
कहने का आशय ये है कि भारत जैसे धर्मपरायण देश में इस तरह के हादसे लगातार नियमित अंतराल पर होते रहे हैं. लेकिन ऐसा कभी नहीं लगता कि कोई इनसे सबक लेता है? इसलिए ही इस तरह के धार्मिक आयोजनों में मजबूत प्रबंधन नहीं कभी दिखता. आप अपने आसपास अक्‍सर देखेंगे कि ऐसे कई बड़े धार्मिक आयोजन स्‍थानीय स्‍तर पर होते रहते हैं जिसके बारे में पुलिस को अव्‍वल तो सूचना देने की जरूरत नहीं समझी जाती और यदि दी भी जाती है तो आमतौर पर व्‍यक्त किए गए अनुमान से कहीं ज्‍यादा जुटान देखने को मिलती है. ऐसा आकलन करने में कई बार आयोजक भी चूक जाते हैं. पुलिस भी कई बार ऐसे आयोजनों में लापरवाह ही दिखती है. लेकिन फिर भी एक बात दावे से कही जा सकती है कि आयोजक ऐसे बड़े जलसे तो आयोजित कर लेते हैं लेकिन जनता की सुरक्षा को लेकर उनके पास कोई प्‍लान नहीं होता. उस मामले में लापरवाही ही देखने को मिलती है. ऐसे मौकों पर बहुत हद तक पुलिस को एप्‍लीकेशन देकर सारा जिम्‍मा प्रशासन पर छोड़ दिया जाता है. 

जबकि होना चाहिए कि ऐसे मौकों के लिए आयोजक और प्रशासन दोनों को मिलकर काम करना चाहिए. मसलन अपनी अप्‍लीकेशन के साथ ही आयोजक को ये बताना चाहिए कि उसके प्रोग्राम का क्‍या आकार है? वो जिस जगह पर आयोजित हो रहा है, उस जगह पर कितनी भीड़ एकत्र हो सकती है? यदि भीड़ अनुमान से ज्‍यादा आ गई तो क्‍या करना चाहिए? इन सब चीजों को ध्‍यान में रखते हुए हमेशा पहले ही प्रशासन और आयोजकों को मिलकर एक वैकल्पिक व्‍यवस्‍था का रोडमैप तैयार कर लेना चाहिए ताकि संकट या आपात के समय नुकसान की दर को कम से कम किया जा सके.

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