लाला हरदयाल थे ‘संन्यासी क्रांतिकारी’, जिंदगीभर रहे अंग्रेजों की आंख का कांटा
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लाला हरदयाल थे ‘संन्यासी क्रांतिकारी’, जिंदगीभर रहे अंग्रेजों की आंख का कांटा

लाला हरदयाल सिविल सर्विस की नौकरी ठुकराकर, सारे ऐशो आराम छोड़कर देश को आजाद कराने के अभियान में शामिल हो गए थे. आज उनकी जयंती है, इस मौके पर जानिए उनकी हैरतअंगेज कहानी.

फाइल फोटो

नई दिल्ली: मार्टिनिक नाम था उस टापू का, उसी के समुद्र तट की किसी गुफा में डेरा जमाए हुए था वो संन्यासी, जो कभी सिविल सर्विस की नौकरी ठुकराकर आया था और जिसे दुनियाभर में मशहूर ऑक्सफोर्ड यूनीवर्सिटी (University of Oxford) में पढ़ने के लिए दो स्कॉलरशिप मिली थीं और वो जिंदगी के सारे ऐशो आराम छोड़कर यहां दुनिया के दूसरे कोने में एक गुफा में साधना करने मे मग्न था और लक्ष्य था बस एक अपना राज. स्वराज. इस शख्सियत का नाम था लाला हरदयाल (Lala Hardayal). आज उनकी जयंती पर जानिए उनकी हैरतअंगेज कहानी.

  1. आजादी की लड़ाई में लाला हरदयाल ने निभाई थी अहम भूमिका
  2. उनके नाम से खौफ खाते थे अंग्रेज
  3. भारत लौटने के ऐलान बाद अचानक हो गई थी मृत्यु

इतिहास में चंद चेहरों का ही जिक्र
कभी क्रांतिकारियों की सूची में आपने लाला हरदयाल का नाम शायद ही पढ़ा हो. ये भी बड़ी बिडंबना रही है कि हमारे देश के क्रांतिकारियों का इतिहास भी भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद जैसे गिनती के चेहरों के इर्द-गिर्द सिमट गया. ऐसे में जो लोग सम्पन्न परिवारों से थे या किसी स्कॉलरशिप पर विदेश में उच्च शिक्षा के लिए गए और वहीं से देश की आजादी के लिए क्रांति की मशाल जलाई, वहीं विदेशी धरती पर सालों तक अलख जगाए रखने वाले, अंग्रेजी सरकार के कुकृत्यों को दुनियाभर के देशों के सामने एक्सपोज करने वाले और विदेशों से धन, हथियार, राजनीतिक समर्थन ही नहीं सशस्त्र क्रांतिकारियों तक को भेजने वाले लोगों को तो देश में गिनती के लोग ही जानते हैं.

राजा महेन्द्र प्रताप, मदन लाल धींगरा, ऊधम सिंह, करतार सिंह सराभा, रास बिहारी बोस, श्यामजी कृष्ण वर्मा, भीखाजी कामा, वीर सावरकर और लाला हरदयाल जैसे कई नाम इनमें शामिल हैं. इन सभी ने भारत के साथ साथ विदेश की धरती को अपनी क्रांति भूमि बनाया. किसी ने जापान, किसी ने अमेरिका, किसी ने ब्रिटेन तो किसी ने फ्रांस. लाला हरदयाल के पिता दिल्ली की एक डिस्ट्रिक्ट कोर्ट में रीडर थे, दिल्ली के सेंट स्टीफेंस कॉलेज से उन्होंने संस्कृत में डिग्री ली. प्रतिभाशाली इतने थे कि ऑक्सफोर्ड यूनीवर्सिटी में पढ़ने के लिए उन्हें दो स्कॉलरशिप ऑफर की गईं.

पढ़ाई के दौरान लिखा तीखा लेख
लेकिन देश की आजादी को लेकर उनके तेवर शुरूआत से ही साफ थे, सख्त थे. ऑक्सफोर्ड में पढ़ाई के दौरान ही 1907 में उन्होंने ‘इंडियन सोशलिस्ट’ मैगजीन में लिखे एक लेख में अंग्रेजी सरकार पर सवाल उठाये थे. उसी वक्त उन्हें आईसीएस यानी इंडियन सिविल सर्विस (उस वक्त की आईएएस) का पद ऑफर हुआ था, उन्होंने ‘भाड़ में जाए आईसीएस’ कहते हुए ऑक्सफोर्ड की स्कॉलरशिप तक छोड़ दी और अगले साल भारत वापस आ गए, यहां वो पूना जाकर तिलक से और लाहौर में लाला लाजपत राय से मिले. उस वक्त कांग्रेस के यही दो बड़े नेता थे, जो गरम दल की अगुवाई करते थे.

लेकिन अब वो अंग्रेजी सरकार की नजरों में चढ़ चुके थे, उन पर नजर रखा जाना शुरू हो गय़ा. लेकिन भारत में उनका ये कड़े तेवरों वाला लेखन जब जारी रहा तो अंग्रेजी सरकार उन पर प्रतिबंध लगाने और गिरफ्तार करने की सोचने लगी, कहीं से इसकी जानकारी लाला लाजपत राय को मिल गई. लाजपत राय को ये अनुमान था कि काला पानी जैसी सजा लाला हरदयाल के इरादे तोड़ सकती है. लाला ने ही हरदयाल को सलाह दी कि फौरन देश छोड़ दो, ये क्रांतिकारी लेखन विदेश की धरती से करोगे तो अंग्रेज सरकार कुछ नहीं कर पाएगी. हरदयाल तब तक ब्रिटिश अराजकतावादी कम्युनिस्ट व्यक्ति एल्ड्रेड के संपर्क में आ चुके थे, जो ‘इंडियन सोशलिस्ट’ छापता था. दिलचस्प बात थी कि एक तरफ वो एक वामपंथी के लिए लिख रहे थे, दूसरी तरफ हिंदू वादी नेता, लाला लाजपत राय उनकी मदद कर रहे थे.

लाला लाजपत राय की सलाह पर छोड़ा देश
लाला हरदयाल ने लाला लाजपत राय की बात समझकर भारत छोड़ दिया और 1909 में वो पेरिस जा पहुंचे. जहां जाकर उन्होंने जिनेवा से निकलने वाली पत्रिका ‘वंदेमातरम’ का सम्पादन शुरू कर दिया. ये मैगजीन दुनियाभर में बिखरे भारतीय क्रांतिकारियों के बीच क्रांति की अलख जगाने का काम करती थी. हरदयाल के लेखों ने उनके अंदर आजादी की आग जला दी. हालांकि पेरिस में उन्हें लगा था कि भारतीय समुदाय मदद देगा, लेकिन जब ऐसा नहीं हुआ तो उन्होंने दुखी होकर पेरिस छोड़ दिया और वो अल्जीरिया चले गए, वहां भी उनका मन नहीं लगा, जहां से वो क्यूबा या जापान जाना चाहते थे लेकिन फिर मार्टिनिक चले आए. यहां आकर वो एक सन्यासी की तरह जीवन जीने लगे, कि भाई परमानंद उन्हें ढूंढते हुए पहुंचे और उनसे भारतभूमि को आजाद करवाने, भारतीय संस्कृति के प्रसार के लिए मदद मांगी. भाई परमानंद एक आर्यसमाजी थे.

भारतीय भूमि से था खास लगाव
खेलने कूदने की उम्र से ही लाला हरदयाल को मेरा देश, मेरी भूमि, मेरी संस्कृति, मेरी भाषा पर कुछ ज्यादा ही भरोसा था. जबकि वो मंदिर तक नहीं जाते थे, पूजा नहीं करते थे, मित्र उन्हें नास्तिक बोलते थे लेकिन उनको भारतीय भूमि से निकले हर धर्म, सम्प्रदाय, महापुरुष में काफी आस्था थी, भारतीय परम्पराओं से खासा लगाव था. जब एक बार लाहौर में उनकी वाईएमसीए (यंग मैन क्रिश्चियन एसोसिएशन) क्लब के सचिव से किसी बात को लेकर कहासुनी हो गई तो उन्होंने लाहौर मे ‘यंग मैन इंडियन एसोसिएशन’ की स्थापना कर डाली. इसी एसोसिएशन के उदघाटन समारोह में हरदयाल के मित्र अल्लामा इकबाल ने अपनी मशहूर रचना सारे जहां से अच्छा.. पहली बार गाकर सुनाई थी, बाद में यही इकबाल मुस्लिम लीग में शामिल होकर अलग पाकिस्तान की मांग करने लगे थे.

आर्यसमाज से जोड़ना चाहते थे परमानंद
दूसरी तरफ भाई परमानंद उन्हें आर्यसमाज से जोड़ना चाहते थे, उन्होंने उन्हें राजी किया कि वो अमेरिका में आर्यसमाज के प्रचार प्रसार में मदद करेंगे. लाला बोस्टन गए, वहां से कैलीफोर्निया गए, लेकिन फिर मेडीटेशन करने हवाई द्वीप के होनोलूलू में चले गए. जहां उनकी मुलाकात जापानी बौद्ध भिक्षुओं से हुई, काफी दिन उनके साथ गुजारे, साथ में वहीं उन्होंने कार्ल मार्क्स को पढ़ा. भाई परमानंद वापस उन्हें कैलीफोर्निया लेकर आए, वो लाला हरदयाल की प्रतिभा को जाया नहीं जाने देना चाहते थे.

कार्ल मार्क्स का असर ये हुआ कि उन्हें मजदूरों की समस्याओं से रूबरू होने का मौका मिला. कैलीफोर्निया आते ही वो मजदूरों की यूनियन से जुड़ गए, वहीं दूसरी तरफ वो भारतीय दर्शन और संस्कृत का प्रचार प्रसार कर रहे थे. ये दक्षिणपंथ और वामपंथ का अनोखा संगम उनके अंदर पैदा हो गया था. बहुत जल्द उन्हें स्टेनफोर्ड यूनीवर्सिटी में इंडियन फिलॉसोफी और संस्कृत का लैक्चरर बनने का मौका मिल गया. लेकिन जिस मजदूर यूनियन से वो जुड़ गए थे, दरअसल वो अराजकता वादियों का बड़ा समूह था. उससे रिश्तों के चलते लाला हरदयाल को स्टेनफोर्ड यूनीवर्सिटी से अपना पद छोड़ना पड़ गया, बाद में हरदयाल ने उस समूह से भी दूरी बना ली.

कैलीफोर्निया में बनाया इंडिया हाउस
कैलीफोर्निया में उनकी मुलाकातें उस सिख समूह से होने लगीं, जो अपने देश को आजाद करवाने के लिए अमेरिका में संघर्ष कर रहा था यानी गदर क्रांतिकारी. वो उन श्यामजी कृष्ण वर्मा के संपर्क में भी आए, जो लंदन में ‘इंडिया हाउस’ बनाकर कई क्रांतिकारियों को शरण दे रहे थे, उनको लंदन में स्कॉलरशिप देकर भारत से बुला रहे थे, वीर सावरकर और मदन लाल धींगरा ऐसी ही स्कॉलरशिप पर लंदन आए थे.

श्याम जी कृष्ण वर्मा से प्रेरित होकर लाला हरदयाल ने वैसी ही स्कॉलरशिप अमेरिका में शुरू कर दी, और एक घर इंडिया हाउस की ही तरह कैलीफोर्निया में उन स्टूडेंट्स के लिए खड़ा किया, जिनको स्कॉलरशिप पर अमेरिका पढ़ने के लिए बुलाया जा सकता था. करतार सिंह सराभा और विष्णु पिंगले जैसे 6 भारतीय लड़कों की अमेरिकी में पढ़ाई का इंतजाम किया गया. अमेरिका में उनकी मदद तेजा सिंह और तारक नाथ दास ने की. जबकि स्कॉलरशिप के लिए गुरु गोविंद सिंह एजुकेशनल स्कॉलरशिप फंड बनाने में उनकी मदद अमेरिका के अमीर किसान ज्वाला सिंह ने की.

भाषण के बाद देखने लायक था माहौल
जब दिल्ली में रास बिहारी बोस, बसंत विश्वास और अमीचंद ने लॉर्ड हॉर्डिंग पर दिल्ली में घुसते वक्त बम फेंक दिया तो अमेरिका में लाला हरदयाल ने उत्साहित होकर एक जोरदार भाषण दिया, जिसमें मीर तकी मीर की दो लाइनें पढ़ डालीं—
पगड़ी अपनी सम्भालिएगा मीर,
ये और बस्ती नहीं.. दिल्ली है!!

ये कार्यक्रम नालंदा हॉस्टल में हुआ था, उनके भाषण के बाद माहौल देखने लायक था, वंदेमातरम गीत पर युवा नाचने गाने लगे. सबको इंतजार था प्रथम विश्व युद्ध में ब्रिटेन के फंसने का, ताकि उसका फायदा उठाकर गदर क्रांति की जा सके. सोहन सिंह भखना ने अमेरिका में ही गदर पार्टी की नींव रखी, दुनियाभर के क्रांतिकारियों से हाथ मिलाया. लंदन में श्याम जी कृष्ण वर्मा, भारत में बाघा जतिन और रास बिहारी बोस और अमेरिका में करतार सिंह सराभा और विष्णु पिंगले जैसे युवाओं ने कमान संभाल ली. लाला हरदयाल पत्र पत्रिकाओं में क्रांति के पक्ष में लेख लिख लिखकर माहौल बनाने में जुट गए थे कि अमेरिकी सरकार उनके लेखों से परेशान हो गई. वो फिर से निशाने पर आ चुके थे. वैसे भी ब्रिटेन अब अमेरिका में बसे गदर क्रांतिकारियों के बारे में अमेरिका को आगाह कर रहा था.

खुशी के बीच आई मातमी खबर 
हरदयाल प्रवासी सिखों के बीच अलख जगाने का काम करने लगे थे. वो अपने शानदार भाषणों के जरिए प्रवासी सिखों से भारत माता की सेवा करने के लिए भारत पहुंचने का आह्वान करते थे, माना जाता है कि दस हजार सिख उनसे प्रेरित होकर भारत निकल गए थे. उसी दौरान कामागाटामारू कांड भी हो गया. अप्रैल 1914 में लाला हरदयाल को अमेरिका में गिरफ्तार कर लिया गया, लेकिन वो किसी तरह निकल भागे और उनकी अगली मंजिल बर्लिन थी. वहां से वो स्वीडन निकल गए, इस तरह कुल 13 भाषाएं हरदयाल सीख गए थे.

इसी बीच, वो अपनी पीएचडी लंदन की एक यूनीवर्सिटी से कर चुके थे. फिर वो लंदन में ही रहने लगे, अंग्रेजी सरकार उनकी हर हरकत पर नजर रखे हुई थी, लेकिन वो उनकी नाक के नीचे ही लंदन में जमे रहे. 1927 में देशभक्तों ने उन्हें भारत लाने की काफी कोशिशें की थीं, जो कामयाब नहीं हो पाईं. 1938 में फिर ऐसी कोशिशें कीं, ब्रिटिश सरकार ने उन्हें भारत जाने की इजाजत दे दी, सब लोग भारत में इंतजार भी करने लगे, देश का माहौल भी काफी बदल चुका था, माना जाने लगा था कि देश को आजादी मिलने में ज्यादा देर नहीं. लाला लंदन से निकल भी चुके थे कि अमेरिका के फिलाडेल्फिया से खबर आई कि 4 मार्च 1938 को लाला हरदयाल की मृत्यु हो गई है.

जहर देने का किया था दावा
किसी को समझ नहीं आया कि जब वो बेहतर स्वास्थ्य में थे, उन्हें भारत आने की अनुमति भी मिल गई थी लेकिन अचानक उनकी मौत कैसे हो गई. उनके मित्र हनुमंत सहाय अपने मरने तक आरोप लगाते रहे कि हरदयाल को जहर देकर मारा गया था, उनकी मौत स्वभाविक नहीं थी. लेकिन देश ना जाने कितने महापुरुषों की ऐसी संदिग्ध मौत देख चुका है. श्यामा प्रसाद मुखर्जी से लेकर लाल बहादुर शास्त्री तक, किसी की मौत का खुलासा आज तक नहीं हुआ, सत्ता के खिलाफ जाने पर ऐसा अंजाम होने की आशंका तो रहती ही है.

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