परंपरागत व्यवसाय पर आधुनिकता का साया, न मिल रहा रोजगार, न हो रही कमाई
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परंपरागत व्यवसाय पर आधुनिकता का साया, न मिल रहा रोजगार, न हो रही कमाई

आज आधुनिकता के इस अंधेरे ने बांस से बनने वाली कई वस्तुओं को विलुप्त कर दिया है. जिसकी वजह से बसोर समुदाय की आर्थिक स्थिती खराब होती जा रही है.

परंपरागत व्यवसाय पर आधुनिकता का साया, न मिल रहा रोजगार, न हो रही कमाई

सूरजपुरः हम आधुनिकता के इस दौर से गुजर रहे हैं, जहां दिन प्रतिदिन बदलाव से आप मॉडर्न तो बनते जा रहें हैं. ऐसे में क्या आपने कभी सोचा है कि इससे कई लोग जो पंरपरागत रूप से किसी व्यवसाय को करते आए है उनकी रोजी रोटी आज संकट में है? दरअसल हम बात कर रहें हैं सूरजपुर जिले में एक ऐसे समाज की जो अपनी रोजमर्रा के लिए परंपरागत रूप से बांस के सामान बना कर बेचते रहें हैं लेकिन आज आधुनिकता के इस अंधेरे ने बांस से बनने वाली कई वस्तुओं को विलुप्त कर दिया है. जिसकी वजह से बसोर समुदाय की आर्थिक स्थिती खराब होती जा रही है.

परंपरागत रूप से करते हैं बांस का काम
सूरजपुर जिले के बृजनगर, खुंटापारा, कल्याणपुर और सोनवाही गांव में बांस बनाने का काम कई दशकों से होता आया है. आज भी ये पूरा इलाका बांस से बने सामान की आपूर्ति के लिए मशहूर है. यहां पर बसौर जाति के लोग परंपरागत रूप से पीढ़ी दर पीढ़ी बांस से बने समान बनाकर जीवन यापन करते आएं है. लेकिन आधुनिक समय में बांस से बने सामानों का विकल्प कई अन्य धातु के बर्तनों ने ले लिया है. खासकर प्लास्टिक से निर्मित बर्तनों के कारण बांस से बने सामान का अब बाजार में बिकना मुश्किल हो गया है. जिसकी वजह से इस समाज के लोगों पर अब रोजी रोटी का संकट खड़ा हो गया है. 

बांस से बनने वाले सामान का उपयोग
घरेलू उपयोग के लिए बसोर जाति के लोगों द्वारा बांस से आमतौर पर सूपा, मोरा, दौरी, झांपी, बेना और पेटी बनाई जाती है. बांस से निर्मित इन वस्तुओं में सूपा का उपयोग अनाज को साफ करने के काम आता है, मोरा का उपयोग अनाज को खेत खलिहान तक ले जाने में किया जाता है, दौरी का उपयोग खासतौर पर शादी विवाह में मिठाई या अन्य सामग्री रखने के लिए किया जाता है, झांपी में बर्तन और आभूषण रखकर ऊपर से बंद किया जाता है. और बेना गर्मी से राहत के लिए पंखे का काम करता है. लेकिन इन सब का रूप अब प्लास्टिक ने ले लिया है जिससे बांस से निर्मित वस्तुओं की बाजार में खरीददारी कम हो गया है.

आरक्षण बना समस्या
दरअसल बांस का काम करने वाली इस समुदाय की जाति तुरी थी. लेकिन परंपरागत रूप से बांस का काम करने की वजह से इस जाति का नाम बसोर पड़ गया और सरकारी रिकॉर्ड में बसोर नाम की कोई जाति ही नहीं है. जो इस समदाय के लिए मुसीबत साबित हो रही है जिससे इस समुदाय के छात्रों का जाति प्रमाण पत्र भी नहीं बन पा रहा है और ये आरक्षण के लाभ से वंचित रह जाते हैं. हालांकि कलेक्टर सूरजपुर ने अधिकारियों को निर्देश दिया है कि जो भी त्रुटि है उसे जल्दी ठीक किया जाए, ताकि छात्रों के जाति प्रमाण पत्र बनाने में किसी प्रकार की कोई असुविधा ना हो.

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जिला प्रशासन कर रही है पहल
आधुनिकता की दौर में विलुप्त हो रही परंपरागत चीजों को बढ़ावा देने के लिए इस समुदाय के लोगों की समस्या को जिला प्रशासन ने समझा और बसोर जाति के लोगों को आधुनिकता के हिसाब से बैम्बू क्राफ्ट का प्रशिक्षण दिया जा रहा है ताकि ये लोग आधुनिकता के हिसाब से बांस से निर्मित वस्तुएं बना सके जिससे मार्केट में अच्छी कीमत मिल सके.

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