जमीन छुड़ाने चाचा की हत्या कर बन गए बागी, 70 मर्डर, 250 से ज्यादा डकैती, लेकिन आज हैं गांधीवादी
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जमीन छुड़ाने चाचा की हत्या कर बन गए बागी, 70 मर्डर, 250 से ज्यादा डकैती, लेकिन आज हैं गांधीवादी

चंबल (chambal) के बागियों को कहानी तो आपने खूब सुनी होगी. लेकिन हम आपको एक ऐसे दस्यु (bandit) की कहानी बताने जा रहे हैं, जिन्होंने अपनी जमीन छुड़ाने के लिए अपने ही चाचा की हत्या कर दी थी और बंदूक थामकर बागी का टीका अपने माथे पर लगाकर चंबल के बीहड़ों में डकैत बन गए थे. 

पूर्व दस्यु रमेश सिकरवार

श्योपुरः पान सिंह तोमर (Paan Singh Tomar) की कहानी तो आप सभी ने सुनी ही होगी. किस तरह वो अपनी जमीन को छुड़ाने के लिए बंदूक उठाकर चंबल (chambal) के बीहड़ों में बागी बन जाते हैं. ऐसे ही एक दस्यु की कहानी आज हम आपको बताने जा रहे हैं, जिसने खुद की जमीन अपने चाचा के कब्जे से छुड़ाने के लिए उसका सीना गोलियों से छलनी कर दिया और सर पर कफन बांधकर चंबल के बीहड़ में बंदूक थामकर बागी बन गया. एक दशक तक चंबल की घाटियों में बागी बनकर समय गुजारा. फिर एक दिन पिता के कहने पर उसने सरकार के सामने पूरी गैंग के साथ आत्मसमर्पण कर दिया. सजा काटकर जेल से बाहर आए. लेकिन यहां से उन्होंने वो रास्ता अपनाया, जिसके लिए आज उनकी एक अलग पहचान बन चुकी है. जी हां ये कहानी है श्योपुर (sheopur) के रहने बाले पूर्व दस्यु रमेश सिकरवार (ramesh sikarwar) की. जो कभी बागी के तौर पर जाने जाते थे. लेकिन आज वे गांधीवादी रास्ते पर चलते हुए समाज के गरीब और कमजोर वर्ग के लोगो के की मदद कर रहे हैं. 

रमेश सिकरवार इस तरह बने बागी 
रमेश सिकरवार की बागी बनने की कहानी किसी फिल्मी स्टोरी से कम नहीं है. श्योपुर (sheopur) जिला तब मुरैना (morena) का हिस्सा था, 70 साल के हो चुके पूर्व दस्यु रमेश सिकरवार का परिवार कराहल तहसील के लहरोनी गांव में रहता था. दरअसल, रमेश सिकरवार की जमीन पर उनके ही सगे चाचा ने दबंगई से कब्जा कर लिया था. जिस वक्त ये सब हुआ उस वक्त रमेश 7वीं कक्षा में पढ़ते थे. पिता ने भाई से जमीन वापस लेने के लिए उसकी खूब मिन्नते की, समाज और रिश्तेदारों का सहारा भी लिया. लेकिन उनके भाई ने उन्हें जमीन का एक इंच भी देने से मना कर दिया. अपने पिता के साथ हुई इस नाइंसाफी को बचपन में देखने वाले रमेश ने जब होश संभाला तो अपनी जमीन को वापस लेने की ठानी. जिसके बाद जमीन के लिए शुरू हुई जंग को रमेश सिकरवार ने अपने चाचा को मौत के घाट उतरते हुए अंजाम तक पहुंचाया. 

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चाचा की हत्या के बाद नहीं लौटे घर 
चाचा की हत्या के बाद रमेश वापस अपने घर नहीं लौटे बल्कि बंदूक थामकर बागी का टीका अपने माथे पर लगाकर चंबल के बीहड़ों में डकैत बन गए. धीरे-धीरे उनकी गैंग में और सदस्य जुड़ने लगे. उस वक्त उनकी गैंग में 25 सदस्य थे. अपने दस्यु जीवन में उन्होंने  250 से ज्यादा डकैती की वारदात और 70 से ज्यादा लोगों की हत्याएं की थी. करीब एक दशक से भी ज्यादा वक्त तक रमेश, चंबल में बागी बनकर बीहड़ों की खाक छानते रहे. 

अर्जुन सिंह के सामने किया आत्मसमर्पण 
साल 1984 में मध्य प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह ने बागियों के आत्मसमर्पण करने का अभियान चलाया. तब रमेश सिकरवार के पिता ने भी उन्हें आत्मसमर्पण करने की सलाह दी, पिता की बात मानते हुए रमेश सिकरवार ने 27 अक्टूबर 1984 को 18 शर्तों के साथ अपनी पूरी गैंग के साथ मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह के सामने आत्मसमर्पण कर दिया, जहां उन्होंने मुरैना की सबलगढ़ जेल में अपनी सजा काटी. 

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जेल से रिहा होने के बाद गांधीवादी रास्ता अपनाया 
खास बात यह है कि  जेल में सजा काटते हुए रमेश सिकरवार ने अपने आगे का जीवन सच्चाई और गरीबों की मदद करते हुए बिताने का संकल्प लिया. जेल से छूटने के बाद रमेश श्योपुर में आदिवासियों के हक की लड़ाई के लिए जल-जंगल-जमीन का नारा देने वाली गांधीवादी विचारधारा के तहत बनाई एकता परिषद से जुड़ गए. जहां उन्होंने देखा कि वर्षों पहले जिस जमीन के खातिर वे बागी बने थे. चंबल में आज भी वह समस्या जस की तस बनी हुई थी. 

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क्षेत्र के रसूखदार और दंबग आज भी आदिवासियों की जमीनों कब्जा कर लेते थे. ऐसे में उन्होंने इन जमीनों पर से कब्जा छुड़ाने की ठानी. लेकिन इस बार रास्ता बगावत नहीं बल्कि अहिंसा का चुना. उन्होंने आदिवासियों की जमीनों को दबंगो से मुक्त कराने के लिए अभियान चलाया और गांधीवादी रास्ते पर चलते हुए कई लोगों उनकी जमीनें वापस दिलवाई. 

क्षेत्र के लोग मानते हैं मसीहा 
आदिवासियों की जमीन किसी खून खराबे के मुक्त कराने के चलते आज क्षेत्र के लोग उन्हें अपना मसीहा बताते हैं. स्थानीय आदिवासी लोग कहते हैं कि रसूखदार लोगों ने उनकी जमीनों पर सालों से कब्जा कर रखा था. वे अपनी ही जमीन पर बंधुआ मजदूरी करने को मजबूर थे. लेकिन उनके जीवन में उम्मीद की किरण बनकर रमेश सिकरवार पहुंचे. जिन्होंने गांधीगिरी से लड़ाई लड़ते अब तक वे 100 से ज्यादा लोगों को उनकी जमीनें वापस दिलवा चुके हैं. 

प्रशासनिक अधिकारियों की भी करते हैं मदद 
पूर्व दस्यु रमेश सिकरवार की इस मुहिम की सराहना प्रशासन भी करता है. अधिकारी कहते हैं कि जिले के कई गांवों में उन्होंने खुद देखा कि जो जमीन विवाद कोर्ट कचहरी से भी नहीं सुलझता है, उस विवाद को रमेश सिकरवार आपसी सहमति से राजीनामा करवा देते हैं. जिससे बिना विवाद के ही समस्या का हल हो जाता है. कई बार तो ऐसा होता है कि अगर कही कोई जमीनी विवाद होता तो प्रशासनिक अधिकारी भी उनकी मदद लेने पहुंचते हैं. अपनी जमीन को छुड़ाने के लिए रमेश सिकरवार ने अपनों का ही खून बहाया था. लेकिन आज रमेश सिकरवार किसी ओर को जमीन की लड़ाई की खातिर बागी नहीं बनने देते. वे कहते हैं कि जो लड़ाई अहिंसा से लड़ी जा सकती है अब उसके लिए हिंसा नहीं होनी चाहिए. इसलिए वे अपनी इस मुहिम को आगे भी जारी रखेंगे. 

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