Shiv Sena Crisis: महाराष्ट्र में गजब का सियासी सीन बन चुका है. एनसीपी टूट चुकी है, शिवसेना दो फाड़ हो चुकी है, कांग्रेस की स्थिति सुधर जरूर सकती है पर सबसे ज्यादा फायदा भाजपा को हो सकता है. जी हां, वहां कुछ महीने बाद ही चुनाव होने हैं.
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Maharashtra Shiv Sena Row: महाराष्ट्र में इसी साल विधानसभा चुनाव होने हैं. इससे पहले विधानसभा अध्यक्ष राहुल नार्वेकर के एक फैसले ने सियासी तड़का लगा दिया है. उन्होंने सीएम एकनाथ शिंदे गुट को ही असली शिवसेना बता दिया है. जाहिर है इससे उद्धव गुट भड़का हुआ है. पार्टी के मुखपत्र सामना में शिंदे ही नहीं केंद्र की भाजपा सरकार पर भी निशाना साधा गया. उद्धव की टीम सुप्रीम कोर्ट जाने की तैयारी कर रही है. उद्धव ने कहा है कि वह जनता के बीच इस मुद्दे को जोर-शोर से उठाएंगे. उधर, सीएम शिंदे ने कहा है कि इस आदेश का मैसेज यही है कि कोई पार्टी ‘निजी लिमिटेड संपत्ति’ नहीं है और यह वंशवाद की राजनीति के खिलाफ है. ऐसे में सवाल उठता है कि क्या नार्वेकर के फैसले से स्टेट पॉलिटिक्स में कोई बड़ा बदलाव देखने को मिलेगा?
पॉलिटिकल रिसर्चर आसिम अली ने 'टाइम्स ऑफ इंडिया' में एक लेख के जरिए महाराष्ट्र की राजनीति का विश्लेषण किया है. वह लिखते हैं कि महाराष्ट्र की राजनीति में ज्यादातर समय स्थिरता ही रही. हालांकि 2014 के बाद काफी उथल-पुथल देखी जा रही है. ऐसे में यह नहीं कहा जा सकता है कि नार्वेकर के फैसले से आने वाले चुनावों पर स्पष्ट रूप से कोई बड़ा असर पड़ेगा. राज्य में अलग-अलग क्षेत्रों पर नजर डालें तो पिक्चर साफ दिखाई देती है, इसमें नार्वेकर की रूलिंग का कोई रोल नहीं है.
शिवसेना क्राइसिस की जड़
वास्तव में जिस कारण शिवसेना टूटी है, उसकी वजह पिछले दशक में भाजपा के विस्तार में छिपी है. मुंबई-ठाणे और कोंकण बेल्ट से बाहर मोदी-फडणवीस की भाजपा ने शिवसेना के उन वोटरों को अपनी तरफ खींचा जिनका मोहभंग हो चुका था. उधर, नासिक-मुंबई-पुणे के शहरी क्षेत्रों और विदर्भ-मराठवाड़ा के ग्रामीण क्षेत्रों में भाजपा ने अपनी पकड़ मजबूत बना ली.
2014 के विधानसभा चुनावों में 25 साल में पहली बार राज्य की बड़ी पार्टियों ने अलग-अलग चुनाव लड़ा था. भाजपा को 122 सीटों पर जीत मिली. बड़ी बात यह कि 1990 के बाद पहली बार किसी पार्टी ने 100 सीटों का आंकड़ा पार किया था. उस समय ही महाराष्ट्र में नए संकेत मिल गए थे.
शिंदे की टेंशन!
इसमें कोई संदेह नहीं कि भाजपा की 'बढ़ती भूख' नई नवेली शिंदे सेना के अपने बेस के लिए खतरा जरूर बन सकती है. अजीत पवार वाले NCP गुट के महाराष्ट्र सरकार में शामिल होने से इस गुट को पहले ही तगड़ा झटका लग चुका है. समझा जा रहा है कि भाजपा के साथ शिंदे गुट के गठबंधन की समयसीमा तब तक है जब तक अजीत पवार वाले एनसीपी गुट की सहायता से महाराष्ट्र में सरकार चलाने पर BJP को भरोसा न हो जाए.
क्या शिंदे को छोड़ देगी भाजपा?
छोटे दलों के साथ भाजपा किस तरह से राजनीतिक मोलभाव करती है, यह महत्वपूर्ण होगा. अभी के लिए पसंदीदा एनडीए मॉडल 1999 और 2014 के बीच कांग्रेस की व्यवस्था का नया अवतार मालूम पड़ता है. जैसे, वैकल्पिक रूप से भाजपा-NCP का गठबंधन पश्चिमी महाराष्ट्र की 58 विधानसभा सीटों में ज्यादातर पर दावा कर सकता है. अगर अजीत पवार के पास ग्रामीण क्षेत्रों का सपोर्ट है तो भाजपा के लिए शहरी इलाका उसका गढ़ है. भाजपा को शुगर बेल्ट में ज्यादा सफलता नहीं मिली है लेकिन वहां के लोगों ने अजीत पवार के प्रति निष्ठा दिखाई है. ऐसे में भाजपा और एनसीपी गुट के बीच नया समीकरण बन सकता है जबकि भाजपा-शिंदे सेना के अलायंस में ऐसा कुछ नहीं है.
स्पीकर की देरी से बीजेपी को फायदा?
शिवसेना में टूट के 18 महीने बाद स्पीकर ने यह फैसला दिया है. इस बीच भाजपा विदर्भ, मराठवाड़ा और उत्तरी महाराष्ट्र में खुद को मजबूत कर सकी. हिंदू राष्ट्रवाद, भ्रष्टाचार के सख्त खिलाफ और शहरी विकास की पीएम मोदी की अपील ने इन इलाकों में भाजपा की मदद की है. चूंकि राज्य में बीजेपी के पास प्रभावशाली ओबीसी नेताओं की कमी है इसलिए वह पिछड़ी जातियों और मध्यम वर्गों के गठजोड़ के लिए केंद्र की योजनाओं पर मोदी फैक्टर के भरोसे है.
2024 के चुनाव में मतदान पीएम मोदी के नाम पर होगा और राष्ट्रीय मुद्दे हावी रहने वाले हैं, ऐसे में महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री शिंदे और उनके गुट को कमजोर करने का अच्छा समय होगा. अब समझें तो स्पीकर के फैसले में हुई इतनी देरी को प्रमुख क्षेत्रों में सीटों के बंटवारे में दबदबा हासिल करने की रणनीति के तौर पर देखा जा सकता है. इससे बीजेपी की ग्रोथ का मार्ग प्रशस्त होगा.
कांग्रेस और उसका गठबंधन
उधर, एमवीए की ताकत क्षेत्रीय रणनीति है जो जाति आधारित समीकरणों पर आधारित है. कांग्रेस भी जाति जनगणना की राजनीति के जरिए विदर्भ और उत्तर महाराष्ट्र में अपनी खोई जमीन हासिल करना चाह रही है. नागपुर में राहुल गांधी की रैली पूरी तरह गरीब और पिछड़े वोटरों पर केंद्रित रही. MVA की कमजोरी भी यही है कि मराठवाड़ा जैसे क्षेत्रों में कांग्रेस और उद्धव गुट के बीच तनातनी पैदा कर सकती है. तेलंगाना में जीत का असर दिख सकता है और कांग्रेस किसानों और दलित वोटरों को लुभाने की कोशिश जरूर करेगी. दूसरा पहलू यह है कि 1980 के दशक से मराठवाड़ा क्षेत्र शिवसेना का गढ़ रहा है.
आखिर में समझें तो एमवीए पूरी तरह से उद्धव ठाकरे की भावुक अपील पर निर्भर रहेगा, जो मुंबई-ठाणे क्षेत्र और कुछ हद तक मराठवाड़ा के पारंपरिक शिवसेना वोटरों का समर्थन चाहेगी. इसी तरह शरद पवार पारंपरिक एनसीपी वोटरों का वोट पश्चिम महाराष्ट्र में चाहेंगे. ऐसे में किंगमेकर वोटर होंगे, जो फैसला करेंगे कि वे किसकी तरफ जाएंगे. बीजेपी जरूर केंद्रीय स्थिति में है, ऐसे में छोटी पार्टियों का भविष्य भगवा दल पर ही निर्भर करेगा.
दूसरी तरफ महाराष्ट्र देश के उन राज्यों में से एक है जहां कांग्रेस बढ़त हासिल कर सकती है. हालांकि उसके पार्टनर शरद पवार की एनसीपी और उद्धव सेना के लिए अस्तित्व का संकट दिख रहा है.