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आजादी के दो नायक, एक से गांधीजी डरते थे दूसरे ने की थी उनसे बगावत

आज देशबंधु चितरंजन दास की जयंती है और फिरोज शाह मेहता की पुण्यतिथि, जानिए दोनों के बारे में कुछ दिलचस्प अनसुनी कहानियां-

फिरोज शाह मेहता से इतना डरते क्यों थे गांधीजी

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फिरोज शाह मेहता से इतना डरते क्यों थे गांधीजी

फिरोज शाह मेहता गांधीजी से 24 साल बड़े तो थे ही, गांधीजी से काफी पहले लंदन में बैरिस्टर की ही पढ़ाई पढ़कर मुंबई के जाने माने वकील बन गए थे. कांग्रेस के वो संस्थापक सदस्य थे और 1890 में ही कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष बन गए थे. ऐसे में जब दक्षिण अफ्रीका में अपने आंदोलनों के बाद मशहूर होकर जब गांधीजी भारत आए, तो उनकी पहली सभा भारत में फिरोज शाह मेहता ने ही आयोजित की थी, उनके रसूख के चलते मुंबई की ये सभा काफी कामयाब साबित हुई थी. उस वक्त के कांग्रेस नेताओं के बीच गांधीजी के इस सार्वजनिक भाषण के बारे में काफी चर्चा हुई थी. तब गांधीजी तिलक और गोखले से भी मिले थे. गांधीजी ने इन मुलाकातों के बारे में बाद में लिखा था, ‘सर फीरोज शाह मेहता मुझे हिमालय जैसे, लोकमान्य तिलक समुद्र जैसे और गोखले गंगा जैसे लगे. गंगा में नहा सकता हूं, हिमालय पर चढ़ा नहीं जा सकता और समुद्र में डूबने का डर है. गंगा की गोद में तो खेला जा सकता था. उसमें डोंगियां लेकर सैर की जा सकती थी’. सो गांधीजी ने तब से गोपाल कृष्ण गोखले को अपना राजनैतिक गुरु मान लिया था.

‘अभी विलायत की खुमारी तुम्हारे ​सिर पर सवार है’

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‘अभी विलायत की खुमारी तुम्हारे ​सिर पर सवार है’

गांधीजी तब नए नए लंदन से बैरिस्टर की पढ़ाई करके लौटे थे. पोरबंदर के भूतपूर्व राणा साहब के मंत्री और सलाहकार हुआ करते थे गांधीजी के बड़े भाई, उन पर आरोप लगा कि किसी मामले में उन्होंने राणा साहब को गलत सलाह दी थी. इससे ब्रिटिश एजेंट उनके भाई से नाराज था. इस एजेंट से महात्मा गांधी विलायत में मिले थे और अच्छी दोस्ती भी हो गई थी. भाई ने गुजारिश की कि उससे मिलो और मेरे बारे में गलतफहमी दूर करो. अधिकारी गांधीजी को पहचान तो गया लेकिन भाई के संबंध में कुछ भी सुनने को तैयार ना हुआ, बोला वो प्रपंची है, अगर कुछ कहना है तो वो एप्लीकेशन लिख कर दे. वहीं किसी बात पर थोड़ी झिकझिक हुई तो चपरासी ने उन्हें धक्का देकर दरवाजे से निकाल दिया. गांधीजी ने फौरन एक पत्र लिख डाला कि आपने मेरा अपमान किया है, चपरासी के जरिए मुझ पर हमला किया है, आप माफी नहीं मांगेंगे तो मैं मानहानि का विधिवत दावा करूंगा. अधिकारी ने जवाब में लिखा, असभ्यता तुमने की है, मना करने के वाबजूद नहीं गए तब चपरासी की मदद मैंने ली. 

गांधीजी ने वकील मित्रों की सहायता ली

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गांधीजी ने वकील मित्रों की सहायता ली

तब गांधीजी ने वकील मित्रों की सहायता ली, फिरोज शाह मेहता उन दिनों राजकोट में थे, उनसे भी सलाह मंगवाई तो फिरोज शाह मेहता ने कहलवाया कि ‘ऐसे अनुभव तो सभी बैरिस्टरों, वकीलों को हुए होंगे, अभी तुम नए हो. विलायत की खुमारी सर पर सवार है, अंग्रेजो को अभी जानते नहीं हो. सुख से रहना है, दो पैसे कमाने हैं तो अपमान को पी जाओ.. वरना बर्बाद हो जाओगे’. कड़वी सलाह थी, लेकिन कोई और उपाय भी नहीं था. हालांकि बाद में गांधीजी देश की आजादी में फिरोज शाह मेहता से कहीं बड़े कद के साबित हुए. ऐसे ही वाकए थे, जिनके चलते अंग्रेजों से प्रभावित गांधीजी का रवैया धीरे धीरे अंग्रेजों के प्रति बदला था.

 

क्रांतिकारियों को जेल से बचाने वाले देशबंधु चितरंजन दास

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क्रांतिकारियों को जेल से बचाने वाले देशबंधु चितरंजन दास

देशबंधु चितरंजन दास कोलकाता के पहले मेयर थे. चितरंजन दास कोलकाता के प्रभावशाली परिवार से थे, वो भी लंदन से बैरिस्टर की पढ़ाई पढ़कर आए थे. जैसे ही उनकी वकालत कोलकाता में जमने लगी, उन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ लडाई लड़ रहे क्रांतिकारियों के केस लेने शुरू कर दिए. अरविंदो घोष का अलीपुर बम कांड में सफलतापूर्वक केस लड़ने से वो क्रांतिकारियों के बीच काफी लोकप्रिय हो गए थे, अनुशीलन समिति से जुड़े क्रांतिकारी उनका काफी सम्मान करते थे. अनुशीलन समिति के सभी बड़े नेता उनकी मदद लिया करते थे, वो ना केवल धन से मदद करते थे, बल्कि तमाम अदालतों में उनके खिलाफ चलने वाले केसों में भी वही खेवनहार थे. धीरे धीरे वो लोकप्रिय होने लगे थे. उनके सम्मान के चलते ही उन्हें ‘देशबंधु’ की उपाधि मिली थी. लंदन में पढ़ने के दौरान ही उनका परिचय अरविंदो घोष, सरोजिनी नायडू, दादाभाई नोरौजी आदि से हो गया था. 

गांधीजी से क्यों की उन्होंने बगावत

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गांधीजी से क्यों की उन्होंने बगावत

दादाभाई को लंदन की संसद में पहुंचाने के लिए चितरंदन दास ने भी काफी मेहनत की थी. बाद में वो कांग्रेस से भी जुड़ गए थे, उन्होंने एक अखबार भी निकाला ‘फॉरवर्ड’ के नाम से, जिसका नाम बाद में ‘लिबर्टी’ कर दिया गया था. उन्होंने कविताएं भी लिखीं और दो संग्रह छपकर भी आए. बाद में सुभाष चंद्र बोस उनसे काफी करीबी से जुड़ गए थे. कोलकाता म्युनिसिपल कॉरपोरेशन तब गठित ही हुआ था, पहला मेयर उन्हीं को चुना गया था. गांधीजी से चितरंजन दास बस 1 साल छोटे थे, दोनों ही लंदन से बैरिस्टर की पढ़ाई पढ़कर आए थे. लेकिन गांधीजी के दक्षिण अफ्रीका के आंदोलनों ने उनका कद भारत में सक्रिय होने से पहले ही काफी बढ़ा दिया था. दूसरे कांग्रेस सभी संगठनों का एक साझा मंच बन गया था, सो कांग्रेस से ही सभी जुड़े थे. ऐसे में चितरंजन दास ने भी कांग्रेस में रहकर काफी काम किया. उन्होंने भी गांधीजी के पहले बड़े आंदोलन यानी असहयोग आंदोलन में बढ़ चढ़ कर हिस्सा लिया था. उनकी पत्नी बसंती देवी और बहन उर्मिला देवी असहयोग आंदोलन में गिरफ्तार होने वाली पहली महिला कार्यकर्ता थीं. सुभाष चंद्र बोस तो उनकी पत्नी को ‘मां’ ही कहते थे. हमेशा विदेश से ही मंगाकर कपड़े पहनने वाले चितरंजन दास ने उन दिनों सारे विदेशी कपड़ों में आग लगा दी थी और स्वदेसी पहनने लगे थे.

स्वराज पार्टी का ऐलान

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स्वराज पार्टी का ऐलान

लेकिन 1921 में कांग्रेस के अहमदाबाद अधिवेशन में अध्यक्ष चुने जाने के बाद अगले अधिवेशन यानी गया अधिवेशन में भी चितरंजन दास अध्यक्ष तो चुने गए लेकिन गांधीजी के करीबियों के काउंसिल्स में एंट्री के मुद्दे पर विरोध करने पर चितरंजन दास नाराज हो गए. अगले साल चौरीचौरा कांड के चलते गांधीजी ने असहयोग आंदोलन वापस भी ले लिया. गांधीजी से बगावत करके उन्होंने अगले साल मोतीलाल नेहरू और हुसैन शहीद सुहारावर्दी के साथ मिलकर स्वराज पार्टी का ऐलान कर दिया था. 2 साल बाद ही उनकी तबियत ज्यादा खराब हुई तो अंतिम वक्त में उनसे मिलने खुद गांधीजी दार्जीलिंग आए थे. ये भी संयोग है कि गांधीजी से दूसरी बगावत भी बंगाली खून सुभाष चंद्र बोस ने 1939 में की थी.

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