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DNA: 1971 का युद्ध, जानिए कैसे इंदिरा गांधी की गलती की सज़ा Kashmir को मिली

1971 में 13 दिनों तक चले इस युद्ध ने न सिर्फ़ दुनिया का नक्शा बदलकर रख दिया था, बल्कि इसने भारत की छवि भी दुनिया के सामने बदल दी थी. आज हम आपको पांच-पांच बिंदुओं में ये बताना चाहते हैं कि उस युद्ध की वजह से भारत को क्या सफलताएं मिलीं और हमने इस दौरान क्या गलतियां की-

पाकिस्तान की हार का सच दुनिया के सामने

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पाकिस्तान की हार का सच दुनिया के सामने

49 साल पहले पाकिस्तान को जो शिकस्त मिली थी, उसे आज भी पाकिस्तान दिल से स्वीकार नहीं करता, लेकिन आज एक जाने माने पाकिस्तानी नागरिक ने ही उस हार का सच दुनिया के सामने रख दिया है. इस पाकिस्तानी का नाम है- हुसैन हक्कानी, जो अमेरिका में पाकिस्तान के राजदूत रह चुके हैं. हुसैन हक्कानी ने पाकिस्तान के एक अख़बार के Front Page को Tweet किया है .ये अख़बार 17 दिसम्बर 1971 को प्रकाशित हुआ था. इसके साथ उन्होंने लिखा कि झूठी ख़बरें कभी भी सच्चाई को छिपा नहीं सकती. 17 दिसम्बर 1971 का ये अख़बार तब कह रहा था कि पाकिस्तान जीत चुका है जबकि एक दिन पहले ही यानी 16 दिसम्बर 1971 को ढाका में पाकिस्तान सरेंडर कर चुका था. आज बांग्लादेश आर्थिक रूप से ताक़तवर देश है जबकि पाकिस्तान अब भी सिर्फ़ ख़बरों में ही है.

दुनिया में भारत की मजबूत छवि

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दुनिया में भारत की मजबूत छवि

1971 युद्ध की जीत ने दुनिया में भारत की छवि को मजबूत किया. ये एक ऐसा कदम था जिसने पूरे एशिया में भारत को एक शक्ति के तौर स्थापित किया. इससे पहले भारत को शांति के सिपाही के तौर पर देखा जाता था. इस जीत के बाद हमारी विदेश नीति में आए बदलाव को भी दुनिया ने देखा.

पाकिस्तान का एक हिस्सा उसके नक्शे से मिट गया

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पाकिस्तान का एक हिस्सा उसके नक्शे से मिट गया

दुनिया में कूटनीतिक और सामरिक सहयोग के मामले में उस समय हमारी स्थिति बहुत मज़बूत नहीं थी. अमेरिका जैसी महाशक्ति पाकिस्तान के साथ थी. बावजूद इसके हमारे नेतृत्व ने एक कठोर निर्णय लिया, जिसका परिणाम ये हुआ कि पाकिस्तान का एक हिस्सा उसके नक्शे से मिट गया और उसकी जगह नए देश, बांग्लादेश ने जन्म लिया.

पूर्वी सीमा पूरी तरह सुरक्षित हो गई

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पूर्वी सीमा पूरी तरह सुरक्षित हो गई

बांग्लादेश के नया देश बनने से हमारी पूर्वी सीमा पूरी तरह सुरक्षित हो गई. वरना पाकिस्तान जिस तरह आए दिन LOC के रास्ते भारत को नुकसान पहुंचाने की कोशिश करता है, वैसी कोशिशें पूर्वी सीमा से भी होती रहतीं.

ताकत और समन्वय को समझने का अवसर

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ताकत और समन्वय को समझने का अवसर

पाकिस्तान के ख़िलाफ़ 1971 के युद्ध में पहली बार भारतीय सेना के तीनों अंगों ने साथ मिलकर युद्ध लड़ा. इससे सेना को अपनी ताकत और समन्वय को समझने का अवसर मिला. भारतीय सेना ने इस युद्ध को पूर्वी और पश्चिमी दोनों सीमाओं पर लड़ा. आजकल जिस तरह से चीन और पाकिस्तान से हमारे रिश्ते हैं, उसमें Multi Front War का अनुभव होना अत्यंत आवश्यक है. आख़िरी बात ये है कि नया देश बनने के बाद से बांग्लादेश और भारत के रिश्ते ज़्यादातर समय अच्छे ही रहे हैं.  किसी देश के पड़ोस में अगर कोई शांतिपूर्ण देश होता है, तो उससे देश की चिंताएं कम होती हैं.

15 हज़ार वर्ग किलोमीटर ज़मीन भारत के पास आ गई

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15 हज़ार वर्ग किलोमीटर ज़मीन भारत के पास आ गई

अब बात करते हैं गलतियों की. इस युद्ध के दौरान पाकिस्तान में पंजाब और सिंध के कई इलाक़ों में भारतीय सेना का क़ब्जा हो गया था. हमारी फौज नियंत्रण रेखा को पार करके पाकिस्तान के कब्ज़े वाले कश्मीर में भी कई किलोमीटर अंदर तक चली गई थी. कुल मिलाकर पाकिस्तान की 15 हज़ार वर्ग किलोमीटर ज़मीन भारत के पास आ गई थी. ये इतनी ज़मीन थी जिसमें दिल्ली जैसे 10 शहर बसाए जा सकते हैं.

कई बातों को मनवाने में रहे नाकाम

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कई बातों को मनवाने में रहे नाकाम

ये पाकिस्तान की करारी हार थी, लेकिन जब भारत की इस विशाल जीत के बाद पाकिस्तान को मेज़ पर समझौते के लिये आना पड़ा, तो हम ऐसी कई बातों को मनवाने में नाकाम रहे, जो कश्मीर का मुद्दा हमेशा के लिये ख़त्म कर देतीं.

भारत और पाकिस्तान के बीच शिमला समझौता

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भारत और पाकिस्तान के बीच शिमला समझौता

दिसंबर 1971 में 13 दिनों तक चले युद्ध के 6 महीने बाद 2 जुलाई 1972 को भारत और पाकिस्तान के बीच शिमला समझौता हुआ था. इस पर भारत की तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी और पाकिस्तान के तत्कालीन प्रधानमंत्री जुल्फिकार अली भुट्टो ने हस्ताक्षर किए थे. इस समझौते में लिखा गया कि दोनों पक्ष सभी विवाद शांतिपूर्ण तरीके से निपटाएंगे. हर मतभेद को द्विपक्षीय तरीके से सुलझाया जाएगा. दोनों देश एक-दूसरे के आंतरिक मामलों में दख़ल नहीं देंगे और जम्मू-कश्मीर में नियंत्रण रेखा का उल्लंघन नहीं किया जाएगा.

भारत चाहता तो पाकिस्तान पर कश्मीर को लेकर दबाव बना सकता था...

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भारत चाहता तो पाकिस्तान पर कश्मीर को लेकर दबाव बना सकता था...

वर्ष 1971 का युद्ध जीतने के बाद भारत चाहता तो पाकिस्तान पर कश्मीर को लेकर दबाव बना सकता था. लेकिन तब शिमला समझौते में इंदिरा गांधी ने सद्भावना दिखाते हुए पाकिस्तान को पूरी ज़मीन वापस कर दी थी और बंदी बनाए गए 93 हज़ार सैनिकों को भी वापस भेज दिया गया. अगर डिप्लोमेसी में इसे भारत की हार नहीं कहेंगे तो इसे बड़ी जीत भी नहीं कह सकते.

 

अंतरराष्ट्रीय मुद्दा नहीं बना पाए

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अंतरराष्ट्रीय मुद्दा नहीं बना पाए

दूसरी असफलता ये थी कि अगर भारत चाहता तो सरेंडर करने वाले सैनिकों को वापस करने के बदले में पाकिस्तान के कब्ज़े वाला कश्मीर वापस मांग सकता था, लेकिन ऐसा नहीं किया गया. तीसरी असफलता ये कि पाकिस्तान की सेना ने बांग्लादेश में जिस तरह का नरसंहार किया था, उसे हम अंतरराष्ट्रीय मुद्दा नहीं बना पाए और दुनिया को कभी ठीक से पता नहीं चल पाया कि पाकिस्तान की सेना ने कितनी बर्बरता के साथ वहां रहने वाले हिंदुओं और बंगाली बोलने वाले लाखों लोगों की जान ले ली थी.

भारत ने कभी इस जीत का दुनिया में प्रचार नहीं किया

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भारत ने कभी इस जीत का दुनिया में प्रचार नहीं किया

चौथी असफलता ये थी कि इतनी बड़ी जीत के बाद भी भारत ने कभी इसका दुनिया में प्रचार नहीं किया. वैसे तो दुनिया हमेशा ताकतवर और युद्ध जीतने वाले देशों के सामने झुकती है, लेकिन जीत के बाद भी भारत ने कभी दुनिया को ये नहीं जताया कि अब दुनिया के बड़े बड़े फैसलों में भारत की भी अहम भूमिका होनी चाहिए.

बांग्लादेश से आए हिंदू शरणार्थियों को लंबे समय बाद मिला हक

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बांग्लादेश से आए हिंदू शरणार्थियों को लंबे समय बाद मिला हक

पांचवी असफलता ये थी कि हमने पाकिस्तान के दो टुकड़े करने वाली ये ऐतिहासिक सर्जरी तो सफलता पूर्वक कर ली. लेकिन इस सर्जरी के बाद आने वाले Complications यानी जटिलताओं को दूर करने के लिए हमने कुछ ख़ास नहीं किया. उदाहरण के लिए बांग्लादेश से आए हिंदू शरणार्थियों के लिए कुछ नहीं किया गया और नए नागरिकता कानून के तहत उन्हें उनका हक़ मिलने में 48 वर्षों का समय लग गया.

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