भारतीय संसद का पहला अविश्वास प्रस्ताव आचार्य कृपलानी ही लेकर आए थे, ऐसे में उनके बारे में जानना आपके लिए काफी दिलचस्प होगा.
ये तो तय था कि भारतीय संसद में पहला अविश्वास प्रस्ताव पंडित नेहरू के खिलाफ ही आया होगा. आखिर 1947 से लेकर 1964 तक लम्बा राज उन्होंने ही किया था. लेकिन आपको लगता होगा कि कोई विपक्ष का नेता लाया होगा. लेकिन किसने सोचा था कि गांधीजी के मजबूत सिपहासालार और आजादी के साल में कांग्रेस अध्यक्ष की कुर्सी पर विराजमान व्यक्ति ही देश की संसद में पीएम की कुर्सी पर पहली बार बैठने वाले कांग्रेस के नेहरू जैसे कद्दावर नेता के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लेकर आएगा, लेकिन ऐसा ही हुआ था.
जेबी कृपलानी, कभी इंग्लिश और इतिहास पढ़ाते थे, आदर से लोग उन्हें आचार्य जेबी कृपलानी कहने लगे थे और आज तक कहते हैं. खालिस गांधीवादी, सादगी के प्रतीक कृपलानी की एक बड़ी पहचान बाद में यूपी की पहली महिला चीफ मिनिस्टर बनने वाली सुचेता कृपलानी के पति के तौर पर भी रही है. जब वो गांधीजी के साथ जुड़े तो नौकरी छोड़ दी और गुजरात और महाराष्ट्र में गांधीजी के कई आश्रमों की व्यवस्था जमाने में मदद की. वो 1928 में ही कांग्रेस के महासचिव बन गए थे.दिलचस्प बात है कि 1928 में कांग्रेस अध्यक्ष मोतीलाल नेहरू को चुना गया था. सो नेहरू परिवार से उनकी भी नजदीकियां स्वभाविक थीं. ऐसे में जब भारत छोड़ो आंदोलन के चलते कांग्रेस के ज्यादातर बड़े नेता जेल भेज दिए गए, सो कांग्रेस अध्यक्ष का चुनाव 6 साल तक हो ही नहीं पाया, मौलाना आजाद ही बने रहे. जब सब नेता बाहर आए तो अंग्रेजों ने तय कर लिया कि अब भारत छोड़ देना है. ऐसे में कांग्रेस अध्यक्ष का चुनाव होना था. ये तो तय था कि जो कांग्रेस का अध्यक्ष होगा, बाद में वही देश का पहला प्रधानमंत्री चुना जाएगा. सभी प्रदेश कार्यकारिणियों से कहा गया कि नाम के प्रस्ताव भेजिए. 15 प्रदेश कमेटी थीं, जिनमें से 12 ने सरदार पटेल का भेजा और 2 का कृपलानी ने लेकिन किसी ने पंडित नेहरू का नहीं भेजा. सो गांधीजी थोड़े नाराज थे. लेकिन नाम का प्रस्ताव तो जरूरी था, सो गांधीजी ने अपने विश्वस्त कृपलानी को इस काम में लगाया कि कुछ ऑल इंडिया कांग्रेस कमेटी के सदस्य पंडित नेहरू के नाम का प्रस्ताव कर दें. कृपलानी जी ने गांधी के आदेश को मानकर ऐसा किया भी.
अंतिम चर्चा में गांधीजी ने पटेल को राजी भी कर लिया कि वो अपना नाम वापस ले लें और इस तरह पंडित नेहरू की ताजपोशी हुई. जब अध्यक्ष होने के नाते नेहरूजी का नाम पीएम पद के लिए चला गया तो अगला अध्यक्ष चुना जाना था. यानी देश की आजादी में कांग्रेस का अध्यक्ष कौन हो? जाहिर है आचार्य कृपलानी को इस मदद का लाभ मिला और उन्हें कांग्रेस का राष्ट्रीय अध्यक्ष चुन लिया गया. तभी आप हर किताब में उनका नाम पढ़ते आए हैं. भारत की लोकतांत्रिक परम्पराओं के इतिहास में आचार्य कृपलानी का नाम इसलिए भी लिया जाता है क्योंकि वह पहले व्यक्ति थे जो पंडित नेहरू के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लेकर आए थे. इससे पहले कभी किसी विपक्षी नेता ने इस बारे में सोचा तक नहीं था. इस अविश्वास प्रस्ताव को संसद में आचार्य कृपलानी ने चीन का युद्ध हारने के बाद पेश किया था. हालांकि कांग्रेस का बहुमत होने के नाते वो गिर गया था, लेकिन सांकेतिक तौर पर इसका असर काफी गहरा था. पंडित नेहरू के बाद कृपलानी इंदिरा के भी उतने ही विरोधी थे, जितने जेपी और राम मनोहर लोहिया थे. इंदिरा के खिलाफ उन्होंने भी कई मौकों पर विरोध किया और इमरजेंसी के दौरान उनकी भी गिरफ्तारी हुई, बाद में 1982 में इलाहाबाद में उनकी मौत हो गई. आखिरी दिनों में उन्होंने जो किताब लिखी उसमें उन्होंने गांधीजी, लोहिया और खान अब्दुल गफ्फार खान को छोड़कर बाकी सभी कांग्रेस नेताओं को जमकर लताड़ा, देश के विभाजन के लिए भी जिम्मेदार ठहराया था.
ऐसे में आपके मन में सवाल उठा होगा कि आखिर वो नेहरू और उनके परिवार के इतना खुलकर खिलाफ क्यों आ गए थे? इसके जवाब के लिए आपको बीच की कई घटनाएं जाननी होंगी. वह 1947 जैसे सबसे महत्वपूर्ण वर्ष में कांग्रेस प्रेसीडेंट बनाए गए. इधर ज्यादातर प्रमुख कांग्रेस नेता सरकार में चले गए थे, ऐसे में संगठन को नए सिरे नए लोगों के साथ खड़े करना था, चूंकि देश आजाद था इसलिए कोई आंदोलन भी टारगेट पर नहीं था, लेकिन आम जनता की उम्मीदें बहुत ज्यादा थीं. चूंकि सरकार से जुड़े लोग, मंत्री सांसद तो आसानी से जनता के संपर्क में नहीं थे, तो जनता सीधे पार्टी के नेताओं को पकड़ती थी ऐसे में कांग्रेस अध्यक्ष का काम रह गया था कि जनता से जुड़े बड़े मामलों को सरकार की जानकारी में लाकर उनको करने के लिए दवाब बनाना. लेकिन जब उन्हें लगा कि सरकार उन्हें इतनी तबज्जो नहीं दे रही है, जितनी कि एक कांग्रेस प्रेसीडेंट को मिलनी चाहिए और सरकार के किसी भी कामकाज में उनसे सलाह नहीं ली जा रही है तो तो उन्होंने एक प्रस्ताव रखा कि सरकार हर कदम पार्टी से पूछकर या सलाह के बाद ही उठाए. पार्टी को हर बड़े फैसले की जानकारी हो. जेबी कृपलानी के इस सुझाव या प्रस्ताव को पंडित नेहरू ने ये कहकर नकार दिया कि रोजमर्रा के काम में ये मुमकिन नहीं है. ये शायद दोनों के बीच तनातनी का पहला बड़ा मामला था, जो लम्बा खिंचा.
अगले साल भी उन्होंने कांग्रेस अध्यक्ष पद के लिए कोशिश की, लेकिन नेहरूजी का हाथ पट्टाभि सीतारमैया पर था और अगले दो साल वो प्रेसीडेंट रहे. हालांकि इन दो सालों में कृपलानी ने नेहरू से रिश्ते थोड़े से सुधारे थे. 1950 में जब सरदार पटेल के खेमे से पुरुषोत्तम दास टंडन ने कांग्रेस अध्यक्ष पद के लिए नामांकन किया तो उन्हीं के शहर इलाहाबाद और उन्हीं के पेशे यानी वकालत से ताल्लुक रखने वाले नेहरूजी उनको प्रेसीडेंट बनाने के सख्त खिलाफ थे. तो उन्होंने भी वही किया जो कभी गांधीजी ने नेताजी बोस के साथ किया था, नेहरूजी ने जेपी कृपलानी पर हाथ रख दिया और उनको अपना समर्थन दे दिया. जबकि पुरुषोत्तम दास टंडन को पटेल खेमा सपोर्ट कर रहा था, चुनाव नेहरू बनाम पटेल हो गया था. बावजूद पंडित नेहरू के समर्थन के भी कृपलानी हार गए. इस हार के बाद कृपलानी को कांग्रेस से समस्या हो गई और पंडित नेहरू से भी कि खुलकर साथ नहीं दिया. उसी साल पटेल की मौत हो गई, बाद में पुरुषोत्तम दास टंडन को भी नेहरूजी ने इस्तीफा देने के लिए मजबूर कर दिया लेकिन कृपलानी को दोबारा अध्यक्ष बनने का मौका नहीं मिला, खुद नेहरूजी ही पीएम और अध्यक्ष पद दोनों पर काबिज हो गए, अब तो उन्हें रोकने वाले पटेल भी नहीं बचे थे. आचार्य कृपलानी ने पूरी जवानी जिस पार्टी में लगा दी, उसको भारी मन से छोड़ दिया और किसान मजदूर प्रजा पार्टी शुरू कर दी, जो बाद में सोशलिस्ट पार्टी के साथ मिलकर ‘प्रजा सोशलिस्ट पार्टी बन गई’. लेकिन ये बात दिलचस्प है कि उनकी पत्नी सुचेता कृपलानी ने कांग्रेस नहीं छोड़ी. जो 1963 में यूपी की चौथी और पहली महिला सीएम बनीं. लेकिन जेबी कृपलानी जिंदगी भर विपक्ष में ही रहे, कांग्रेस में शामिल नहीं हुए. 1952, 1957, 1963 और 1967 के चुनावों में जीतकर लोकसभा पहुंचे.
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