भारत के राजनीतिक इतिहास को देखें तो पाएंगे कि ऐसे नेताओं की लंबी फेहरिस्त है जिन्होंने अपनी सादगी की वजह से दुनिया भर में नाम कमाया और जो कमाया उसे भी समाज के लिए न्योछावर कर दिया. ऐसे ही नेताओं में से एक थे उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री और राजस्थान के पूर्व राज्यपाल संपूर्णानंद.
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आगामी लोकसभा चुनाव से पहले तमाम पक्ष-विपक्ष की पार्टियां तैयारी में जुट गई हैं. साल के आखिर में होने वाले विधानसभा चुनावों और फिर लोकसभा चुनाव के लिए सभी पार्टियों ने जमीन तैयार करना शुरू कर दिया है. सियासी गलियारे में लोकसभा चुनाव की रणनीतियों पर चर्चा तेज हो चली है. आम लोगों में इन नेताओं के किस्से भी काफी ज्यादा चर्चा में हैं. ऐसे में देश के राज नेताओं का नाम आते ही एक चीज दिमाग में जरूर आती है और वो ये कि इस वर्ग के लोग आर्थिक रूप से तो समृद्ध होते ही हैं.
उनकी शान-ओ-शौकत देखकर ही लोग ये मान लेते हैं कि इनका जीवन आम आदमी से कहीं ज्यादा सुखद और आनंद से भरा होता है. हालांकि, भारत के राजनीतिक इतिहास को देखें तो पाएंगे कि ऐसे नेताओं की भी लंबी फेहरिस्त है जिन्होंने अपनी सादगी की वजह से दुनिया भर में नाम कमाया और जो कमाया उसे भी समाज के लिए न्योछावर कर दिया. ऐसे ही नेताओं में से एक थे उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री और राजस्थान के पूर्व राज्यपाल संपूर्णानंद.
राजस्थान से आते थे पैसे
कहा जाता है कि इतने महत्वपूर्ण और बड़े पदों पर रहने वाले संपूर्णानंद को अपने जीवन के आखिरी दिनों में काफी परेशानी का सामना करना पड़ा था. हालत ऐसी थी कि उनके लिए दूसरे राज्य के मुख्यमंत्री आर्थिक रूप से मदद भेजा करते थे.
बनारस में साल 1980 में जन्में डॉ. संपूर्णानंद ने पहले पत्रकारिता की और फिर काशी विद्यापीठ में पढ़ाने का भी काम किया. इस दौरान उनकी तीन पत्नियों का निधन हो गया, इससे वो पूरी तरह टूट चुके थे. उन्होंने संन्यास लेने की ठान ली, लेकिन तभी वो स्वतंत्रता आंदोलन में शामिल हो गए. उन्होंने कांग्रेस का दामन थामा और 1926 में पार्टी की तरफ से विधानसभा चुनावों में जीत दर्ज की. इसके बाद साल 1937 में उन्हें उत्तर प्रदेश का शिक्षा मंत्री बनाया गया.
1945 में बने यूपी के सीएम
साल 1945 में गोविंद बल्लभ पंत को पंडित जवाहरलाल नेहरू द्वारा अपनी कैबिनेट में शामिल किए जाने के बाद संपूर्णानंद को उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री बना दिया गया. वो 1962 तक सूबे के सीएम रहे. इसके बाद उन्हें राजस्थान का राज्यपाल बना दिया गया. 1967 में राज्यपाल के तौर पर कार्यकाल खत्म होने के बाद उन्हें आर्थिक रूप से तंगी का सामना करना पड़ा.
इस अवस्था में राजस्थान के मुख्यमंत्री मोहनलाल सुखाड़िया ने उनकी काफी मदद की. वो हर महीने संपूर्णानंद को पैसे भेजते ताकि उन्हें किसी प्रकार की दिक्कत न हो. 10 जनवरी 1969 के दिन उन्होंने दुनिया को अलविदा कह दिया.