सिर्फ राजस्थान बस में नहीं देश के कई राज्यों में है लंपी डिसीज का कहर, जानें क्या है बचाव
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सिर्फ राजस्थान बस में नहीं देश के कई राज्यों में है लंपी डिसीज का कहर, जानें क्या है बचाव

Gudamalani: प्रदेश भर में लगातार फैल रही संक्रामक बिमारी खासकर गायों और भैंसों में यह बिमारी देखी जा रही है. इस बीमारी ने हर कोई को हैरत में डाल दिया है. बड़ी संख्या में पशु इस बीमारी की चपेट में आए हैं. 

प्रदेश में लम्पी के बढ़ते संक्रमण को देखते हुए पशुपालकों को सर्तक रहने की जरूरत.

Gudamalani: प्रदेश भर में लगातार फैल रही संक्रामक बिमारी खासकर गायों और भैंसों में यह बिमारी देखी जा रही है. इस बीमारी ने हर कोई को हैरत में डाल दिया है. बड़ी संख्या में पशु इस बीमारी की चपेट में आए हैं. कई पशुओं की जान भी चली गई है. कृषि विज्ञानं केंद्र गुडामालानी के एस.आर.एफ. डॉ. रावताराम भाखर ने बताया कि खासकर गायों और भैंसों की एक अत्यधिक संक्रामक बीमारी है, जो अन्य पशुओं या मनुष्यों को प्रभावित नहीं करती है. यह रोग भेड़ चेचक और बकरी चेचक जैसे वायरस के कारण होता है. ज्यादातर परजीवी जैसे मच्छर, मक्खियों एवं कीड़ों के काटने से फैलता है. 

हाल ही में राजस्थान के बहुत से जिलों के गौवशों में गाँठदार त्वचा रोग या ''लंपी स्किन डिजीज'' के संक्रमण के मामले देखने को मिले हैं. जिस प्रकार से बीते कुछ दिनों में इस रोग के बारे में पशुपालकों में एक बहुत ही खतरनाक बीमारी के रूप में प्रचार प्रसार हुआ है,

वह कहीं ना कहीं सही भी है, हालांकि इस रोग के कारण पशुओं में मृत्यु दर काफी कम या 10 प्रतिशत से भी कम है, लेकिन दुधारू पशुओं में रूप से पशुपालकों को काफी नुकसान उपरोक्त दवाओं के उपचार से पशु उठाना पड़ सकता है. अस्वस्थता, आंख और नाक से पानी आना, बहुत तेज़ बुखार तथा दूध के उत्पादन में अचानक कमी आदि शामिल है.

पशुधन विशेषज्ञों के मुताबिक लम्पी स्किन डिजीज देश में सबसे पहले पं. बंगाल में तीन साल पहले रिपोर्ट हुई थी.  इसके बाद बिहार, ओडिसा में रिपोर्ट हुई. लेकिन, सरकार की उदासीनता के चलते यह बीमारी अब प्रदेश के साथ-साथ देश के अधिकांश राज्यों में महामारी का रूप लेती जा रही है.

डॉ. रावता राम भाखर ने बताया कि राजस्थान ही नहीं, महाराष्ट्र, झारखंड, छत्तीसगढ, ओडिसा, केरल, तमिलनाडु, तेलंगाना, प. बंगाल आसाम, मध्यप्रदेश, गुजरात सहित दूसरे राज्यों में भी लम्पी स्किन डिजीज के मामले तेजी से बढ़ रहे हैं. संक्रमित पशु के शरीर पर बैठने वाली मख्खियां और मच्छर जब स्वस्थ पशु के शरीर पर पहुंचते हैं तो संक्रमण उनके अंदर भी पहुंचा देते है.

दूषित दाने पानी के सीधे सम्पर्क और संक्रमित पशुओं को इंजेक्शन लगाकर उसको स्वस्थ पशुओं में लगाने से भी फैल जाता है. बीमार पशुओं को एक से दूसरे जगह ले जाने अथवा उसके संपर्क में आने वाले अन्य पशु भी संक्रमित हो जाते हैं.

4-5 सप्ताह तक रहता है प्रभाव 

कृषि विज्ञानं केंद्र के पशु चिकत्सक डॉ. रावताराम भाखर ने बताया कि भारत में इस बीमारी का प्रवेश अफ्रीकी देशों से हुआ है. यहां 8-9 दशक से इस बीमारी का प्रकोप होता रहा है. लेकिन, प्रदेश और देश के लिए यह बीमारी नई है. उन्होंने बताया कि रोग की चपेट में गौवंश ज्यादा आता है. रोग के चलते मवेशियों में त्वचा पर 5-7 सेमी. आकार की गांठे बन जाती है. मक्खी, मच्छर, चिचड़ आदि रोग के से मण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते है. उन्होंने बताया कि इस बीमारी पर अब तक कोई अध्ययन नहीं हुआ है. लेकिन, देश-प्रदेश में बढ़ती संमण दर को देखते हुए इस दिशा में शोध की जरुरत है. उन्होंने बताया कि इस रोग से मृत्यु दर 1 से 5 फीसदी तक रिकॉर्ड हुई है. यह वायरल डिजीज है.

कब फैलता है एलएसडी रोग
एलएसडी रोग का प्रकोप गर्म और आद नमी वाले मौसम में अधिक होता है. आगामी मानसून के मौसम को देखते हुए इस रोग के बारे में जागरूकता फैलानी जरूरी है. इस रोग में पशुओं को बुखार और उनकी लिम्फ ग्रंथियों में सूजन आ जाती है. शरीर में जकड़न आ जाती है. पशु की त्वचा पर ढेलेदार गांठ बन जाती है. साथ ही, संक्रमित पशु के नाक और आंख से स्त्राव निकलने लगता है, निमोनिया जैसे लक्षण दिखाई देते है. कभी-कभी पशुओं के श्वसन मार्ग और आहारनाल में भी घाव हो जाता हैं.

रोग के लक्षण
इस रोग में पशुओं के पूरे शरीर में विशेष रूप से पशु के मुँह, गर्दन, थनों और जननांगों के आसपास की त्वचा पर भरे हुए नोड्यूल विकसित होते हैं.
शरीर के किसी भी हिस्से पर नोड्यूल या गांठें विकसित हो सकती हैं.
गांठों के फूटने से बड़े छेंद हो जाते हैं, जिनसे तरल निकलता रहता है.
जिससे संक्रमण और ज्यादा फैलता है. जननांगों में भारी सूजन हो सकती है. आंखों में पानी आना
रोग वाले कुछ जानवर स्पर्शोन्मुख हो सकते हैं (बीमारी है लेकिन लक्षण नहीं दिखाते हैं)
दो से तीन सप्ताह में सही हो जाता है.

रोग फैलाव का तरीका
यह मच्छरों, मक्खियों और जूं के साथ पशुओं की लार तथा दूषित जल एवं भोजन के माध्यम से फैलता है. पश्चिमी जिलों में सिंचाई की समस्या के चलते किसान पशु को चरने के लिए खुला छोड़ देते हैं. घर पर दिए जाने वाले आहार में भी सूखे चारे की मात्रा ज्यादा होती है. हरा चारा नहीं मिलने के कारण पशु का इम्युनिटी सिस्टम गड़बड़ाने लगता है. इससे पशु की रोगप्रतिरोधकता में कमी आती है.

रोग से बचाव

  • गांठदार त्वचा रोग का नियंत्रण और रोकथाम के लिए पशुपालकों को कई बिंदुओं पर ध्यान देना आवश्यक है जो निम्नलिखित हैं
  • पशुशाला या पशु डेयरी में लोगों और अन्य पशुओं की आवाजाही पर नियंत्रण (क्वारंटीन)
  • रोगग्रस्त पशुओं को स्वस्थ पशुओं से अलग रखने की व्यवस्था
  • पशुशाला या पशु डेयरी में परजीवी नियंत्रण लिए उपयोगी टीकाकरण से इस रोग में कुछ हद तक फायदा मिल सकता है
  •  पशुशाला के आसपास पानी इकट्ठा. इस रोग के अन्य लक्षणों में सामान्य ना होने दें.

रोग का इलाज
विषाणु जनित रोग होने के कारण इस रोग का कोई इलाज नहीं होने के कारण नही है कोई टीका भी नही हें रोकथाम व नियंत्रण का सबसे प्रभावी साधन है. पशुओं में हुए इस रोग के कारण सम्भावित द्वितीयक संक्रमणों की रोकथाम के लिए उपचार के तौर पर दर्द एवं सूजन निवारक दवाओं के प्रयोग के साथ साथ एंटीबायोटिक दवाओं का उपयोग किया जा सकता है. घावों की रोगाणु रोधक दवाओं के यह रोग एक बार होने के बाद आर्थिक उपयोग से हर रोज सफाई.

पशु स्वास्थ्य पर असर
डॉ. रावता राम भाखर ने बताया कि गांठ के पककर फूटने के बाद शरीर में घाव बन जाता है. जिसमें अगर मक्खियां बैठती हो तो कीड़े पड़ जाते हैं. घाव नेक्वोटीक भी हो जाते हैं. पशु कमजोर हो जाते हैं. इससे पशु के दूध उत्पादन पर भी प्रभाव पड़ता है और गर्भपात भी हो जाता हैं. किसी पशु में लक्षण तीव्र होने पर और निमोनिया के कारण पांवों और गलकम्बल में सूजन आ जाती है और श्वास लेने में कठिनाई होने लगती है.

सर्तकता जरूरी
प्रदेश में लम्पी के बढ़ते संक्रमण को देखते हुए पशुपालकों को सर्तक रहने की जरूरत है. यदि पशुपालक उक्त लक्षण पशु में पाते है तो संक्रमित पशु को एक जगह बांधकर रखें. उन्हें स्वस्थ पशुओं के संपर्क में न आने दें. बीमार पशुओं का वेटरनरी डॉक्टर से उपचार करवाएं. त्वचा पर घाव हो रहा है तो नीम के पत्ती गुनगुने पानी मे डाल कर उसके घोल से धुलाई कर नीम का तेल भी लगाते रहें.

पशु बाड़े में सुबह शाम नीम अथवा गूगल का धुंआ करें. जूं-चींचड़ से बचाने के लिए सप्ताह में एक बार जूं-चींचडनाशी जहर से सावधानी पूर्वक नहलाये और ध्यान रखे कि पशु जहर को चाट नहीं जाए.

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