बाबा रामदेवरा अवतरण तिथि 8 सितंबर को, खम्मा-खम्मा हो म्हारा रुणिचै रा धनियां...!!
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बाबा रामदेवरा अवतरण तिथि 8 सितंबर को, खम्मा-खम्मा हो म्हारा रुणिचै रा धनियां...!!

राजस्थान में अनेक ऐसे महापुरूष हुए जिन्होंने मानव देह धारण कर अपने कर्म और तप से यहां के लोक जीवन को आलोकित किया. उनके चरित्र, कर्म और वचनबद्धता से उन्हें जनमानस में लोकदेवता की पदवी मिली और वे जन−जन में पूजे जाने लगे.

फाइल फोटो

Jaipur : राजस्थान में अनेक ऐसे महापुरूष हुए जिन्होंने मानव देह धारण कर अपने कर्म और तप से यहां के लोक जीवन को आलोकित किया. उनके चरित्र, कर्म और वचनबद्धता से उन्हें जनमानस में लोकदेवता की पदवी मिली और वे जन−जन में पूजे जाने लगे. ऐसे ही लोकदेवताओं में बाबा रामदेव (Baba Ramdev) जिनका प्रमुख मंदिर जैसलमेर जिले के रामदेवरा (Ramdevra) में है, सद्भावना की जीती जागती मिसाल हैं. हिन्दू समाज में वे 'बाबा रामदेव' एवं मुस्लिम समाज 'रामसा पीर' के नाम से पूजनीय हैं. 

पाल बालाजी ज्योतिष संस्थान जयपुर - जोधपुर के निदेशक ज्योतिषाचार्य अनीष व्यास (Astrologer Anish Vyas) ने बताया कि बाबा रामदेव को कृष्ण भगवान का अवतार माना जाता है. उनकी अवतरण तिथि भाद्र माह के शुक्ल पक्ष दितीय को रामदेवरा मेला आने वाली 8 सितंबर को शुरू होता है. बाबा रामदेव के प्राकट्य दिवस पर उदया तिथि में त्रिपुष्कर योग और उसके पश्चात दिन में सर्वार्थ सिद्धि योग रहेगा. यह मेला एक महीने से अधिक चलता है. वैसे बहुत से श्रद्धालु भाद्र माह की दशमी यानी 16 सितंबर को रामदेव जयंती पर रामदेवरा अवश्य पहुँचना चाहते हैं. लेकिन कोरोना महामारी के चलते मेला नहीं लगेगा. म्हारो हेलाे सुनो जी रामा पीर.., घणी-घणी खम्मा बाबा रामदेव जी नै..., पिछम धरां स्यूं म्हारा पीर जी पधारिया..., घर अजमल अवतार लियो, खम्मा-खम्मा हो म्हारा रुणिचै रा धनियां ...जैसे भजनों पर झूमते-नाचते हुए श्रद्धालु रामदेवरा पहुचते हैं. राजस्थान में पोकरण से करीब 12 किलोमीटर दूर रामदेवरा में मध्यकालीन लोक देवता बाबा रामदेव के दर्शन करने आते हैं. 

ज्योतिषाचार्य अनीष व्यास ने बताया कि वर्ष में दो बार रामदेवरा में भव्य मेलों का आयोजन किया जाता है. शुक्ल पक्ष में तथा भादवा और माघ में दूज से लेकर दशमीं तक मेला भरता है. भादवा के महिने में राजस्थान के किसी सड़क मार्ग पर निकल जायें, सफेद रंग की या पचरंगी ध्वजा को हाथ में लेकर सैंकड़ों जत्थे रामदेवरा की ओर जाते नजर आते हैं. इन जत्थों में सभी आयु वर्ग के नौजवान, बुजुर्ग, स्त्री−पुरूष और बच्चे पूरे उत्साह से बिना थके अनवरत चलते रहते हैं. बाबा रामदेव के जयकारे गुंजायमान करते हुए यह जत्थे मीलों लम्बी यात्रा कर बाबा के दरबार में हाजरी लगाते हैं. साथ लेकर गये ध्वजाओं को मुख्य मंदिर में चढ़ा देते हैं. भादवा के मेले में महाप्रसाद बनाया जाता है. यात्री भोजन भी करते हैं और चन्दा भी चढ़ाते हैं. यहां आने वालों के लिए बड़ी संख्या में धर्मशालाएं और विश्राम स्थल बनाये गये हैं. सरकार की ओर से मेले में व्यापक प्रबंध किये जाते है. रात्रि को जागरणों के दौरान रामदेवजी के भोपे रामदेवजी की थांवला एवं फड़ बांचते हैं.

ज्योतिषाचार्य अनीष व्यास ने बताया कि सांप्रदायिक सदभाव के प्रतीक माने जाने वाले लोकदेवता बाबा रामदेव की समाधि के दर्शन के लिए विभिन्न धर्मों को मानने वाले, ख़ास तौर पर आदिवासी श्रद्धालु देश भर से इस सालाना मेले में आते हैं. मेले के दौरान बाबा के मंदिर में दर्शन के लिए चार से पांच किलोमीटर लंबी कतारें लगती हैं और जिला प्रशासन के अलावा विभिन्न स्वयंसेवी संगठन दर्शनार्थियों की सुविधा के लिए निःस्वार्थ भोजन, पानी और स्वास्थ्य सेवाएँ उपलब्ध कराते हैं. लोकदेवता बाबा रामदेव जी के मेले में देश के कोने कोने से लाखों श्रद्धालु सर्वप्रथम जोधपुर (Jodhpur) में मसूरिया पहाड़ी पर स्थित बाबा रामदेव जी के गुरु बाबा बालीनाथ जी की समाधि के दर्शन के बाद रूणिचा धाम बाबा रामदेव जी के दर्शन करने के लिए पैदलयात्रा के साथ साथ विभिन्न साधनों का प्रयोग करके बाबा रामदेव जी के प्रति अटूट श्रद्धा और आस्था का परिचय दे रहे हैं. इन श्रद्धालुओं के स्वागत व मान मनुहार और पैदल यात्रियों की सेवा  के लिए जोधपुर में अनेकों सेवा शिविर आयोजित किए जाते हैं, लेकिन कोरोना महामारी के चलते मेला नहीं लगेगा.

अनीष व्यास ने बताया कि श्रद्धा और सामर्थ्य के अनुसार व्यक्तिगत, सामुदायिक, सामूहिक और संघीय समितियों के बेनर तले लगाये जाने वाले इन विभिन्न शिविरों में जातरूओं के लिए चाय, दूध, कॉफी, जूस, बिस्किट, फल, नाश्ता से लेकर पूर्ण भोजन की व्यवस्था के साथ साथ पैदल यात्रियों के पांवों में पड़े छालों पर मरहम पट्टी बांधकर, मालिश करके उनके विश्राम, नहाने धोने व नित्य कर्म करने की सुविधाएं भी उपलब्ध कराई जाती हैं. अनीष व्यास ने बताया कि कई शिविरों में बड़े अनुशासित ढंग से स्वच्छता और सुचिता के साथ उच्च कोटि की सुविधाओं से जातरुओं की सेवा की जाती है. एक और मान्यता है कि अगर कोई व्यक्ति ईश्वर के दर्शन करने के लिए यात्रा करने जाता है तो उसकी यात्रा को सुगम बनाने में अगर आप सहयोग देते हैं तो आपको भी ईश्वर के साक्षात दर्शन करने का पुण्य लाभ मिलता है. रुणिचा में बाबा ने जिस स्थान पर समाधि ली, उस स्थान पर बीकानेर के राजा गंगासिंह ने भव्य मंदिर का निर्माण करवाया. इस मंदिर में बाबा की समाधि के अलावा उनके परिवार वालों की समाधियां भी स्थित हैं. मंदिर परिसर में बाबा की मुंहबोली बहन डाली बाई की समाधि, डालीबाई का कंगन एवं राम झरोखा भी स्थित हैं. 

रामदेव जी की कहानी 
अनीष व्यास ने बताया कि रामदेव जी के जन्म स्थान को लेकर मतभेद है, परन्तु इसमें सब एक मत है कि उनका समाधी स्थल रामदेवरा ही है. यहां वे मूर्ति स्वरूप में पूजे जाते हैं. रामदेवरा में उन्होंने जीवित समाधी ली थी और यहीं पर उनका भव्य मंदिर बना हुआ है. पूर्व में समाधी छोटे छतरीनुमा मंदिर में बनी थी. वर्ष 1912 में बीकानेर के तत्कालीन शासक महाराजा गंगासिंह ने छतरी के चारों तरफ बड़े मंदिर का निर्माण कराया, जिसने शनः−शनः भव्य मंदिर का रूप ले लिया. बाबा की समाधी के सामने पूर्वी कोने में अखण्ड ज्योति प्रज्जवलित रहती है. दर्शन द्वार पर लोहे का चैनल गेट लगाया गया है. दर्शनार्थी अपनी मनौती पूर्ण करने के लिए कपड़ा, मौली, नारियल आदि बांधते हैं तथा मनौती पूर्ण होने पर खोल देते हैं. 

बताया जाता है कि उस समय मंदिर के निर्माण में 57 हजार रूपये की लागत आई थी. यह मंदिर हिन्दुओं एवं मुसलमानों दोनों की आस्था का प्रबल केन्द्र है. मंदिर में बाबा रामदेव की मूर्ति के साथ−साथ एक मजार भी बनी है. विश्वविख्यात भविष्यवक्ता और कुण्डली विश्ल़ेषक अनीष व्यास ने बताया कि राजस्थान से ही नहीं गुजरात, महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश से भी बड़े पैमाने पर श्रद्धालु यहां दर्शन करने आते हैं. मंदिर में प्रातः 04.30 बजे मंगला आरती, प्रातः 8.00 बजे भोग आरती, दोपहर 3.45 बजे श्रृंगार आरती, सायं 7.00 बजे संध्या तथा रात्रि 9.00 बजे शयन आरती होती है. समाधी स्थल के पास ही रामदेवजी की परमभक्त शिष्या डाली बाई की समाधी और कंगन हैं. डाली बाई का कंगन पत्थर से बना है और इसके प्रति धर्मालुओं में गहरी आस्था है. मान्यता के अनुसार इस कंगन के अन्दर से होकर निकलने पर सभी प्रकार के रोग दूर हो जाते हैं. मंदिर आने वाले लोग इस कंगन के अन्दर से निकलने पर ही अपनी यात्रा पूर्ण मानते हैं.

अनीष व्यास ने बताया कि मंदिर के समीप ही स्वयं रामदेव जी द्वारा खुदवाई गई परचा बावड़ी अपनी स्थापत्य कला में बेजोड़ है. इस बावड़ी का निर्माण फाल्गुन सुदी तृतीया विक्रम संवत् 1897 को पूर्ण हुआ. बावड़ी का जल शुद्ध व मीठा है. बावड़ी का निर्माण रामदेव जी के कहने पर बणिया बोयता ने करवाया था. बावड़ी पर लगे चार शिलालेखों से पता चलता है कि घामट गांव के पालीवाल ब्राह्मणों ने इसका पुनर्निर्माण कराया था. इस बावड़ी का जल रामदेवजी का अभिषेक करने के काम में लाया जाता है. गांव के निवासियों को जल का अभाव न रहे इसलिए रामदेव जी ने मंदिर के पीछे विक्रम संवत् 1439 में रामसरोवर तालाब खुदवाया था. यह तालाब 150 एकड क्षेत्र में फैला है तथा इसकी गहराई 25 फीट है. तालाब के पश्चिमी छोर पर अद्भुत आश्रम तथा पाल के उत्तरी सिरे पर रामदेवजी की जीवित समाधी है. इसी क्षेत्र में डाली बाई की जीवित समाधी भी है. तालाब के तीनों ओर पक्के घाट बनाये गये हैं. इसकी पाल पर श्रद्धालु पत्थरों से छोटे−छोटे मकान बनाकर अपने सपनों का घर बनाने की रामदेव जी से विनती करते हैं. बताया जाता है इस तालाब की मिट्टी के लेप से चर्म रोग दूर हो जाता है. कई श्रद्धालु तालाब की मिट्टी अपने साथ ले जाते हैं.

अनीष व्यास ने बताया कि रामदेवरा मंदिर से 2 किलोमीटर दूर पूर्व में निर्मित रूणीचा कुंआ (राणीसा का कुंआ) और एक छोटा रामदेव मंदिर भी दर्शनीय है. बताया जाता है कि रानी नेतलदे को प्यास लगने पर रामदेव जी ने भाले की नोक से इस जगह पाताल तोड़ कर पानी निकाला था और तब ही से यह स्थल "राणीसा का कुंआ" के नाम से जाना गया. कालान्तर में अपभ्रंश होते−होते "रूणीचा कुंआ" में परिवर्तित हो गया. जिस पेड़ के नीचे रामदेव जी को डाली बाई मिली थी, उस पेड़ को डाली बाई का जाल कहा जाता है. बाबा रामदेव जी के 24 परचों में पंच पीपली भी प्रसिद्ध स्थल है. इस सम्बंध में प्रचलित कथानक के अनुसार रामदेव जी की परीक्षा के लिए मक्का−मदीना से पांच पीर रामदेवरा आये और उनके अतिथि बने. भोजन के समय पीरों ने कहा कि वे स्वयं के कटोरे में ही भोजन करते हैं. 

रामदेव ने वहीं बैठे−बैठे अपनी दाई भुजा को इतना लम्बा फैलाया कि मदीना से उनके कटोरे वहीं मंगवा दिये. पीरों ने उनका चमत्कार देखकर उन्हें अपना गुरु (पीर) माना और यहीं से रामदेव जी का नाम रामसा पीर पड़ा और बाबा को "पीरो के पीर रामसा पीर" की उपाधी भी प्रदान की गई. इस घटना से मुसलमान इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने भी इनकी पूजा करनी शुरू कर दी. रामदेवरा से पूर्व की ओर 10 किलोमीटर एकां गांव के पास छोटी सी नाडी के पाल पर घटित इस घटना के दौरान पीरों ने भी परचे स्वरूप पांच पीपली लगाई थी, जो आज भी मौजूद हैं. यहां बाबा रामदेव का एक छोटा सा मंदिर व सरोवर भी बना है. मंदिर में पुजारी द्वारा नियमित पूजा की जाती है. रामदेवरा में रामदेवजी के मंदिर से मात्र 1.5 किलोमीटर दूर आरसीपी रोड पर श्री पार्श्वनाथ जैन मंदिर, गुरु मंदिर एवं दादाबाड़ी दर्शनीय क्षेत्र हैं.

अनीष व्यास ने बताया कि बाबा रामदेव का जन्म वैष्णव भक्त अजमल जी के घर मैणादे की कोख से हुआ था. अजमल जी किसी समय दिल्ली के सम्राट रहे एवं अनंगपाल तंवर के वंशज थे. बाद में वे आकर पश्चिमी राजस्थान में निवास करने लगे. अजमल जी द्वारिकाधीश के अनन्य भक्त थे. मान्यता है कि भगवान कृष्ण की कृपा से बाबा रामदेव का जन्म हुआ. उनके जन्म से लौकिक एवं अलौकिक चमत्कारों, शक्तियों का उल्लेख उनके भजनों, लोकगीतों और लोककथाओं में व्यापक रूप से मिलता है. उनके लोक गीतों और कथाओं में भैरव राक्षस का वध, घोड़े की सवारी, लक्खी बनजारे का परचा, पांचों पीर का परचा, नेतलदे की अपंगता दूर करने आदि के उल्लेख बखूबी पाये जाते हैं. उनके घोड़े की श्रद्धा से पूजा की जाती है.

अनीष व्यास ने बताया कि रामदेवजी ने तत्कालीन समाज में व्याप्त छूआछूत, जात−पांत का भेदभाव दूर करने तथा नारी व दलित उत्थान के लिए प्रयास किये. अमर कोट के राजा दलपत सोढा की अपंग कन्या नेतलदे को पत्नी स्वीकार कर समाज के समक्ष आदर्श प्रस्तुत किया. दलितों को आत्मनिर्भर बनने और सम्मान के साथ जीने के लिए प्रेरित किया. उन्होंने पाखण्ड व आडम्बर का विरोध किया. उन्होंने सगुन−निर्गुण, अद्वैत, वेदान्त, भक्ति, ज्ञान योग, कर्मयोग जैसे विषयों की सहज व सरल व्याख्या की. आज भी बाबा की वाणी को "हरजस" के रूप में गाया जाता है.

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