मातृभाषा दिवस: राजस्थानी भाषा की मान्यता के संघर्ष का इतिहास, कब मिलेगा सम्मान ?
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मातृभाषा दिवस: राजस्थानी भाषा की मान्यता के संघर्ष का इतिहास, कब मिलेगा सम्मान ?

अफसोस, Google Samachar की दुनिया में आज मातृभाषा दिवस पर हमें अपनी मायड़ भाषा राजस्थानी के इतिहास, राजस्थानी भाषा की स्थिति और राजस्थानी भाषा की मान्यता को लेकर बात भी हिंदी में लिखनी पड़ रही है. 

मातृभाषा दिवस: राजस्थानी भाषा की मान्यता के संघर्ष का इतिहास, कब मिलेगा सम्मान ?

Jaipur: अफसोस, Google Samachar की दुनिया में आज मातृभाषा दिवस पर हमें अपनी मायड़ भाषा राजस्थानी के इतिहास, राजस्थानी भाषा की स्थिति और राजस्थानी भाषा की मान्यता को लेकर बात भी हिंदी में लिखनी पड़ रही है. एक ऐसी भाषा जो आजादी से पहले राजस्थान, मालवा और उमरकोट (आज पाकिस्तान में ) की राजभाषा थी. साहित्यिक तौर पर जिस डिंगल ने दुनिया में डंका बजाया. वो अपने ही मुल्क, अपने ही सूबे में पहचान की मोहताज है. 

आभलिया तूं रूप सरूप, बादळ बिन बरसे नहीं 
साळा घणां सपूत, भीड़ भाईयों बिना भागे नहीं 

मतलब ये कि आसमान कितना भी खूबसूरत हो, बादल के बिना बारिश नहीं होती और साले कितने भी सपूत हो लेकिन घर में भीड़, घर भरा और खुशहाल तभी लगेगा जब आंगन में अपने भाई खड़े हो. ठीक उसी तरह, व्यवसायिक नजरिए से अंग्रेजी समेत तमाम भाषाएं कितनी भी समृद्ध नजर आती हो लेकिन अपनत्व और आनंद की परम अनुभूति तभी होती है. जब हम राजस्थानी भाषा में किसी से बात करें. राजस्थानी भाषा आजादी से पहले राजस्थान, मालवा और उमरकोट की राजभाषा थी. राजस्थानी भाषा की करीब दर्जनभर बोलियां है. मारवाड़ी, मेवाड़ी, मेवाती, ढ़ूंढ़ाड़ी, वागड़ी, हाड़ौती, ब्रज, माळवी, भीली, पहाड़ी और खानाबदोषी बोलियां है. जबकि राजस्थान की साहित्यिक लेखनी डिंगली और पिंगल. दो भाषाओं में होता है 

डिंगल और पिंगल में अंतर 
आजाद भारत के लिहाज से समझें तो उमरकोट और पश्चिमी राजस्थान के क्षेत्र में जिस भाषा में साहित्यिक रचनाएं होती थी. उसे डिंगल कहते थे. डिंगल भाषा का अधिकांश साहित्य चारण कवियों ने लिखा. इसके अलावा पीथल के नाम से प्रसिद्ध पृथ्वीराज राठौड़ ने भी वैली कृष्ण रुखमणी री, दसम भागवत रा दूहा समेत तमाम रचनाएं भी डिंगल भाषा में लिखी. इसके अलावा ईसरदासजी, दुरजा जी आढ़ा, सूर्यमल्ल मिश्रण, बांकीदानजी आशिया और करणीदान कविया डिंगल के प्रमुख कवि थे.     डिंगल शब्द का पहली बार प्रयोग बांकीदास ने विक्रम संवत 1871 में किया था. 'डींगलियाँ मिलियाँ करै, पिंगल तणो प्रकास' 

जब हम पूर्वी राजस्थान की ओर आते है. और जहां राजस्थानी भाषा और ब्रज भाषा आपस में मिल जाती है. उस क्षेत्र की साहित्यिक रचनाएं जिस भाषा में हुई उसे “पिंगल” कहा गया. इसमें सबसे ज्यादा लेखन भाटों ने किया है. मां और मायड़ भाषा को बराबर दर्जा दिया जाता है. लेकिन जब मायड़ भाषा अपने अस्तित्व की जंग लड़ रही हो. सिसक रही हो, बेदम हो रही हो. उस दौर में यदि भाषा रुपी मां के सपूत अपनी आवाज को मजबूत न करें, उसका सहारा न बने, तो “कपूतों” के लक्षण है.  

आजादी से पहले हमारे यहां जागीदारी से लेकर रियासत तक, हर स्तर पर लेखक और कवियों का सम्मान होता था. जागीरदार, सामंत या उस रियासत का राजा. किसी कवि या लेखक को सम्मान/भेंट देने में अपनी शान समझता था. लिहाजा हमारी भाषा बहुत से लोगों के लिए रोजगार का जरिया भी थी. लेकिन आजाद भारत में रियासतें और रजवाड़े खत्म हो गए. और जब हमारी संस्कृति और भाषाओं को संवैधानिक दर्जे से दूर रखा. तो वो भी तिल तिल खत्म होने लगी.  

जिन नेताओं पर राजस्थानी भाषा को संवैधानिक सम्मान दिलाने की जिम्मेदारी थी. उन्हौने न तो इसे खाने-कमाने की भाषा बनने दिया. और न ही ये कभी सियासत और सत्ता की भाषा बन पाई. ऐसे में अगर अब नहीं जागे, तो हम इस भाषा को आने वाली पीढ़ी तक भी नहीं पहुंचा पाएंगे. हमारी पीढ़ी में ही ये भाषा पूरी तरह से खत्म हो जाएगी. फिलहाल तो इसी उम्मीद के सहारे कि - 

मायड़ भाषा लाड़ली, जन-जन कण्ठा हार 
लाखां-लाखां मोल है, गाओ मंगलाचार 
वो दन बेगो आवसी, देय मानता राज
पल-पल गास्यां गीतड़ा, दूना होसी काज 

विश्वविद्यालयों में मान्यता 
जब भी राजस्थानी की मान्यता की बात होती है. तो इसकी तमाम जटिलताओं की बात होती है. लेकिन विश्व विद्यालय अनुदान आयोग के साथ साथ भारत की साहित्य अकादमी ने इसे एक अलग भाषा के रुप में मान्यता भी दी है. यही वजह है कि जोधपुर के जय नारायण व्यास विश्वविद्यालय के साथ साथ उदयपुर के मोहनलाल सुखाड़िया विश्वविद्यालय और बीकानेर के महाराजा गंगा सिंह विश्व विद्यालय में राजस्थानी भाषा को पढ़ाया जाता है. जाहिर सी बात है. इसका तय पाठ्यक्रम भी है, इसकी किताबें छपती है, पेपर तैयार होते है और परीक्षाएं भी होती है. यहीं से एक सवाल उठता है. कि अगर विश्वविद्यालयों में परीक्षाओं के लिए पेपर तैयार करने वाले विशेषज्ञ सरकार को मिल जाते है, तो प्रतियोगी परीक्षाओं में राजस्थानी भाषा में पेपर क्यों नहीं तैयार किए जा सकते ? 

राजस्थानी भाषा को मान्यता का संघर्ष 
राजस्थानी भाषा को मान्यता की मांग सबसे पहले 1936 में उठी थी. जब देश आजाद हुआ तो 1956 में राज्य विधानसभा में ये मांग उठी. राजस्थानी भाषा को सम्मान दिलाने के लिए संघर्ष कर रहे तमाम संगठनों और लोगों ने वक्त वक्त पर सड़क से लेकर सदन तक इस आवाज को उठाया. आखिरकार 2003 में पहली बार राजस्थान सरकार ने राज्य विधानसभा से एक प्रस्ताव पास कर केंद्र सरकार को भेजा. केंद्र सरकार ने तब एस.एस महापात्रा की अगुवाई में एक कमेटी बनाई जिसे सरकार को रिपोर्ट देनी थी. कमेटी ने अपनी रिपोर्ट को दो साल बाद पेश किया. रिपोर्ट में कमेटी ने भोजपुरी के साथ राजस्थानी भाषा को संवैधानिक मान्यता देने के लिए पूरी तरह से पात्र बताया.  

एसएस महापात्रा कमेटी ने मान्यता के लायक बताया. तो साल 2006 में उस वक्त के देश के गृह राज्यमंत्री श्रीप्रकाश जायसवाल ने इस पर सैद्धांतिक सहमति भी दी. बताया जाता है कि केंद्र सरकार ने राजस्थानी भाषा को मान्यता देने के लिए बिल भी बनाया लेकिन आज तक वो संसद में पेश नहीं हो पाया. 2009 में देश में जब लोकसभा के चुनाव हुए. तो बीकानेर से बीजेपी के अर्जुनराम मेघवाल सांसद बने. उन्हौने लोकसभा में शपथ राजस्थानी भाषा में लेनी चाही. लेकिन उन्हैं ऐसा करने से रोका गया. तब अर्जुनराम मेघवाल विपक्ष में थे. लिहाजा करीब एक दर्जन बार ये मुद्दा उन्हौने संसद में उठाया. वर्तमान में वो सत्ता में है. खुद भी कई बार ठेठ राजस्थानी भजन गाते दिख जाते है. लेकिन मायड़ भाषा का असली अपनत्व तो तब दिखे जब वो अपनी ही सरकार में इसे सम्मान दिला पाएं. 

चौपालों पर मारवाड़ री हथाई 
राजस्थानी भाषा के संरक्षण और उसे सम्मान देने के लिए कई युवा सोशल मीडिया के जरिए इसे बल दे रहे है. गांव गांव में होने वाली चौपालों की तरह ही डिजिटल चौपालों का भी आयोजन हो रहा है. भगवती लाल नौसन नाम के युवा इन दिनों “मारवाड़ री हथाई” नाम से डिजिटल चौपाल का आयोजन कर रहे है. इसके अलावा वो गांव-गांव लोगों के बीच चौपालों का आयोजन भी कर राजस्थानी भाषा को मान्यता दिलाने के लिए जनजागरण कर रहे है.  

अब आगे क्या रास्ता ? 
ऊर्दू को संवैधानिक मान्यता मिली तो कश्मीर से आने वाले लोगों का प्रशासनिक सेवाओं में प्रवेश आसान हुआ. केंद्र और राज्य, वक्त वक्त पर पार्टियां अपने अपने हिसाब से एक दूसरे पर दोष मढ़ती है. लेकिन सच्चाई ये है. कि केंद्र सरकार इसे संवैधानिक मान्यता देकर संविधान की आठवीं सूची में शामिल कर सकती है. तो राज्य की सरकार इसे राजभाषा का दर्जा देकर मातृभाषा को सम्मान देने का पहला कदम भर सकती है. जैसे 2018 में छत्तीसगढ़ सरकार ने प्रस्ताव पास कर छत्तीसगढ़ी को राजभाषा का दर्जा दिया. इसलिए जरुरत है जनजागरुकता के जरिए सरकार पर दबाव बनाया जाए. जब सरकारी स्तर पर दर्जा मिलेगा. तो भाषा रोजगार का जरिया बनेगी. जब भाषा खाने-कमाने का साधन बन जाती है. तभी वो जन जन तक पहुंच पाती है.  

देश और दुनिया में राजस्थान की पहचान मीरा की धरती के रुप में है. लेकिन मीरा ने कृष्ण की भक्ति में जिस भाषा में भजन किए. जिस भाषा की वजह से मीरा का यश और सम्मान बढ़ा. वो भाषा अपने सम्मान की बाट जोह रही है. वीरो की धरती राजस्थान के महाराणा प्रताप का नाम और उनके शौर्य के बारे में पूरी दुनिया जानती है. लेकिन उसी राणा प्रताप के शौर्य का सदियों तक जिस भाषा में बखान हुआ. वो भाषा अपने अस्तित्व संघर्ष कर रही है.  ऐसे में अगर राजस्थानी भाषा को मान्यता दिलानी है. तो इसे जन आंदोलन बनाना होगा. अकादमियों में पद और पुरुस्कार की लालसा में जो लोग इसे मान्यता दिलाने के झंडाबरदार बने हुए है. अब उनके भरोसे रहने का वक्त नहीं बचा है. अगर अब भी उनके भरोसे रहे. तो ये भाषा हम अगली पीढ़ी को नहीं सौंप पाएंगे. 

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