अच्छे लोगों की सच्ची कहानियां, रेड कारपेट पर नंगे पैर चलने वालों को सम्मान
Advertisement
trendingNow11024206

अच्छे लोगों की सच्ची कहानियां, रेड कारपेट पर नंगे पैर चलने वालों को सम्मान

ये विडम्बना ही है कि हमारे देश के बहुत सारे लोग स्वीडन की पर्यावरण कार्यकर्ता ग्रेटा थनबर्ग को तो जानते हैं, जिन्होंने अपने जीवन में कभी जंगलों मे रह कर पर्यावरण के लिए काम नहीं किया. लेकिन वो तुलसी गौड़ा को नहीं जानते, जिन्होंने अपने जीवन के 60 वर्ष पृथ्वी की रक्षा में समर्पित कर दिए.

अच्छे लोगों की सच्ची कहानियां, रेड कारपेट पर नंगे पैर चलने वालों को सम्मान

पॉडकास्ट सुनें:

  1. नंगे पैर चलकर आए असली नायक
  2. समाज बदलने वाले हुए सम्मानित
  3. ग्रेटा को जानते हैं, तुसली गौड़ा को नहीं
  4.  

नई दिल्ली: क्या सच्चे लोगों की अच्छी कहानियां भी हेडलाइन बनती हैं? क्या निस्वार्थ भाव से समाज की सेवा करने वाले वो लोग जो बड़े-बड़े खानदानों में पैदा नहीं हुए, जो नेता नहीं हैं, फिल्म स्टार नहीं हैं क्रिकेटर नहीं हैं और Celebrities नहीं हैं, क्या उनके बारे में अखबार के पहले पन्ने पर कभी खबर नहीं छपेगी, या न्यूज चैनलों पर वो कभी हेडलाइन नहीं बनेंगे?

असाधारण सोच वाले साधारण लोग

आज इस परंपरा को तोड़ते हुए हम आपको देश के उन नायक और नायिकाओं से मिलवाएंगे जो दिखने में तो बिल्कुल साधारण हैं, लेकिन उनकी सोच असाधारण है. हाल ही में भारत के राष्ट्रपति ने देश के ऐसे तमाम लोगों को पद्म पुरस्कारों से सम्मानित किया है. ये साधारण लोग जब राष्ट्रपति भवन के शानदार रेड कारपेट पर नंगे पैर चलकर आए तो ये तस्वीरें देखकर पूरा देश गौर्वान्वित हो गया.

इन्हीं में से एक थीं कर्नाटक की 73 वर्ष की तुलसी गौड़ा जो पिछले 6 दशकों से जंगल और पेड़ों की रक्षा कर रही हैं. तुलसी गौड़ा अब तक 30 हजार से ज्यादा पेड़ लगा चुकी हैं और उनका लगाया एक भी पेड़ या पौधा आज तक सूखा नहीं है. ये विडम्बना ही है कि हमारे देश के बहुत सारे लोग स्वीडन की पर्यावरण कार्यकर्ता ग्रेटा थनबर्ग को तो जानते हैं, जिन्होंने अपने जीवन में कभी जंगलों मे रह कर पर्यावरण के लिए काम नहीं किया. लेकिन वो तुलसी गौड़ा को नहीं जानते, जिन्होंने अपने जीवन के 60 वर्ष पृथ्वी की रक्षा में समर्पित कर दिए.

समाज के असल नायक हैं ये लोग

तुलसी गौड़ा की तरह कर्नाटक के हरिकेला हजब्बा भी नंगे पैर पद्म श्री पुरस्कार लेने के लिए पहुंचे. 65 वर्षीय हजब्बा पेशे से एक छोटे फल विक्रेता हैं. लेकिन उनकी उपलब्धियां और उनकी सोच कई मायनों में अलग है. उन्होंने अपनी जमापूंजी से गांव में गरीब बच्चों के लिए एक स्कूल बनवाया है, ताकि कोई भी बच्चा अशिक्षित ना रहे. उनकी तरह और भी बहुत सारे ऐसे लोग हैं, जिनका नाम पहली बार लोगों ने सुना है.

पद्म पुरस्कारों की शुरुआत वर्ष 1955 में हुई थी और इनका मकसद था कला, खेल और सामाजिक क्षेत्र में विशिष्ट योगदान देने वाले लोगों का सम्मान करना और उन्हें प्रोत्साहित करना. लेकिन ये दुर्भाग्य ही था कि 1960 के दशक में ये पुरस्कार नेताओं और उनके परिवार के लोगों को खुश करने का एक जरिया बन गए. इसके बाद के वर्षों में भी ये पुरस्कार आम लोगों की पहुंच से दूर रहा. 1970 और 1980 के दशक में ये पुरस्कार या तो दिल्ली में रहने वाले लोगों को मिलता था, या मुम्बई के बड़े-बड़े Celebrities और दूसरे बड़े शहरों के प्रतिष्ठित लोगों को दिया जाता था.

पहले पिछड़ जाते थे असली हीरो

उदाहरण के लिए वर्ष 1955 से 2016 के बीच कुल 4 हजार 284 लोगों को पद्म विभूषण, पद्म भूषण और पद्म श्री पुरस्कार मिला. लेकिन हैरानी की बात ये है कि इन 4 हजार लोगों में से 793 लोग ऐसे थे, जो दिल्ली में रहते थे और राजनीतिक रसूख वाले परिवारों के करीबी थे. दिल्ली के बाद इन पुरस्कारों के लिए दूसरी पसन्द महाराष्ट्र के लोग होते थे क्योंकि इस समय अवधि में महाराष्ट्र के 748 लोगों को पद्म पुरस्कार मिला. लेकिन ऐसे लोगों को कभी नंबर नहीं आया, जो जमीनी स्तर पर बदलाव लाने के लिए काम करते हैं और इस देश के असली हीरो हैं.

अगर ऐसा होता तो उत्तर पूर्वी राज्यों के लोगों की इन पुरस्कारों में अनदेखी नहीं होती. लेकिन आज ऐसा नहीं है और इसे आप हमारी इस स्पेशल रिपोर्ट से समझ सकते हैं. कर्नाटक की मंजम्मा जोगाठी जिन्हें पद्म श्री पुरस्कार से सम्मानित किया गया है वो कर्नाटक की पहली ट्रांसजेंडर अध्यक्ष हैं. जब वो पुरस्कार लेने के लिए पहुंची तो पहले उन्होंने राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की नजर उतारी.

शरीफ चाचा और जितेंद्र शंटी को सम्मान

अयोध्या के रहने वाले 83 साल के साइकिल मैकेनिक मोहम्मद शरीफ को भी पद्मश्री पुरस्कार से नवाजा गया. उन्हें यह पुरस्कार समाज कल्याण के लिए दिया गया है. शरीफ चाचा के नाम से मशहूर मोहम्मद शरीफ ने अब तक 25 हजार से भी ज्यादा लावारिस लाशों का अंतिम संस्कार किया है. वर्ष 1992 में उनके बेटे की मृत्यु के बाद उसके शव को रेलवे ट्रैक के किनारे फेंक दिया गया था, जिससे उसे अंतिम संस्कार तक नसीब नहीं हुआ.

इसके बाद से मोहम्मद शरीफ ने लावारिस लाशों के क्रिया-कर्म को अपनी जिम्मेदारी मान लिया. उन्होंने सिर्फ हिंदू और मुस्लिम ही नहीं, बल्कि सभी धर्मों के लोगों के मृत शरीरों का उनके धार्मिक रिवाजों के मुताबिक अंतिम संस्कार किया है.

दिल्ली के पूर्व विधायक जितेंद्र सिंह शंटी भी कई लोगों के लिए हीरो हैं. उन्हें समाज सेवा के लिए पद्मश्री पुरस्कार से सम्मानित किया गया है. कोविड काल में जब बहुत सारे लोग अपनों का अंतिम संस्कार करने से भी डर रहे थे, तब जितेंद्र सिंह शंटी ने 4 हजार से अधिक शवों का अंतिम संस्कार किया.

चुनौतियों से लड़ीं रानी रामपाल

भारतीय महिला हॉकी टीम की कप्तान रानी रामपाल के लिए भी यहां तक पहुंचना आसान नहीं था. उन्हें खेल में क्षेत्र में विशेष योगदान के लिए पद्म श्री पुरस्कार से नवाजा गया. इस समारोह के बाद प्रधानमंत्री मोदी और रानी रामपाल के पिता की भी एक तस्वीर आई, जिसमें वो हाथ जोड़ कर खड़े हुए थे और प्रधानमंत्री उनसे मुस्कुराते हुए कुछ कह रहे थे.

बेहद गरीब परिवार में जन्मी रानी रामपाल के लिए हॉकी खेलना आसान नहीं था. पिता तांगा चलाते थे और उनके पूरे दिन की कमाई मुश्किल से 100 रुपये भी नहीं थी. उस समय परिवार चलाने के लिए उनकी मां भी लोगों के घरों में काम करती थी. गरीबी के साथ समाज के ताने भी उनके लिए बड़ी चुनौती थे. रानी रामपाल के लिए हरियाणा के शाहबाद से निकल कर हॉकी के ग्राउंड तक पहुंचना बहुत मुश्किल था. लेकिन तमाम संघर्ष को पार करते हुए रानी रामपाल ने अपने सपनों को पूरा किया और इस साल के टोक्यो ओलंपिक में भारतीय महिला हॉकी टीम सेमीफाइनल तक पहुंची.

समाज बदलने वालों का हुआ सम्मान

पुरस्कार पाने वालों में वीरेंद्र सिंह भी हैं, जिन्हें लोग गूंगा पहलवान के नाम से भी जानते हैं. शुरुआत में वीरेंद्र के आसपास ये बताने वालों की कोई कमी नहीं थी कि वो कुछ नहीं कर पाएंगे और पहलवानी इनके बस की नहीं है. लेकिन जो व्यक्ति सुन नहीं सकता, बोल नहीं सकता, उसने तय किया कि वो अब अपना सबकुछ इसमें झोंक देगा और इस संकल्प ने ही उन्हें सफलता भी दिलाई. आपको याद होगा इसी साल फरवरी में हमने आपको उनकी कहानी दिखाई थी और बताया था कि आलोचनाओं और तानों से घबराने की जगह अगर उन्हीं को ताकत बना लिया जाए तो सफलता का स्वाद भी दोगुना हो जाता है.

इन सभी लोगों की कहानी एक जैसी है. गरीबी, शिक्षित नहीं होना और सामाजिक चुनौतियां. ये सबकुछ इनके सामने था लेकिन इसके बावजूद इन लोगों ने बदलाव की नींव रखी और दुनिया को ये बताया कि कुछ ना होते हुए भी बहुत कुछ किया जा सकता है. हमारे देश में पहले पुरस्कारों के लिए ऐसे नामों का चयन होता था जो पहचान वाले होते थे, लेकिन अब परम्परा बदल गई है और अब पहचान वाले नहीं बल्कि पहचान बनाने वालों का सम्मान होता है. ऐसे लोगों का सम्मान होता है, जो असल में इस देश और समाज को बदल रहे हैं.

गरीब बच्चों को पढ़ाते हैं नंदा किशोर

पद्म पुरस्कार से सम्मानित एक ऐसा ही नाम है नंदा किशोर प्रस्टी का, जिन्हें लोग प्यार से नंदा मास्टर कहकर पुकारते हैं. ओडिशा के रहने वाले नंदा प्रस्टी खुद सिर्फ सातवीं तक पढ़े हैं लेकिन फिर भी वो अपने आस पास बच्चों के साथ साथ बड़ों को भी शिक्षित करने का काम कर रहे हैं.

नंदा किशोर ओडिशा के जजपुर जिले के कांतिरा गांव में रहते हैं और उन्होंने अब तक ओडिशा की चटशाली की परंपरा को बरकरार रखा है. ऐसा करने वाले वो ओडिशा के आखिरी व्यक्ति हो सकते हैं. चटशाली परंपरा  का मतलब ओडिशा में प्राथमिक शिक्षा के लिए एक गैर-औपचारिक स्कूल से है. हर सुबह बच्चे उनके घर के पास इकट्ठा होते हैं. इन बच्चों को बुजुर्ग नंदकिशोर उड़िया भाषा के अक्षर और गणित सिखाते हैं.

एक्टर्स नहीं हैं देश के असली नायक

आने वाले दिनों में इनमें से कई लोगों के ऊपर फिल्में बनेंगी और इन फिल्मों में बॉलीविुड के बड़े-बड़े कलाकार पर्दे पर इन लोगों की भूमिका निभाएंगे और हमारे देश के लोग उन्हें ही अपना असली हीरो समझने लगेंगे. लेकिन ये हमारे देश की बहुत बड़ी विडम्बना है कि हम फिल्मी पर्दों पर एक्टर्स को शानदार किरदार में देखते हैं तो उन्हें अपना नायक समझ लेते हैं और असली नायक को आम आदमी समझ लेते हैं. इसलिए अपनी सोच बदलिए. हमारे देश के वीर सैनिकों की कहानी देखने के लिए आपको किसी एक्टर के पास जाने की जरूरत नहीं है. आजादी के बाद से अब तक की हमारी जो पीढ़ी बढ़ी हुई है, वो एक्टर्स को ही नायक मानती आई है. लेकिन हम चाहते हैं कि अब आप अपनी अगली पीढ़ी को नायक और एक्टर का फर्क बताइए.

Trending news