टिकट कटने के डर से बीजेपी में भगदड़? UP में राजनीति के सोशल इंजीनियर्स से मिलिए
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टिकट कटने के डर से बीजेपी में भगदड़? UP में राजनीति के सोशल इंजीनियर्स से मिलिए

UP में पिछले 3 दिनों में बीजेपी के 8 विधायकों ने जातीय समीकरणों के आधार पर पार्टी से इस्तीफा दे दिया है. ये सारे पिछड़ी जातियों के नेता हैं और 5 साल तक मंत्री और विधायक रहने के बाद, अब इन नेताओं को ऐसा लगता है कि इनकी जातियों के साथ अन्याय हुआ है और अब ये नई तरह की सोशल इंजीनियरिंग करना चाहते हैं. 

टिकट कटने के डर से बीजेपी में भगदड़? UP में राजनीति के सोशल इंजीनियर्स से मिलिए

नई दिल्ली: उत्तर प्रदेश में राजनीति के इंजीनियर को जानते हैं आप? ये लोग हर चुनाव से पहले सोशल इंजीनियरिंग करते हैं. राजनीति की प्रयोगशालाओं में चुनाव जीतने के फॉर्मूले बनाते हैं और हर समय चुनावी गणित का हिसाब किताब करते रहते हैं. जिस तरह से हमारे देश के इंजीनियर्स और वैज्ञानिक Physics, Chemistry और Maths के फॉर्मूले बनाते हैं, वैसे ही हमारे देश के नेता भी हर चुनाव से पहले राजनीति की लैब में नए-नए फॉर्मूले बनाते हैं. उत्तर प्रदेश में पिछले तीन दिनों में बीजेपी के 8 विधायक, जिनमें तीन मंत्री भी हैं, इन्होंने जातीय समीकरणों के आधार पर पार्टी से इस्तीफा दे दिया है. ये सारे पिछड़ी जातियों के नेता हैं और पांच साल तक मंत्री और विधायक रहने के बाद, अब इन नेताओं को ऐसा लगता है कि इनकी जातियों के साथ अन्याय हुआ है और अब ये नई तरह की सोशल इंजीनियरिंग करना चाहते हैं. आइए जानते हैं कि एक के बाद एक बीजेपी छोड़ने वाले इन विधायकों और मंत्रियों के जाने से बीजेपी को कितना नुकसान होगा और अखिलेश यादव को कितना फायदा होगा. लेकिन इससे पहले आप एक लाइन में इसका सार समझ सकते हैं. इन विधायकों के जाने का बीजेपी को उतना ही नुकसान होगा, जितना नाइट कर्फ्यू लगाने से कोरोना वायरस को नुकसान होता है. 

  1. बागी विधायकों से भाजपा को कितना नुकसान?
  2. जाति के नाम पर व्यक्तिगत हार के कारणों को छिपा रहे हैं नेता
  3. 8 विधायकों के BJP छोड़ने से अखिलेश को होगा फायदा?
  4.  

तीन भागों में समझें पार्टी छोड़ने के पीछे का गणित 

  • इन मंत्रियों और विधायकों के BJP छोड़ने की असली वजह क्या है?

  • इससे बीजेपी को कितना नुकसान और अखिलेश यादव को कितना फायदा हो सकता है?

  • इस दल-बदल से यूपी के लोगों को क्या हासिल होगा? मतलब इसमें वोटरों का कितना फायदा है?

समझें राजनीतिक गणित

इस समय उत्तर प्रदेश की स्थिति क्रिकेट के एक मैच जैसी हो गई है, जिसमें बीजेपी छोड़ने वाले नेताओं का स्कोर हर पल बदल रहा है. पिछले तीन दिन में बीजेपी की टीम से खेलने वाले 8 विधायक, पार्टी को छोड़ चुके हैं और इनमें से भी तीन नेता, योगी सरकार में मंत्री पद पर थे. इसलिए ये मामूली दल-बदल तो बिल्कुल भी नहीं है. एक और बात, बीजेपी छोड़ने वाले 8 विधायकों में से 7 पिछड़ी जाति से हैं और एक दलित समुदाय से हैं.

पार्टी छोड़ने के पीछे सोशल इंजीनियरिंग का इस्तेमाल

यानी इस दल-बदल के पीछे सोशल इंजीनियरिंग भी हो सकती है. राजनीति में सोशल इंजीनियरिंग शब्द का इस्तेमाल तब होता है, जब चुनाव में एक खास धर्म, जाति और समुदाय के वोटरों को एकजुट करने के लिए उनके समाज से जुड़े नेताओं को मौका दिया जाता है, उन्हें चुनाव लड़ाया जाता है. आप इसे ऐसे समझिए कि एक गांव में कुल 5 वोटर हैं, जिनमें से 3 एक खास धर्म या जाति से हैं. अब अगर इस गांव में चुनाव हुए और किसी पार्टी ने ऐसे नेता को टिकट दे दिया, जो इस धर्म या जाति से आता है तो उसे फायदा मिलेगा. ये एक सामान्य सा गणित है, जिस पर पूरी राजनीति चलती है.

उपेक्षाओं से नाराज नहीं थे ये नेता!

आप समझ सकते हैं कि जैसे हमारे देश के युवा कॉलेज में जाकर इंजीनियरिंग की पढ़ाई करते हैं. ठीक वैसे ही हमारे देश के नेता समाज में लोगों के बीच रह कर जातियों की इंजीनियरिंग करते है. इसलिए, अगर आपको ये लग रहा है कि इन मंत्रियों और विधायकों ने बीजेपी इसलिए छोड़ी है, क्योंकि वो सरकार और पार्टी में अपनी जातियों की उपेक्षा से नाराज थे, तो शायद आप गलत होंगे. इसके पीछे असल में कुछ और कारण हैं.

टिकट कटने से पहले ही छोड़ दी पार्टी!

पहला कारण ये है कि, हमें पता चला है कि इनमें से ज्यादातर नेताओं का टिकट कटने वाला था. यानी इससे पहले बीजेपी इन्हें छोड़ती, इन्होंने बीजेपी को ही छोड़ दिया. हर चुनाव में नेता पार्टियां बदलते हैं. लेकिन अक्सर ये ट्रेंड तब देखा जाता है, जब कोई पार्टी उम्मीदवारों की सूची जारी करती है और बीजेपी ने तो अभी तक अपने उम्मीदवारों की सूची ही जारी नहीं की थी. यानी इन नेताओं को खबर मिल गई थी, इस बार उन्हें टिकट नहीं मिलने वाला है. बीजेपी को छोड़ने के पीछे ये सबसे बड़ा कारण रहा.

नेताओं का रवैया प्रवासी पक्षी जैसा

आपने प्रवासी पक्षियों के बारे में सुना होगा, जो मौसम के हिसाब से अपना स्थान बदलते हैं और चुनाव के दौरान पार्टी बदलने वाले नेताओं को भी आप प्रवासी पक्षी कह सकते हैं. वो भी मौसम और हवा के अनुसार अपना स्थान बदलते रहते हैं. इन नेताओं को टिकट कटने का खतरा इसलिए था क्योंकि ये नेता उत्तर प्रदेश के मौजूदा जातिगत समीकरण (Caste Combination) में फिट नहीं बैठते. इस बार मुस्लिम और यादव वोट बैंक एकजुट है और ये वोट बैंक अलग-अलग पार्टियों में नहीं बंटेगा.

M+Y फैक्टर पर हावी हैं अखिलेश

उत्तर प्रदेश में 18% मुस्लिम वोटर हैं और 10% यादव वोटर हैं, इसे यूपी की राजनीति में M-Y Factor भी कहते हैं. वैसे इस MY Factor के चीफ इंजीनियर बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव और उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव को माना जाता है. उन्होंने अपने राज्यों में मुस्लिम, यादव वोट बैंक की इंजीनियरिंग करके सरकारें बनाई थी और बाद में ये फॉर्मूला अन्य जगहों में भी इस्तेमाल हुआ. हालांकि उत्तर प्रदेश में अब तक यही ट्रेंड देखा जाता था कि मुस्लिम और यादव वोट बैंक का बड़ा हिस्सा तीन बड़ी पार्टियों के बीच बंटता था. एक अखिलेश यादव की समाजवादी पार्टी, दूसरी मायावती की बहुजन समाज पार्टी और तीसरी है कांग्रेस. लेकिन चुनावी पंडितों का मानना है कि इस बार उत्तर प्रदेश में इस 28 प्रतिशत वोट बैंक का बड़ा हिस्सा एकजुट रहेगा और वो अखिलेश यादव की समाजवादी पार्टी को समर्थन करेगा. ये एक बड़ा कारण है, जिसकी वजह से बीजेपी को तीन दिन में आठ विधायक छोड़ चुके हैं.

स्वामी प्रसाद मौर्य को इस बात का था डर

जैसे स्वामी प्रसाद मौर्य उत्तर प्रदेश की पडरौना सीट से 3 बार विधायक रह चुके हैं. इसमें वो 2 बार बीएसपी से और एक बार बीजेपी से. लेकिन माना जा रहा है कि इस बार उन्हें डर था कि अगर वो बीजेपी में रह कर इस सीट से चुनाव लड़ते हैं तो शायद उन्हें जीत नहीं मिलेगी. क्योंकि इस बार जातीय समीकरण उनके खिलाफ है. इस सीट पर यादव, मुस्लिम और दूसरी जातियों के 27% वोटर हैं, जो समाजवादी पार्टी के पारम्परिक वोटर माने जाते हैं. इसके अलावा ब्राह्मण वोटरों की संख्या 19 प्रतिशत हैं, जो उनसे नाराज माने जा रहे हैं. यानी कुल 46 प्रतिशत वोटर्स के छिटकने का खतरा स्वामी प्रसाद मौर्य नहीं उठाना चाहते थे, इसलिए उन्होंने बीजेपी छोड़ दी.

2017 में चल रहा था मोदी के नाम का जादू

हालांकि ये खतरा 2017 के चुनाव में भी उनके सामने था और शायद इसीलिए उन्होंने उस समय बीएसपी छोड़ कर बीजेपी से चुनाव लड़ा था. लेकिन तब बीजेपी ये चुनाव मोदी के नाम पर जीती थी. यानी जातियों का समीकरण तो था लेकिन मोदी फैक्टर भी काम कर रहा था. आप कह सकते हैं कि स्वामी प्रसाद मौर्य ने 2017 की Template पर ही बीजेपी छोड़ने का फैसला किया है.

दारा सिंह के सामने थीं ये चुनौतियां 

योगी सरकार में कैबिनेट मंत्री दारा सिंह चौहान के लिए भी यही बात कही जा रही है. क्योंकि इस सीट पर यादव समुदाय के 60 हजार वोटर हैं और मुस्लिम समुदाय के 22 हजार वोटर हैं. अगर इन्हें मिला दें तो ये वोट 82 हजार होते हैं. अगर ये वोट दारा सिंह को नहीं मिलते तो उनके लिए चुनाव में जीतना मुश्किल होता और हमें पता चला है कि दारा सिंह चौहान इसी वजह से मधुबन की जगह घोसी से टिकट मांग रहे थे और बीजेपी ने उन्हें टिकट देने से साफ इनकार कर दिया था. जिसकी वजह से उन्होंने बीजेपी छोड़ दी.

धर्म सिंह सैनी की हार थी सुनिश्चित!

उनके अलावा बीजेपी छोड़ने वाले मंत्री धर्म सिंह सैनी जिस नकुड़ सीट से विधायक हैं, वो मुस्लिम बहुल सीट है. इस सीट पर मुस्लिम वोटरों की संख्या सबसे ज्यादा एक लाख 30 हजार हैं. धर्म सिंह सैनी को डर था कि अगर इनमें से आधे वोट भी समाजवादी पार्टी के उम्मीदवार को सीधे चले गए तो उनकी हार निश्चित है और इसी वजह से उन्होंने अपनी सीट बचाने के लिए बीजेपी छोड़ दी. एक और बात, ऐसी खबरें हैं कि बीजेपी के नेताओं ने पहले ही ये स्पष्ट कर दिया था कि वो उन्हें इस बार टिकट नहीं देगी. 2017 के चुनाव में धर्म सिंह सैनी मात्र चार हजार वोटों के अंतर से जीते थे. लेकिन वो अपनी शक्ति का प्रदर्शन ऐसे करते हैं, जैसे पिछड़ी जाति के करोड़ों वोटर उनकी मुट्ठी में हैं.

इस्तीफों का Writer कौन?

इसे इत्तेफाक ही कहेंगे कि स्वामी प्रसाद मौर्य, दारा सिंह चौहान और धर्म सिंह सैनी, तीनों ही योगी सरकार में मंत्री थे. तीनों ही पिछड़ी जाति से आते हैं. तीनों ने ही 2017 के चुनाव से पहले बीजेपी Join की थी और इन तीनों ने ही जो इस्तीफा दिया है, उसकी भाषा भी एक जैसी है. इन्हें पढ़ कर ऐसा लगता है कि इन तीनों इस्तीफों का एक ही Script Writer है. इन इस्तीफों के बाद 2 बात आप समझ गए होंगे. पहली ये कि इन नेताओं ने या तो इसलिए बीजेपी छोड़ दी क्योंकि उन्हें डर था कि पार्टी उन्हें टिकट नहीं देगी. या वो इसलिए दूसरी पार्टी में चले गए क्योंकि उन्हें ऐसा लग रहा था कि वो बीजेपी में रह कर वोटरों के बीच जातीय संतुलन नहीं बैठा पाएंगे. यानी अपनी सीट बचाने के लिए इन नेताओं ने बीजेपी छोड़ी.

परिवारवाद को बढ़ावा दे रहे थे स्वामी प्रसाद मौर्य

इसके पीछे एक और वजह है, परिवार के सदस्यों के लिए टिकट की मांग करना. हमें पता चला है कि, स्वामी प्रसाद मौर्य अपने बेटे उत्कृष्ट मौर्य के लिए बीजेपी से टिकट मांग रहे थे. लेकिन बीजेपी इसके पक्ष में नहीं थी. क्योंकि उत्कृष्ट मौर्य को 2017 के चुनाव में रायबरेली की ऊंचाहार सीट से टिकट दिया गया था, लेकिन वो मोदी लहर में भी समाजवादी पार्टी के उम्मीदवार से हार गए थे. दूसरी बात, स्वामी प्रसाद मौर्य की बेटी संघ मित्रा मौर्य, अभी बदायूं लोकसभा सीट से बीजेपी सांसद हैं. ऐसे में एक ही परिवार के सभी सदस्यों को राजनीति में लाकर बीजेपी परिवारवाद का गलत उदाहरण पेश नहीं करना चाहती थी. जिसे शायद स्वामी प्रसाद मौर्य ने अपना अपमान समझ लिया और पार्टी छोड़ दी.

आइए आपको बताते हैं कि इससे बीजेपी को कितना नुकसान और अखिलेश यादव को कितना फायदा हो सकता है.

8 विधायकों की संख्या कम नहीं होती. ये एक बड़ा नम्बर है और इससे बीजेपी को नुकसान हो सकता है. ये सभी नेता पिछड़ी जातियों और दलित समुदाय से आते हैं. उत्तर प्रदेश में 42 प्रतिशत पिछड़ों में करीब 15 प्रतिशत यादव और कुर्मी समुदाय के वोटर हैं. इसके अलावा 30 प्रतिशत लोग अति पिछड़ी जातियों से आते हैं. पिछले चुनावों में इस वर्ग के तमाम नेता बीजेपी से जुड़े हुए थे और इसका बीजेपी को जबरदस्त फायदा भी मिला था. लेकिन अब तस्वीर बदली हुई नजर आ रही है और विश्लेषकों को मानना है कि अगर इन जातियों के वोटरों का बीजेपी से मोहभंग हुआ तो बीजेपी को नुकसान उठाना पड़ेगा.

सहयोगी दलों की कितनी भूमिका?

बीजेपी की एक मुश्किल ये भी है कि, अब उसके साथ मात्र 2 ही सहयोगी पार्टियां बची हैं. एक है निषाद पार्टी और दूसरी है अपना दल (S). जबकि अखिलेश यादव ने छोटी-छोटी 6 पार्टियों के साथ गठबंधन कर लिया है, जो इस चुनाव को जाति के आधार पर लड़ने के लिए जोर लगा रही हैं. जैसे जयंत चौधरी की राष्ट्रीय लोक दल पार्टी का उत्तर प्रदेश के 2 प्रतिशत जाट वोटरों पर गहरा प्रभाव है. इसके अलावा राज्य की 29 सीटें ऐसी हैं, जहां पर जाट समुदाय के 50 हजार से एक लाख वोटर हैं और ये किसी भी पार्टी के उम्मीदवार को आसानी से हरा और जिता सकते हैं.

जातिगत चुनाव या धर्म के नाम पर एकजुट चुनाव

ओमप्रकाश राजभर की पार्टी भी अखिलेश यादव के साथ है और उत्तर प्रदेश में राजभर समुदाय के 2 प्रतिशत वोटर हैं. जिनकी मदद से उनकी पार्टी 2017 में 4 सीटें जीतने में कामयाब रही थी. इसी तरह यूपी के 5 प्रतिशत कुर्मी वोटरों पर अपना दल (K) की पकड़ मानी जाती है और केशव देव मौर्य की महान दल पार्टी का प्रभाव पिछडी जातियों के 10 प्रतिशत वोटरों पर बताया जाता है. यानी कुल मिला कर समीकरण ये बन रहा है कि अगर चुनाव जाति के आधार पर हुए तो अखिलेश यादव को फायदा होगा और अगर धर्म और मोदी के नाम पर हुए तो बीजेपी को फायदा होगा. इसीलिए योगी आदित्यनाथ के अयोध्या से चुनाव लड़ने की खबरें हैं. अगर चुनाव धर्म और मोदी के नाम पर हुए तो ऐसी स्थिति में वोटर्स किसी जाति से नहीं होंगे, बल्कि वो बतौर हिन्दू वोटर एकजुट होकर बीजेपी के लिए मतदान करेंगे और अगर ऐसा हुआ तो नतीजे 2017 जैसे हो सकते हैं. 

जातिगत राजनीति नेताओं की एक चाल

इस जातिगत राजनीति से वोटर को कुछ हासिल नहीं होगा. ये नेता जहां पहले थे, वहां इन्होंने अपनी जाति के लोगों के लिए कुछ नहीं किया और आगे भी ये जहां जाएंगे, वहां भी कुछ नहीं करेंगे. ये सिर्फ इंजीनियरिंग करके जातियों के नए-नए फॉर्मूले बनाएंगे और ये फॉर्मूले उन्हें मंत्री बनाने का काम करेंगे. लेकिन इससे आपको कुछ नहीं मिलेगा और हो सकता है कि अगले साल ये किसी और पार्टी में कह रहे हों कि वहां भी इनकी जातियों के साथ अन्याय हुआ है.

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