हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी कि हर ख़्वाहिश पे दम निकले: मिर्ज़ा ग़ालिब
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हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी कि हर ख़्वाहिश पे दम निकले: मिर्ज़ा ग़ालिब

इस अनोखे शायर के अनुभव-संसार और सौंदर्यबोध से गुज़रना कविता-प्रेमियों के लिए आज भी अत्यंत दुर्लभ अनुभव है.

उर्दू अदब मिर्ज़ा ग़ालिब की शायरी के बग़ैर अधूरी है. (फाइल फोटो)

नई दिल्ली: भारतीय साहित्य के इतिहास में बस कुछ ही लोग हैं जिनका विद्रोही स्वर, जिया हुआ सफर, खुद का भोगा हुआ यथार्थ, अतल गहराईयों और सोच की असीम ऊंचाईयों के साथ भीड़ से अलग दिखते हैं. निर्विवाद रूप से मिर्ज़ा ग़ालिब उनमें से एक हैं. ग़ालिब में मानवता, प्रेम की तलाश, खुद में खुद को जी लेने की चाहत, मासूम गुस्ताखियां और विलक्षण अनुभूतियों का संगम था. इस अनोखे शायर के अनुभव-संसार और सौंदर्यबोध से गुज़रना कविता-प्रेमियों के लिए आज भी अत्यंत दुर्लभ अनुभव है. लफ़्ज़ों में अनुभूतियों की परतें इतनी कि जितनी बार पढ़ो, हर बार कुछ नए-नए अर्थ निकलते है. लिखा हुआ कुछ भी सही या गलत नहीं होता, लिखा हुआ असल में किसी का जिया हुआ यथार्थ होता है.

  1. मिर्ज़ा ग़ालिब का पूरा नाम मिर्जा असद-उल्लाह बेग खां था
  2. मिर्ज़ा ग़ालिब उर्दू एवं फ़ारसी भाषा के महान शायर थे
  3. मिर्ज़ा ग़ालिब को दबीर-उल-मुल्क और नज़्म-उद-दौला का खिताब मिला

ग़ालिब का अंदाज़ अलग था 
वैसे तो हर शायर की कृतियां अपने समय का दस्तावेज़ होती हैं, लेकिन अपने समय की पीड़ाओं की नक्काशी का ग़ालिब का अंदाज़ भी अलग था और तेवर भी जुदा. उनकी शायरी को फ़ारसी और उर्दू शायरी में परंपरागत विषयों से अलग देखा जाता है. जिसमें आवारगी-रवानगी सब शामिल हैं. ग़ालिब की शायरी की सबसे ख़ूबसूरत बात ये है कि वो किसी एक रंग या किसी एक एहसास से बंधे नहीं, हर मौज़ू पर उनका शेर मौजूद है. जिसमें कोई रूढ़ जीवन-मूल्य, बंधी-बंधाई जीवन-शैली या स्थापित जीवन-दर्शन नहीं है. ग़ालिब की शायरी में उदासी, तन्हाई, बेचैनी और अधूरेपन का भी अहसास होता है जिसने ग़ालिब को ग़ालिब बनाया.

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उर्दू अदब मिर्ज़ा ग़ालिब की शायरी के बग़ैर अधूरी है
उर्दू अदब मिर्ज़ा ग़ालिब की शायरी के बग़ैर अधूरी है. ग़ालिब की शायरी ने उर्दू अदब को एक नया झरोखा दिया,जिससे सभी ने अपने- अपने हिस्से के जीवन को देखा.  ग़ालिब की शायरी का बहुत बड़ा हिस्सा फारसी में है, उर्दू में उन्होंने बहुत कम लिखा है, लेकिन जितना लिखा है वो ही आने वाले कई ज़मानों तक लोगों को सोचने पर मजबूर करने के लिए काफी है. 'दबीर-उल-मुल्क' और 'नज़्म-उद-दौला' के खिताब से नवाजे गए उर्दू के इस सर्वकालीन महानतम शायर का आज जन्मदिन है. ग़ालिब की शायरी में इंसानी जिंदगी का हर एहसास बहुत शिद्दत से जगह पाता है. यही वजह है कि वह उर्दू के सबसे मशहूर शायर कहलाए. 

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ग़ालिब का लिखा हुआ शेर पुराना है, लेकिन उनकी शायरी आज भी वर्तमान समय में प्रासंगिक है. ग़ालिब के लेखन में यही बात निराली है कि उनके द्वारा लिखे गये शेर तब भी जीवन के समीप थे और आज भी जीवन, समाज का आईना दिखाते हैं. उनके शेर लोगों की जुबान पर मुहावरों की तरह हैं. तो चलिए चलते हैं ग़ालिब की दुनिया में, जहां दर्द है, उम्मीद है और एक ऐसा अटूट रिश्ता है जिसकी डोर ग़ालिब द्वारा लिखी पंक्तियों से ही बंधी हुई है- 

इश्क़ ने 'ग़ालिब' निकम्मा कर दिया 
वर्ना हम भी आदमी थे काम के 

हम को मालूम है जन्नत की हक़ीक़त लेकिन
दिल के ख़ुश रखने को 'ग़ालिब' ये ख़याल अच्छा है

हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी कि हर ख़्वाहिश पे दम निकले
बहुत निकले मिरे अरमान लेकिन फिर भी कम निकले

इशरत-ए-क़तरा है दरिया में फ़ना हो जाना
दर्द का हद से गुज़रना है दवा हो जाना

काबा किस मुँह से जाओगे 'ग़ालिब'
शर्म तुम को मगर नहीं आती

हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी कि हर ख़्वाहिश पे दम निकले
बहुत निकले मिरे अरमान लेकिन फिर भी कम निकले

उन के देखे से जो आ जाती है मुँह पर रौनक़
वो समझते हैं कि बीमार का हाल अच्छा है

जला है जिस्म जहाँ दिल भी जल गया होगा
कुरेदते हो जो अब राख जुस्तजू क्या है

बना है शह का मुसाहिब, फिरे है इतराता
वगर्ना शहर में "ग़ालिब" की आबरू क्या है 

बोझ वह सर से गिरा है कि उठाए न उठे
काम वह आन पड़ा है कि बनाए न बने

न था कुछ तो ख़ुदा था, कुछ न होता तो ख़ुदा होता,
डुबोया मुझको होने ने न मैं होता तो क्या होता !

ग़ालिब की कुछ रचनाएं (साभार- कविता कोश)  

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