शास्त्री जी के 'मृत्यु रहस्य' के 56 साल, क्या लाल बहादुर को दिया गया था जहर?
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शास्त्री जी के 'मृत्यु रहस्य' के 56 साल, क्या लाल बहादुर को दिया गया था जहर?

वर्ष 1966 को तत्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री (Lal Bahadur Shastri) की सोवियत संघ में हुई मौत 56 साल बाद आज भी रहस्य बनी हुई है. आखिर ऐसी क्या बात थी कि उनके शव का भी पोस्टमार्टम नहीं करवाया गया.

शास्त्री जी के 'मृत्यु रहस्य' के 56 साल, क्या लाल बहादुर को दिया गया था जहर?

नई दिल्ली: 56 साल पहले, 11 जनवरी वर्ष 1966 को भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री (Lal Bahadur Shastri) की सोवियत संघ के ताशकंद में रहस्यमय परिस्थितियों में मृत्यु हो गई थी. ये मौत कोई साधारण मौत नहीं थी. ये ऐसी मौत थी, जिसका रहस्य, आज भी अनसुलझा है.

  1. 19 महीने तक पीएम रहे लाल बहादुर शास्त्री
  2. कराची में जनरल अयूब से हुई थी मुलाकात
  3. ताशकंत में भारत-पाक में हुआ समझौता

19 महीने तक पीएम रहे लाल बहादुर शास्त्री

लाल बहादुर शास्त्री (Lal Bahadur Shastri) सिर्फ़ 19 महीनों तक देश के प्रधानमंत्री रहे. लेकिन इन 19 महीनों में उन्होंने दुनिया को भारत की शक्ति का अहसास करा दिया था. जय जवान-जय किसान का नारा देते हुए उन्होंने 1965 के युद्ध में पाकिस्तान के अहंकार और भ्रम को हमेशा के लिए तोड़ दिया था. साथ ही ताकत के ज़ोर पर पाकिस्तान का कश्मीर को हथियाने का सपना भी चूर चूर कर दिया था. 1965 के युद्ध के बाद ताशकंद में भारत और पाकिस्तान के बीच 10 जनवरी को समझौता हुआ था. उसी दिन देर रात क़रीब दो बजे उनकी मृत्यु हो गई थी.

किसी देश के कार्यकारी प्रधानमंत्री की किसी दूसरे देश में रहस्यमय परिस्थितियों में मृत्यु हो जाना बहुत बड़ी बात होती है. लेकिन उस वक़्त मीडिया की ताकत आज जैसी नहीं थी. उस वक़्त ना तो 24 घंटे के न्यूज़ चैनल हुआ करते थे और ना ही सोशल मीडिया का जन्म हुआ था, इसलिए ये मामला और ये ख़बर काफ़ी हद तक दब कर ही रह गई और हम कभी भी शास्त्रीजी की मौत की सही वजह को नहीं जान पाए. 

देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू की मृत्यु 27 मई 1964 को दिल का दौरा पड़ने से हुई थी. उनकी मृत्यु के 13 दिन बाद लाल बहादुर शास्त्री देश के दूसरे प्रधानमंत्री बने थे. ये बात 9 जून 1964 की है. ये वो दौर था, जब हमारा देश 1962 के भारत-चीन युद्ध से पूरी तरह उबरा नहीं था और पाकिस्तान भी लगातार जम्मू कश्मीर का मुद्दा अंतर्राष्ट्रीय मंच पर उठा रहा था.

कराची में जनरल अयूब से हुई थी मुलाकात

उस समय पाकिस्तान के तत्कालीन राष्ट्रपति जनरल अयूब ख़ान ये जानने के लिए काफ़ी उत्सुक थे कि भारत में किस नेता ने नेहरू की जगह ली है. वो असल में ये देखना चाहते थे कि लाल बहादुर शास्त्री एक मजबूत नेता हैं या उन्हें कूटनीतिक स्तर पर उलझा कर जम्मू कश्मीर का मुद्दा बड़ा बनाया जा सकता है. प्रधानमंत्री बनने के चार महीने बाद अक्टूबर 1964 को जब लाल बहादुर शास्त्री का विमान Egypt दौरे से लौटते वक़्त कराची एयरपोर्ट पर उतरा तो जनरल अयूब ख़ान की पहली बार उनसे मुलाक़ात हुई. इस दौरान पाकिस्तान के तब के विदेश मंत्री जुल्फिकार अली भुट्टो भी साथ मौजूद थे.

इस दौरान जनरल अयूब खान और जुल्फिकार अली भुट्टो तो सूट बूट में थे, वहीं लाल बहादुर शास्त्री (Lal Bahadur Shastri) सफेद रंग के धोती कुर्ते में हैं, जिससे उनकी सादगी का पता चलता है. लेकिन शास्त्रीजी की इसी सादगी ने जनरल अयूब खान को गलतफहमी में डाल दिया था. जनरल अयूब खान ने उन्हें धोती कुर्ते में देख कर ये कहा कि.. 'तो ये वो शख्स हैं, जिन्होंने नेहरु की जगह ली है.' जनरल अयूब ख़ान को लगा कि एक छोटे कद का नेता, जो सादे धोती कुर्ते में रहता है, वो केवल इत्तेफाक से भारत का प्रधानमंत्री बन गया है और उन्हें जम्मू कश्मीर के मुद्दे पर घेरा जा सकता है.

लाल बहादुर शास्त्री (Lal Bahadur Shastri) की हाइट 5 फीट 2 इंच थी. जबकि जनरल अयूब खान की हाइट 6 फीट दो इंच थी. यानी वो शास्त्री जी से काफ़ी लम्बे थे और उनका पहनावा ब्रिटेन और अमेरिका के बड़े नेताओं जैसा था. कद और सादगी के आधार पर उन्होंने शास्त्रीजी को कमज़ोर समझने की भूल की और इस मुलाक़ात के लगभग 10 महीने बाद पाकिस्तान ने भारत के ख़िलाफ़ एक सैन्य ऑपरेशन छेड़ दिया, जिसका मकसद था भारत में हथियारों के साथ हज़ारों घुसपैठिए भेज कर विद्रोह कराना और कश्मीर को भारत से अलग कर देना. 

ताशकंद में भारत-पाक में हुआ समझौता

ये 1965 के भारत-पाकिस्तान युद्ध की शुरुआत थी. और इसी युद्ध पर विराम लगाने के लिए 10 जनवरी 1966 को लाल बहादुर शास्त्री (Lal Bahadur Shastri) और जनरल अयूब खान के बीच 9 समझौतों पर हस्ताक्षर हुए. यानी ये समझौता लाल बहादुर शास्त्री की मृत्यु से कुछ घंटे पहले ही हुआ था. इसमें कहा गया था कि 25 फरवरी 1966 तक दोनों देशों की सेनाएं पहले की स्थिति में लौट जाएंगी. यानी जिन इलाक़ों पर भारतीय सेना का कब्जा है, वो वापस पाकिस्तान को मिल जाएंगे, और जिन पर पाकिस्तान का नियंत्रण था, वो इलाक़े भारत को लौटा दिए जाएंगे. 

उस समय भारतीय सेना ने पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर में स्थित 'हाज़ीपीर पास' को अपने नियंत्रण में ले लिया था. ये इलाक़ा इसलिए महत्वपूर्ण था, क्योंकि पाकिस्तान यहीं से अपनी सेना और कबाइलियों को भारत में घुसपैठ कराता था. इसके अलावा भारतीय सेना ने पाकिस्तान के पंजाब प्रांत के बहुत बड़े इलाक़े पर कब्जा कर लिया था और कहा जाता है कि लाहौर से भारतीय सेना के जवान नज़र आने लगे थे. 

भारत की जीत से दबाव में था पाकिस्तान

ये बात पाकिस्तान को इसलिए ज्यादा परेशान कर रही थी क्योंकि भारतीय सेना की इस कार्रवाई से उसके पांच लाख लोग पलायन करके दूसरे इलाक़ों में चले गए थे और अपनी सरकार पर दबाव बना रहे थे. जबकि पाकिस्तान ने जम्मू और राजस्थान के जिन थोड़े बहुत इलाक़ों पर कब्जा किया था, वहां ज्यादा रिहायश नहीं थी. इसलिए इस युद्ध में भारत की स्थिति मजबूत थी. लेकिन ताशकंद में भारत और पाकिस्तान के बीच जो समझौता हुआ, उससे पाकिस्तान को कुछ हद तक फायदा हुआ.

इस समझौते में कुछ और बातों पर सहमति बनी. जैसे कि दोनों देश पहले से निर्धारित सीमाओं का सम्मान करेंगे, सीज़फायर का पालन करेंगे और गतिरोध को बातचीत से सुलझाएंगे. इसके अलावा इसमें ये भी लिखा है कि समझौते के दौरान शास्त्रीजी और जनरल अयूब ख़ान के बीच जम्मू कश्मीर के मसले पर भी बात हुई थी.

इस समझौते के बाद उस दिन ताशकंद में एक पार्टी रखी गई. जिसमें शामिल होने के बाद रात को करीब 10 बजे शास्त्री जी अपने होटल के कमरे में आ गए. पार्टी में थोड़ा-बहुत खा लेने की वजह से शास्त्रीजी (Lal Bahadur Shastri) को भूख नहीं थी इसलिए उन्होंने पालक की साग और मनपसंद आलू की सब्ज़ी के साथ हल्का भोजन किया.  रात को 11 बजे शास्त्री जी ने दिल्ली फोन मिलाकर अपनी पत्नी ललिता से बात की. इस दौरान उनकी पत्नी को उनकी साफ आवाज़ नहीं आ रही थी इसलिए उन्होंने फोन अपनी बेटी कुसुम को दे दिया.

ताशकंद से रात में परिवार को किया कॉल

उन्होंने अपनी बेटी कुसुम से पूछा कि, भारत में इस समय क्या चल रहा है? इस पर उनकी बेटी ने जवाब दिया कि.. यहां यानी भारत में सभी लोग ये जानना चाहते हैं कि इस समझौते के दौरान क्या-क्या हुआ है.

इसके बाद शास्त्रीजी ने घरवालों से कहा कि वो भारतीय अख़बार काबुल भिजवा दें.जहां उन्हें अगले दिन पहुंचना था. इससे ऐसा लगता है कि लाल बहादुर शास्त्री ताशकंद समझौते पर संभावित प्रतिक्रियाओं को जानने के लिए थोड़े बेचैन थे.

वो उस दौरान होटल के अपने कमरे में ही इधर से उधर टहलने लगे और इसके बाद कहा जाता है कि दिल का दौरा पड़ने से उनकी मृत्यु हो गई. ये बात बहुत कम लोग जानते हैं कि शास्त्रीजी एक Heart Patient थे और इससे पहले उन्हें एक बार दिल का दौरा भी पड़ चुका था. जो वर्ष 1959 में आया था.

शास्त्री जी के शव का नहीं हुआ पोस्टमार्टम

इस मामले में दो बातों का जवाब कभी नहीं मिला. पहला ये कि शास्त्रीजी (Lal Bahadur Shastri) की मृत्यु के बाद उनका ताशकंद में Postmortem क्यों नहीं हुआ? और जब उनका पार्थिव शरीर भारत लाया गया तब भी किसी ने उनका Postmortem कराना ज़रूरी क्यों नहीं समझा? दूसरी बात, ये कही जाती है कि मृत्यु के बाद उनका शरीर नीला पड़ चुका था, जिससे ये सवाल उठते हैं कि क्या उन्हें ज़हर दिया गया था?

इस बात का ज़िक्र, कुलदीप नैय्यर ने अपनी आत्मकथा Beyond The Lines में किया है, जो उस वक्त शास्त्रीजी के प्रेस सलाहकार के नाते खुद ताशकंद में मौजूद थे. वो अपनी पुस्तक में हैरानी जताते हुए कहते हैं कि इस बात जवाब उन्हें भी कभी नहीं मिल पाया कि ताशकंद या दिल्ली में उनका पोस्टमार्टम क्यों नहीं किया गया.

आज बहुत सारे लोगों को शायद ये नहीं पता होगा कि नेहरु की मृत्यु के बाद लाल बहादुर शास्त्री (Lal Bahadur Shastri) अचानक से कैसे प्रधानमंत्री बन गए, क्योंकि ना तो स्वतंत्रता आन्दोलन में उनकी भूमिका को लेकर ज्यादा कुछ लिखा गया है और ना ही आज़ादी के बाद वो ज्यादा ख़बरों में रहते थे.

के. कामराज और इंदिरा गांधी में थी अनबन

27 मई 1964 को नेहरु की मृत्यु के बाद गुलज़ारी लाल नंदा को देश का कार्यकारी प्रधानमंत्री बनाया गया था और नए प्रधानमंत्री को चुनने का काम उस समय के कांग्रेस अध्यक्ष के. कामराज के पास था, जिनके इंदिरा गांधी के साथ मतभेद थे. वैसे तो नेहरू ने वर्ष 1959 में ही विरोध के बावजूद इंदिरा गांधी को कांग्रेस का अध्यक्ष बना दिया था और इस नाते से उन्हें ही नेहरु के बाद देश का अगला प्रधानमंत्री बनना था. लेकिन तब कांग्रेस पार्टी में बड़े-बड़े नेता उनके ख़िलाफ़ थे और इसी वजह से इंदिरा गांधी को 1960 में कांग्रेस अध्यक्ष का पद छोड़ना पड़ा था.

1964 में के. कामराज ने नए प्रधानमंत्री के चुनाव के लिए चार दिन में कांग्रेस के 12 मुख्यमंत्री और 200 से ज्यादा सांसदों से मुलाकात की और इनमें से ज्यादातर नेता मोरारजी देसाई को प्रधानमंत्री बनाना चाहते थे. के.कामराज भी काफ़ी हद तक इससे सहमत थे, लेकिन बाद में ये तय हुआ कि अगर मोरारजी देसाई प्रधानमंत्री बन गए तो सरकार और संगठन कमज़ोर पड़ जाएंगे. क्योंकि मोरारजी देसाई के लिए ऐसा कहा जाता था कि वो अपने ही सहयोगियों के विचारों को महत्व नहीं देते थे. इसलिए मोरारजी देसाई का नाम इस सूची से हटा दिया गया.

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कामराज ने लाल बहादुर शास्त्री को पीएम बनाया

उनके बाद दो और नाम प्रस्तावित हुए. इनमें पहला नाम था, लाल बहादुर शास्त्री (Lal Bahadur Shastri) का और दूसरा नाम था इंदिरा गांधी का. अब क्योंकि उस समय कांग्रेस में इंदिरा गांधी को समर्थन करने वाले नेताओं का एक अलग गुट होता था, जो के. कामराज की बात नहीं मानता था. इसलिए के. कामराज ने तय किया कि वो इंदिरा गांधी को प्रधानमंत्री नहीं बनाएंगे.

इस तरह से आख़िर में लाल बहादुर शास्त्री का नाम रह गया. जो 1952 से 1956 के बीच देश की पहली नेहरू सरकार में रेलवे मंत्री, 1961 से 1963 के बीच देश के गृह मंत्री और फिर 1964 में देश के दूसरे प्रधानमंत्री बने. हालांकि उनके प्रधानमंत्री बनने के बाद इंदिरा गांधी ने उन पर दबाव बनाने की कोशिश की.

इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री नहीं बन पाई, इसलिए कुछ नेताओं ने उन्हें लाल बहादुर शास्त्री (Lal Bahadur Shastri) की कैबिनेट में जगह देने के लिए कहा. काफ़ी विचार विमर्श के बाद इंदिरा गांधी को देश का सूचना एवं प्रसारण मंत्री बनाया गया. हालांकि इसे इंदिरा गांधी का अपमान माना गया. क्योंकि उस समय देश में मीडिया ज्यादा विकसित नहीं हुआ था और संचार के माध्यम भी सीमित थे. इसलिए सरकार में सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय की गिनती एक बड़े मंत्रालय के रूप में नहीं होती थी.

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