देश को संविधान देने वाला उसी 'व्यवस्था' से क्यों हारा? जानें, देश विभाजन पर डॉ आंबेडकर का 'वो' सच
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देश को संविधान देने वाला उसी 'व्यवस्था' से क्यों हारा? जानें, देश विभाजन पर डॉ आंबेडकर का 'वो' सच

पाकिस्तान के निर्माण, हिंदुओं और मुसलमानों को लेकर डॉ आंबेडकर के विचार बहुत स्पष्ट व तुष्टिकरण की राजनीति से दूर थे. भीमराव आंबेडकर हमेशा दलित और मुस्लिम राजनीति के गठजोड़ के भी खिलाफ थे.

देश को संविधान देने वाला उसी 'व्यवस्था' से क्यों हारा? जानें, देश विभाजन पर डॉ आंबेडकर का 'वो' सच

PODCAST

  1. राजनैतिक सत्ता नहीं देश के लिए लड़ने वाले हीरो
  2. धर्म निर्पेक्षता पर क्या सोचते थे डॉ बीआर आंबेडकर? 
  3. डॉ आंबेडकर से देश को अभी क्या सीखना है?

नई दिल्ली: डॉक्टर भीम राव आंबेडकर ने ना सिर्फ भारत को उसका संविधान दिया, बल्कि उनके विचारों ने समय-समय पर ये बताया कि 21वीं सदी का भारत कैसा होना चाहिए. इस दुनिया से डॉक्टर आंबेडकर के चले जाने के 65 वर्षों के बाद भारत में उनके नाम पर 18 राजनैतिक पार्टियां हैं. इसके अलावा 30 से ज्यादा दलित पार्टियां ऐसी हैं जो डॉक्टर आंबेडकर को ही अपना प्रेरणास्त्रोत मानती हैं. 74 वर्षों से इन पार्टियों की नजर उन 75 प्रतिशत वोटों पर हैं जो इन्हें दलितों और पिछड़े वर्गों से हासिल होते हैं लेकिन आपको जानकर हैरानी होगी कि जब खुद डॉक्टर भीम राव आंबेडकर ने पहली बार चुनाव लड़ा था तो वो बुरी तरह से हार गए थे.

जब चुनाव में हुई करारी हार

डॉ. आंबेडकर भारत की पहली सरकार में कानून मंत्री थे लेकिन जब 1951 और 52 में भारत में पहले लोक सभा चुनाव हुए तब तक वो कांग्रेस से इस्तीफा दे चुके थे. इसके बाद उन्होंने Scheduled Cast Fedration पार्टी का गठन किया और बॉम्बे की North Central लोक सभा सीट से खड़े हुए लेकिन वो अपना पहला ही चुनाव बुरी तरह से हार गए. वो सिर्फ हारे ही नहीं बल्कि इस चुनाव में चौथे नंबर पर रहे. इस चुनाव में कांग्रेस के उम्मीदवार नारायण सदोबा काजरोलकर को 15 हजार वोटों से जीत मिली, जबकि कम्युनिस्ट पार्टी और हिंदू महासभा के उम्मीदवार को भी उनसे ज्यादा वोट मिले थे.

नेताओं को राजनीति में नहीं हरा पाए आंबेडकर

इससे आप अंदाजा लगा सकते हैं कि जिस व्यक्ति ने भारत के संविधान की रचना की. जिसने ये व्यवस्था बनाई कि हमारा देश हमेशा लोकतंत्र के आधार पर चलेगा और जिस लोकतंत्र की आत्मा हमारे देश का संविधान होगा वो व्यक्ति खुद देश के बड़े-बड़े राजनेताओं को उनकी राजनीति में नहीं हरा पाया. इसका शायद सबसे बड़ा कारण ये था कि डॉक्टर आंबेडकर को राजनेताओं वाली चालबाजियां नहीं आती थीं वो सिर्फ अपने देश के लिए खड़े होना जानते थे.

नेहरू कैबिनेट से क्यों दिया इस्तीफा?

भारत के पहले लोक सभा चुनाव के शुरू होने से पहले ही 27 सितंबर 1951 को भीम राव आंबेडकर ने नेहरू की कैबिनेट से इस्तीफा दे दिया था, वो हिंदू Code Bill और धारा 370 जैसे मुद्दों पर नेहरू की नीतियों से नाराज थे. 10 अक्टूबर 1951 को उन्होंने अपना इस्तीफा संसद में पढ़ने का फैसला किया क्योंकि वो नहीं चाहते थे कि जब उनके इस्तीफे की खबर अखबारों में छपे तो उसके कारणों को अखबार अपने अपने ढंग से परिभाषित करें. उनका कहना था कि अगर कोई मंत्री बिना अपना वक्तव्य दिए अपना पद छोड़ देता है तो उससे लोगों को लगता है कि जरूर मंत्री ने कुछ गलत किया होगा. 

जब नेहरू की नीतियों का किया विरोध

खैर इस बीच भारत में पहले लोक सभा चुनाव हो चुके थे. कांग्रेस को बहुमत मिला था जबकि डॉक्टर आंबेडकर अपना पहला चुनाव हार चुके थे लेकिन फिर वो राज्य सभा पहुंचे और वहां भी उन्होंने तत्कालीन सरकार की नीतियों का विरोध जारी रखा. 26 अगस्त 1954 को राज्य सभा में डॉक्टर आंबेडकर ने कहा था कि भारत को पूरी तरह से घेर लिया गया है. एक तरफ पाकिस्तान व दूसरे मुस्लिम देश हैं और दूसरी तरफ तिब्बत पर चीन का कब्जा स्वीकार करके नेहरू ने एक तरह से चीन का बॉर्डर भारत के करीब लाने में मदद की है. उन्होंने ये भी कहा कि अगर आज भारत को खतरा नहीं है तो इसका मतलब ये नहीं है कि आगे भी खतरा नहीं होगा, क्योंकि जिसकी आदत आक्रमण की होती है वो कभी अपनी आदत नहीं छोड़ता. इसके सिर्फ 8 वर्षों के बाद चीन ने कैसे भारत पर आक्रमण किया और भारत को अपनी जमीन का एक बहुत बड़ा हिस्सा चीन के हाथों गंवाना पड़ा ये आज किसी से छिपा नहीं है.

तुष्टिकरण की राजनीति से थे दूर

कुल मिलाकर पाकिस्तान के निर्माण और हिंदुओं और मुसलमानों को लेकर डॉ आंबेडकर के विचार बहुत स्पष्ट और तुष्टिकरण की राजनीति से दूर थे. वर्ष 1946 में डॉक्टर भीमराव आंबेडकर  ने Pakistan or The Partition of India नाम की एक पुस्तक लिखी थी जिसमें उन्होंने पाकिस्तान जा रहे हिंदुओं को एक संदेश दिया था उन्होंने इस किताब में कहा था कि 'जबरन मुस्लिम बनाए जाने से बचने के लिए वो जैसे भी संभव हो, भारत आ जाएं. मुसलमानों पर केवल इसलिए भरोसा न करें कि उनकी सवर्ण हिंदुओं से नाराजगी है. ये बहुत बड़ी भूल होगी. इसी किताब में उन्होंने लिखा है कि मुस्लिम नेता धर्मनिरपेक्ष जीवन के महत्व को समझते नहीं हैं क्योंकि उन्हें लगता है कि उनकी लड़ाई हिंदुओं से है और धर्मनिरपेक्ष रवैया अपनाने पर उनका अपना समुदाय इस लड़ाई में कमजोर हो जाएगा. उन्होंने लिखा था कि दुख की बात ये है कि अमीरों के खिलाफ न्याय की लड़ाई में गरीब मुस्लिम, गरीब हिंदुओं का साथ नहीं देंगे. पूंजीवाद के खिलाफ लड़ाई में मुस्लिम मजदूर कभी हिंदू मजदूर का साथ नहीं देंगे.

दलित-मुस्लिम गठजोड़ के खिलाफ
भीमराव आंबेडकर हमेशा दलित और मुस्लिम राजनीति के गठजोड़ के खिलाफ थे. डॉ. आंबेडकर के भाषणों और लेखों के संकलन को स्टडी करने पर हमें उनकी कही एक महत्वपूर्ण बात मिली उन्होंने कहा था, 'मैं मुस्लिम भारत और गैर मुस्लिम भारत का विभाजन बेहतर समझता हूं क्योंकि ये दोनों को सुरक्षा प्रदान करने का सबसे पक्का और सुरक्षित तरीका है. अवश्य ही अन्य विकल्पों में ये अधिक सुरक्षित है.' डॉ. आंबेडकर का मानना था कि इस देश में मुसलमान हमेशा ही शासक वर्ग रहा है और अगर दलित और मुसलमानों का गठजोड़ होगा तो दलितों का भला नहीं हो सकता. उनका शोषण ही होगा लेकिन इसका मतलब ये नहीं है कि डॉक्टर आंबेडकर भारत को हिंदू राष्ट्र बनाने के पक्ष में थे.

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राजनीति के लिए जोड़े गए ये शब्द?
संविधान सभा में कांग्रेस पार्टी का बहुमत था. संविधान की प्रारूप समिति के अध्यक्ष डॉ अंबेडकर थे उन्होंने नए भारत की कल्पना एक ऐसे देश के रूप में की, जिसमें सभी लोगों के लिए समान मौका हो. भारत में सभी लोगों को उनकी आस्था और धार्मिक मान्यताओं के मुताबिक स्वतंत्रता दी गई फिर भी हमारे देश के संविधान की मूल प्रस्तावना में धर्म-निरपेक्ष जैसा कोई शब्द नहीं था. ये शब्द संविधान की मूल प्रस्तावना में बाद में जोड़ा गया है. देश में इमरजेंसी के बाद 1976 में संविधान में 42वां संशोधन हुआ और संविधान की प्रस्तावना में दो शब्द जोड़े गये... ‘Secular’ यानी पंथ-निरपेक्ष और ‘Socialist’ यानी समाजवादी. संविधान में तो Secular शब्द का अनुवाद पंथ-निरपेक्ष किया गया है लेकिन इसे बाद में धर्मनिरपेक्ष कहा जाने लगा और फिर देश की तमाम पार्टियों ने इसी शब्द को हथियार बनाकर ना सिर्फ अलग अलग वर्गों का तुष्टिकरण किया बल्कि धर्म निरपेक्षता के नाम पर कई बार देश की अखंडता को भी खतरे में डाल दिया. 

आरक्षण पर आंबेडकर के विचारों का सच?
कुल मिलाकर हिंदुओं और मुसलमनों को लेकर डॉक्टर आंबेडकर का नजरिया एकदम स्पष्ट था और जो संविधान उन्होंने तैयार किया था उसमें धर्म निरपेक्षता शब्द नहीं लिखा था. इतिहासकारों और राजनेताओं ने आपको सिर्फ आरक्षण पर आंबेडकर के विचार किताबों में पढ़ाए लेकिन आपको कभी ये नहीं बताया कि कैसे वो जानते थे कि पाकिस्तान गए या वहां फंस चुके हिंदू कभी खुश और सुरक्षित नहीं रह सकते. जहां तक बात आरक्षण पर आंबेडकर के विचारों की है वहां देश के लोगों को अंधेरे में ही रखा गया. डॉक्टर आंबेडकर ने दलितों और वंचितों को भारत में आरक्षण देने की सबसे ज्यादा वकालत जरूर की थी, लेकिन शायद ही उन्होंने कभी ये सोचा होगा कि उनके जाने के बाद भारत की कई राजनैतिक पार्टियां आरक्षण को ही हथियार बना लेंगी. डॉक्टर आंबेडकर आरक्षण के जरिए पिछड़ों को सशक्त बनाने के पक्ष में थे ना कि राजनैतिक पार्टियों को सत्ता दिलाने के पक्ष में. 

आरक्षण के नाम पर राजनीति की दुकानें 
आरक्षण पर डॉ आंबेडकर ने एक बार कहा था कि आरक्षण आर्थिक उत्थान या गरीबी के उद्देश्य से नहीं है. इसके जरिए प्रशासन में कुछ विशेष जातियों का प्रवेश होगा जो अब तक प्रशासन से बाहर हैं. इस वर्ग के लोगों को सरकारी नौकरियों में उचित स्थान मिलना चाहिए. इससे इन लोगों को सत्ता के माध्यम से ताकत मिलेगी और ये सशक्त होंगे. जहां बहुसंख्यक आबादी सत्ता में अपने हिस्से से वंचित हैं, वहां कोई लोकतंत्र नहीं है. लेकिन डॉक्टर आंबेडकर के जाने के बाद पार्टियां आरक्षण के नाम पर अपनी राजनीति की दुकान चलाने लगीं. हमारे देश के नेताओं को लगने लगा कि वो आरक्षण के जितने बीज बोएंगे उतनी ही वोटों की फसल काट पाएंगे.

जातियों वाली राजनीति का औजार

आरक्षण को जातियों वाली राजनीति का औजार बनाकर, हमारे नेताओं ने पिछले 74 वर्षों में आपके वोट लूटे हैं और देश को भी लूटा है. हमारे देश में गरीबी हटाओ के नारे लगाए गये लेकिन आज भी हमारे देश से गरीबी हटी नहीं है. सियासत के खिलाड़ियों ने अपनी इच्छा और राजनीतिक स्वाद के अनुसार डॉक्टर भीमराव आंबेडकर के नाम का इस्तेमाल किया. उन पर अपना Copyright हासिल करने की कोशिश की लेकिन उनके मूल विचारों को किसी ने नहीं समझा. आज भी हमारे देश की राजनीतिक पार्टियां हर चुनाव में आरक्षण के औजार को धार देना नहीं भूलतीं इसलिए आज आंबेडकर के नाम पर राजनीति की दुकानें चलाने की बजाय उनकी सोच को सही अर्थों में अपनाने की जरूरत है.

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