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नई दिल्ली: अलगाववाद की तरह आतंकवाद पर भी हमारे देश में एक कानून होने के बावजूद दोहरे मापदंड अपनाए जाते हैं. हम आपको आतंकवाद पर दो राज्यों के अलग अलग रवैये के बारे में बताते हैं.
हाल ही में 2008 के अहमदाबाद सीरियल बॉम्ब ब्लास्ट केस में गुजरात की एक अदालत ने 38 लोगों को एक साथ फांसी की सज़ा सुनाई. ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि उस समय गुजरात के मुख्यमंत्री रहते हुए नरेन्द्र मोदी ने आतंकवाद के ख़िलाफ़ बहुत सख्त रवैया अपनाया था. उसी दौरान उत्तर प्रदेश में भी ऐसे ही आतंकवादी हमले हुए थे, लेकिन वहां की सरकार ने एक खास धर्म के तुष्टिकरण के लिए, आरोपियों के ख़िलाफ़ मुकदमा वापस ले लिया.
हाल ही में गुजरात की एक विशेष अदालत ने 26 जुलाई 2008 को अहमदाबाद में हुए सीरियल बम ब्लास्ट के 38 दोषियों को फांसी की सज़ा सुनाई थी. आज़ादी के बाद भारत के इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ, जब एक साथ 38 दोषियों को फांसी की सज़ा दी गई. जबकि 11 आरोपियों को उम्रकैद की सज़ा सुनाई गई. लगभग 14 वर्ष पहले हुए इस हमले में आतंकवादी संगठन इंडियन मुजाहिदीन और Students' Islamic Movement of India यानी SIMI ने अहमदाबाद में 70 मिनट के दौरान 21 बम धमाके किए थे, जिनमें 56 लोगों की जान चली गई थी.
तो एक तरफ़ गुजरात है, जहां सीरियल बम ब्लास्ट करने वाले 38 दोषियों को एक साथ फांसी की सज़ा हुई. दूसरी तरफ़ उत्तर प्रदेश है, जहां वर्ष 2000 से 2009 के बीच 7 ज़िलों में आतंकवादियों द्वारा कई सीरियल बम ब्लास्ट किए गए. लेकिन 2013 में जब इन सभी मामलों में कोर्ट में सुनवाई चल रही थी, उस समय की तत्कालीन समाजवादी पार्टी सरकार ने आतंकवादियों के साथ सहानुभूति दिखाते हुए उन पर दर्ज केस वापस ले लिए थे.
उस समय उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव थे. उनका कहना था कि इन कुल 14 हमलों में शामिल 11 आरोपियों को जानबूझकर फंसाया गया है, क्योंकि वो इस्लाम धर्म को मानते हैं. यानी उन्होंने आतंकवादियों को उनके धर्म के नाम पर डिस्काउंट दे दिया और मामले अदालत में होते हुए उन पर दर्ज केस भी वापस ले लिए. हालांकि तब इनमें से ज्यादातर केस में कोर्ट ने कहा था कि इन मुकदमों को वापस नहीं लिया जा सकता और इन मामलों में सुनवाई आगे भी चलती रहेगी.
कहने का मतलब ये है कि मुद्दा एक ही था, आतंकवाद का. लेकिन एक राज्य में इसके ख़िलाफ़ सख्त और कड़े कदम उठाए गए, जिसकी वजह से आज 38 दोषियों को फांसी की सज़ा हो पाई. लेकिन दूसरे राज्य में आतंकवादियों के साथ हमदर्दी जताते हुए, इस पर मुस्लिम तुष्टिकरण की कोशिशें हुईं और आतंकवादियों पर दर्ज मुकदमे वापस ले लिए. इससे कुछ मामलों में जांच सही से नहीं हो पाई और सबूतों के अभाव में आरोपियों को छोड़ना भी पड़ा.
आप इसे दो आतंकवादी हमलों की कहानी भी कह सकते हैं. जिनसे पता चलता है कि हमारे देश में कैसे टेरर को चुनावों में फायदे के लिए टूलकिट की तरह इस्तेमाल किया गया. ये Case Studies, दोनों राज्यों के उस समय के मुख्यमंत्री और उनकी सरकारों की कार्यशैली के बारे में भी बताती हैं.
2008 में जब अहमदाबाद में सीरियल बम ब्लास्ट हुए थे, उस समय नरेन्द्र मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री थे. वर्ष 2001 में जब वो गुजरात के मुख्यमंत्री बने थे, उससे पहले राज्य में आतंकवाद चरम पर था, गुजरात को कर्फ्यू स्टेट कहा जाता था और वहां के पोरबंदर पोर्ट से RDX और दूसरे विस्फोटक को भारत में लाया जाता था. इसके बाद नरेन्द्र मोदी ने आतंकवाद के ख़िलाफ़ निर्णायक लड़ाई शुरू की और इस पर होने वाली मुस्लिम तुष्टिकरण की राजनीति को पूरी तरह समाप्त कर दिया.
- वो Gujarat Control of Organised Crime Act लेकर आए, जिससे पुलिस और सुरक्षाबलों को आतंकवाद के ख़िलाफ़ लड़ाई में मदद मिली.
- गैंगस्टर्स को रोकने के लिए गुजरात में गुंडा ऐक्ट लागू किया गया.
- National Forensic Science University की स्थापना की.
- और गुजरात पुलिस को नई टुकड़ियों और हथियारों से लैस किया गया.
- अहमदाबाद हमलों के बाद SIMI और इंडियन मुजाहिदीन के नेटवर्क को तोड़ने के लिए पुलिस का अधिकार क्षेत्र और शक्तियां बढ़ाई गई, ताकि वो इस मामले में सभी दोषियों को सज़ा दिला सके.
- इसके बाद गुजरात पुलिस ने इतना शानदार काम किया कि केन्द्रीय एजेंसियों को भी SIMI जैसे आतंकवादी संगठनों के ख़िलाफ लड़ने में मदद मिली. 2008 के बाटला हाउस एनकाउंटर की लीड भी गुजरात पुलिस ने दी थी.
- ये नरेन्द्र मोदी ने बड़े और कठोर फैसलों की ही नतीजा था कि अहमदाबाद ब्लास्ट में इतना बड़ा फैसला आया है. अब आप ये देखिए कि जब अखिलेश यादव उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री थे, उन्होंने आतंकवाद के मुद्दे पर क्या नीति अपनाई.
अखिलेश यादव की सरकार में उत्तर प्रदेश आतंकवाद की उस समस्या से संघर्ष कर रहा था, जिससे गुजरात लड़ रहा था. लेकिन अखिलेश यादव ने वर्ष 2013 में मुसलमानों को खुश करने के लिए, 7 ज़िलों में हुए बम धमाकों के 11 आरोपियों पर दर्ज केस वापस ले लिए.
- इनमें वाराणसी में वर्ष 2006 में हुए आतंकवादी हमले में 28 लोग मारे गए थे. लेकिन 5 मार्च 2013 को तब की समाजवादी पार्टी सरकार ने शमीम अहमद उर्फ़ सरफराज़ पर दर्ज मुकदमे वापस ले लिए. जबकि अदालत ने इसे गलत माना था. इस मामले में आज भी सुनवाई चल रही है. अगर इस मामले में आतंकवाद को आतंकवाद के चश्मे से देखा गया होता तो शायद उसमें भी दोषियों को अहमदाबाद ब्लास्ट की तरह फांसी की सज़ा हो चुकी होती.
- इसी तरह मई 2007 को गोरखपुर में एक के बाद एक कई बम धमाके हुए थे, जिनमें कई लोग घायल हो गए थे. लेकिन इस मामले में भी मोहम्मद तारिक काज़मी पर दर्ज मुकदमे अखिलेश यादव ने वापस ले लिए थे. हालांकि अदालत ने उस समय ऐसा नहीं होने दिया और आज ये आतंकवादी, 20 साल की जेल की सज़ा काट रहा है. सोचिए, जिस अदालत ने बम ब्लास्ट का दोषी माना है, उसे एक समय अखिलेश यादव की सरकार ने इसलिए रिहा कर दिया था क्योंकि वो एक विशेष धर्म से था.
- इसके अलावा बिजनौर, लखनऊ, कानपुर और बाराबंकी में हुए आतंकवादी हमलों में भी तत्कालीन समाजवादी पार्टी द्वारा आतंकवादियों पर दर्ज केस वापस ले लिए थे. जिसकी वजह से लखनऊ के मामले में तो कुछ आरोपी जेल से भी छूट गए. ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि तब की सरकार ने इन आतंकवादियों के ख़िलाफ़ ठीक से जांच ही नहीं होने दी और इनके ख़िलाफ़ कोर्ट को ठोस सबूत नहीं मिल पाए. इससे आप समझ सकते हैं कि हमारे देश में आतंकवाद के मुद्दे का भी कैसे राजनीतिकरण हुआ.
हम आपको कुछ आंकड़ों के ज़रिए बताते हैं कि, जब आतंकवाद को आतंकवाद के चश्मे से देखा जाता है तो क्या होता है और जब आतंकवाद को धर्म के चश्मे से देखा जाता है तो क्या होता है.
अगर जम्मू-कश्मीर, पंजाब और उत्तर पूर्वी भारत के राज्यों को छोड़ कर देश के दूसरे हिस्सों में आतंकवादी हमलों की बात करें तो वर्ष 2005 से 2013 के बीच भारत में 39 बड़े आतंकवादी हमले हुए, जिनमें 750 नागरिक मारे गए और 33 जवान शहीद हुए. जबकि 2014 से 2019 के बीच देश में 21 आतंकवादी हमले हुए, जिनमें केवल चार नागरिकों की मौत हुई. 2018 और 2019 में इस दौरान एक भी आतंकवादी हमला नहीं हुआ. क्या आप पहले कल्पना भी कर सकते थे कि भारत के इन राज्यों में दो वर्षों के दौरान एक भी आतंकवादी हमला नहीं होगा. ऐसा हुआ क्योंकि मौजूदा सरकार ने आतंकवाद को मुस्लिम तुष्टीकरण का विषय नहीं माना गया.
नरेन्द्र मोदी ने आतंकवाद को ना सिर्फ़ अंतर्राष्ट्रीय मुद्दे पर उठाया बल्कि वर्ष 2014 में उन्होंने कहा था कि अच्छा और बुरा आतंकवाद कुछ नहीं होता. इससे पहले तक आतंकवाद को अच्छे और बुरे में परिभाषित किया जाता था. आपको याद होगा, वर्ष 2008 में जब दिल्ली बम धमाकों के बाद बाटला हाउस एनकाउंटर में दो आतंकवादी मारे गए थे, तब UPA सरकार ने इन आतंकवादियों के साथ हमदर्दी जताई थी. सलमान खुर्शीद ने एक बार कहा था कि इस एनकाउंटर के बाद, सोनिया गांधी की आंखों में आंसू थे.
पिछली सरकारों में आतंकवादियों के प्रति सहानुभूति दिखाई जाती थी और उन्हें नायक की तरह पेश किया जाता था. उदाहरण के लिए, कांग्रेस के बड़े नेता दिग्विजय सिंह ने एक बार आतंकवादी ओसामा बिन लादेन को लादेनजी कहकर संबोधित किया था.
इसी देश में संसद हमले के दोषी और आतंकवादी अफज़ल गुरु को एक पढ़ा लिखा व्यक्ति बताते हुए उसका महिमामंडन किया गया और वर्ष 2016 में उसकी बरसी पर दिल्ली के जवाहर लाल नेहरु विश्वविद्यालय में देशविरोधी नारे लगाए गए.1993 के मुंबई सीरियल बम ब्लास्ट के दोषी याकूब मेमन की फांसी टालने के लिए एक खास विचारधारा के लोगों और वकीलों ने वर्ष 2015 में आधी रात को सुप्रीम कोर्ट खुलवा दी थी.
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यानी आप ध्यान से देखेंगे तो हमारे देश में आतंकवाद पर एक ऐसा इकोसिस्टम तैयार हो चुका है, जिसमें आतंकवादियों को मानवीय आधार पर सही साबित करने की कोशिश होती है. ये कहा जाता है कि, वो तो काफ़ी पढ़ा लिखा था और उसके विचार बहुत क्रान्तिकारी थे. फिर कुछ नेता, पत्रकार और बुद्धिजीवी उस आतंकवादी के घर जाते हैं, शोक मनाते हैं, और फिर ऐसे आतंकवादियों के बारे में अच्छी अच्छी बातें हमारे देश के मीडिया और विदेशी मीडिया में छपती हैं.
एक दिन उस आतंकवादी पर फिल्म बनती है, जिसके लिए अभिनेताओं को पुरस्कार मिलते हैं. धीरे धीरे ये बात स्वीकार्य हो जाती है कि आतंकवादी भी तो असल में इंसान ही है. उनकी भी मजबूरियां होती है. ये धारणा बना दी जाती है. जबकि देश के सैनिकों के लिए सोचा जाता है कि वो शहीद होने के लिए ही सेना में गए हैं. इसलिए आतंकवाद के इस असली रूप को आपको समझना होगा.
कांग्रेस की रग रग में मुस्लिम तुष्टीकरण का विचार बसा हुआ है. इसे कांग्रेस के बड़े नेता शशि थरूर ने भी माना है. ज़ी न्यूज़ के अर्थ फेस्टिवल में शशि थरूर ने पहली बार स्वीकार किया कि कांग्रेस को मुसलमानों का तुष्टिकरण और अच्छे ढंग से करना चाहिए था.