नेहरू और पटेल की असहमति ने गांधी जी का दिल तोड़ दिया था. वह जान गए कि अब उन्हें वायसराय के पास जाकर स्वीकार करना होगा कि कांग्रेस पार्टी अब उनका साथ निभाने के लिए तैयार नहीं है.
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नई दिल्ली: अतीत के पन्नों से, में अभी तक आपने पढ़ा कि देश की आजादी की तारीख 15 अगस्त 1947 तय हो चुकी थी. आजादी के लिए 15 अगस्त 1947 की तारीख को अशुभ बताकर ज्योतिषियों ने नई परेशानी खड़ी कर दी थी. इस परेशानी से निजात पाने के लिए 14 अगस्त 1947 की मध्य रात्रि से आजादी का गवाह बनने वाले पहले समारोह को शुरू करने का फैसला किया गया. यह समारोह पार्लियामेंट के सेंट्रल हॉल में आयोजित किया गया था. आयोजन के दौरान देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू ने अपना एतिहासिक भाषण Tryst with Destiny दिया था. समारोह के दौरान पंडित जवाहर लाल नेहरू के अतिरिक्त डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन और चौधरी खलिकज्जमा भी थे. अब आगे...
सबको हैरान करने वाली थी गांधी जी की गैरमौजूदगी
इस समारोह की शुरुआत संविधान सभा के अध्यक्ष डॉ राजेंद्र प्रसाद के भाषण से शुरू हुई. डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने अपना उद्बोधन महात्मा गांधी को नमन करते हुए शुरू किया. जैसे ही डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने महात्मा गांधी का नाम लिया, संविधान सभा तालियों की गडगडाहट से गूंजने लगा.
तालियां लंबे समय तक लगातार और समान ध्वनि के साथ बजती रहीं. इन तालियों की गड़गड़ाहट के बीच सभी के लिए एक हैरान करने वाली बात यह थी कि आजादी की लड़ाई को मुखर करने के बाद अंजाम तक पहुंचाने वाले महात्मा गांधी इस समारोह में शामिल नहीं हुए थे. अतीत के पन्नों में महात्मा गांधी के इस समारोह में शामिल न होने के पीछे मुख्यतौर पर दो वजह बताई गई हैं.
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गांधी जी ने न ही किसी समारोह में हिस्सा लिया, न ही झंडा फहराया
पहली और अहम वजह भारत और पाकिस्तान के बंटवारे को लेकर देश के विभिन्न हिस्सों में फैली हिंसा थी. वहीं दूसरी वजह देश के विभाजन को टालने के लिए गांधी द्वारा किए जा रहे प्रयासों के खिलाफ नेहरू और सरदार पटेल का खड़ा होना था. प्रसद्धि इतिहासकार और लेखक रामचंद्र गुहा ने अपनी किताब 'इंडिया आफ्टर गांधी' में महात्मा गांधी के खिन्न होने की पहली वजह का जिक्र करते हुए लिखा है कि जिस दिन नई दिल्ली में देश की आजादी का जश्न मनाया जा रहा था, उस दिन महात्मा गांधी कोलकाता में थे.
वहां भी उन्होंने ना तो किसी समारोह में हिस्सा लिया और ना ही झंडा फहराया. 14 अगस्त की शाम को बंगाल के मुख्यमंत्री उनसे मिलने आए थे. उन्होंने महात्मा गांधी से पूछा था, कि अगले दिन यानी 15 अगस्त को स्वतंत्रता समारोह किस तरह मनाया जाए. बंगाल के मुख्यमंत्री के इस सवाल का गांधी जी ने जवाब देते हुए कहा कि चारों तरफ लोग भूख से मर रहे हैं, फिर भी आप चाहते हैं कि विनाश की घटना के बीच कोई समारोह मनाया जाए.
पत्रकार को दिए जवाब में झलकी बापू की नेहरू के प्रति नाराजगी
उन्होंने लिखा है कि पार्लियामेंट में आयोजित समारोह में शिरकत न करने के पीछे हकीकत तो यह थी कि गांधी जी का मन बहुत ही खिन्न था. जब पत्रकार ने गांधी जी से स्वतंत्रता दिवस पर कोई संदेश देने को कहा तो गांधी जी ने जवाब दिया वह अंदर से बहुत खालीपन महसूस कर रहे हैं. इस बीच, ब्रिटिश ब्रॉडकास्टिंग कॉरपोरेशन (BBC) की तरफ से गांधी जी के सचिव के पास एक अनुरोध आया. यह अनुरोध भारत की आजादी पर गांधी जी के संदेश को लेकर था.
बीबीसी ने अपने अनुरोध में कहा था कि दुनिया में महात्मा गांधी ही भारत की नुमाइंदगी करते हैं. भारत की आजादी के ऐतिहासिक मौके पर पूरी दुनियां गांधी जी के संदेश को सुनना चाहती है. बीबीसी के इस प्रस्ताव को महात्मा गांधी ने यह कहते हुए खारिज कर दिया कि 'बेहतर होगा कि वे लोग जवाहर लाल नेहरू से बात करें.' महात्मा गांधी के इस जवाब में उनकी नेहरू के प्रति नाराजगी झलक रही थी.
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बंटवारा रोकने के लिए गांधी जी ने वायसराय के सामने रखा अजब प्रस्ताव
वहीं, लैरी कॉलिन्स और दॉमिनिक लैपियर की किताब 'आधी रात को आजादी' में गांधी जी की नाराजगी की दूसरी वजह का जिक्र किया गया है. लैरी कॉलिन्स और दॉमिनिक ने ब्रिटिश भारत के आखिरी वायसराय माउंटबेटन और गांधी जी के बीच हुए संवाद का जिक्र किया है. बतौर वायसराय भारत आने के बाद माउंटबेटन और गांधी जी की यह पहली मुलाकात थी.
वायसराय माउंटबेटन से मुलाकात के दौरान महात्मा गांधी लगातार भारत और पाकिस्तान के बंटवारे को रोकने के लिए कोशिश में लगे रहे. इसी कोशिश के तहत महात्मा गांधी ने एक प्रस्ताव वायसराय माउंटबेटन के सामने रखा. गांधी जी का प्रस्ताव सुनकर एक बार माउंटबेटन भी चकरा गए. चूंकि यह प्रस्ताव महात्मा गांधी की तरफ से रखा गया था, लिहाजा माउंटबेटन इस प्रस्ताव को खारिज नहीं कर सकते थे.
कांग्रेस की असहमति पर अटका गांधी जी का प्रस्ताव
लैरी कॉलिन्स और दॉमिनिक लैपियर ने उल्लेख किया गया है कि अपने प्रस्ताव के तहत गांधी जी ने माउंटबेटन से कहा, 'जिन्ना अपनी मुस्लिम लीग के साथ सामने आएं. सरकार बनाएं. देश के 30 करोड़ हिन्दुओं पर राज करें. भारत का एक मात्र टुकड़ा जिन्ना को क्यों दिया? क्यों न पूरा भारत ही दे दिया जाए?' गांधी जी के इस प्रस्ताव से आश्चर्य चकित माउंटबेटन ने कहा, आपका प्रस्ताव इतना अजब है कि .... क्या कांग्रेस पार्टी इसे स्वीकार कर सकेगी.
गांधी जी ने उत्तर दिया, कांग्रेस की सिर्फ एक इच्छा है कि विभाजन न हो, चाहे इसके लिए कुछ भी करना पड़े. माउंटबेटन का अगला सवाल था 'इस प्रस्ताव पर जिन्ना क्या सोचेंगे.' गांधी जी बोले कि 'उन्हें यह पता चला गया कि प्रस्ताव गांधी ने रखा है, तो वह निश्चित तौर पर यही कहेंगे कि "हद है गांधी की मक्कारी की” और गांधी जी खुल कर हंसने लगे.'
गांधी जी के इस प्रस्ताव पर माउंटबेटन का जवाब था 'यदि आप इस प्रस्ताव पर कांग्रेस की औपचारिक स्वीकृति लाकर दे दें तो मै भी विचार करने के लिए राजी हूं.' गांधी जी माउंटबेटन का जवाब सुनकर उझल पड़े, बोले - सच.
महात्मा गांधी के साए से जरा अलग हटने का प्रयोग
लैरी कॉलिन्स और दॉमिनिक लैपियर ने अपनी किताब में उल्लेख किया है कि गर्मी आज केवल वातावरण में नहीं थी. उससे अनेक गुना गर्मी आज उन नेताओं में थी, जो गांधी जी को घेर का बैठे थे और एक ऐसी बहस कर रहे थे, जो उन सबके जीवन में अपनी तरह की पहली थी. वे सब के सब आज गांधी जी के खिलाफ बोल रहे थे.
महात्मा गांधी यह पहचान नहीं सके थे कि ज्यों-ज्यों आजादी नजदीक आ रही थी, त्यों-त्यों उनके आस पास के कार्यकर्ताओं की नई-नई महत्वाकांक्षाएं प्रबल हो रही थीं. चुपके-चुपके वे चाहने लगे थे कि महात्मा गांधी के साए से जरा अलग हटने का भी प्रयोग कर देखें. बहस गांधी जी के प्रस्ताव 'जिन्ना को प्रधानमंत्री बना दिया जाए' पर हो रही थी.
कातर स्वर में भीख मांगते से दिखे बापू
गांधी जी कह रहे थे कि 'यदि आप लोग इस योजना पर अपनी सहमति नहीं देंगे , तो वायसराय को देश के टुकने करने पर मजबूर होना पड़ेगा.' गांधी जी का तर्क था कि 'टुकड़े होते ही देश में भयानक अराजकता आएगी. खून की नदिया बहेंगी. नरसंहार होंगे. हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच जो नफरत है, टुकड़े होते ही वह दबने की अपेक्षा एकदम फूट पड़ेगी.
' किताब में लिखा गया है कि कतार स्वर में गांधी जी अपने साथियों से भीख मांग रहे थे. उनकी योजना को वे स्वीकार कर लें. अच्छी या बुरी जैसी भी योजना है, यह एक मात्र है. गांधी जी के इस अनुरोध पर नेहरू और पटेल का तर्क था कि एकता के लिए भी त्याग एक सीमा तक किया जा सकता है. प्रधानमंत्री का पद जिन्ना को देना उस सीमा का अतिक्रमण करना ही होगा.
नेहरू और पटेल की असहमति ने गांधी जी का दिल तोड़ दिया था. वह जान गए कि अब उन्हें वायसराय के पास जाकर स्वीकार करना होगा कि कांग्रेस पार्टी अब उनका साथ निभाने के लिए तैयार नहीं है.