ZEE जानकारीः देश में किसान होना, गरीब होने की गारंटी की तरह है
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ZEE जानकारीः देश में किसान होना, गरीब होने की गारंटी की तरह है

एक दौर था, जब हिंदी फिल्मों में लंबे समय तक कहानी का केन्द्र बिंदु किसान होता था. आपने भी बहुत सारी ऐसी फिल्में देखी होंगी, जो किसानों की ज़िंदगी पर बनी थीं. ऐसी फिल्मों का नायक एक किसान होता था, और साहूकार, खलनायक की भूमिका में होता था. आज ये दौर तो बदल गया है, लेकिन किसानों के हालात नहीं बदले.

ZEE जानकारीः  देश में किसान होना, गरीब होने की गारंटी की तरह है

आपने अकसर किस्से-कहानियों में सुना होगा कि एक गांव में एक गरीब किसान रहता था...इस एक लाइन से पता चलता है कि हमारे देश में किसान होना, गरीब होने की गारंटी की तरह है. आजादी से पहले वर्ष 1936 में भारत के महान लेखक मुंशी प्रेमचंद ने एक प्रसिद्ध उपन्यास लिखा था, जिसका नाम था गोदान. इसमें भारत के किसानों की दुर्दशा को दिखाया गया है. गोदान में, होरी नाम का एक किसान, जीवन भर कर्ज में दबा रहता है, और कर्ज के बोझ के साथ ही मर जाता है. अंतिम समय में गोदान करवाने के लिए होरी की पत्नी.. धनिया फिर से कर्ज़ लेती है. यानी गोदान का किसान, कर्ज़ से कभी आज़ाद नहीं हो पाता. अफसोस इस बात का है कि आजादी के 70 वर्षों के बाद भी देश के किसानों की हालत वैसी ही है, जैसी मुंशी प्रेमचंद ने अपने उपन्यासों और कहानियों में दिखाई थी. पहले किसान, कर्ज़माफ़ी के लिए साहूकारों के दरवाज़े पर खड़े रहते थे... और अब सरकारों के दरवाज़ों पर खड़े रहते हैं.

एक दौर था, जब हिंदी फिल्मों में लंबे समय तक कहानी का केन्द्र बिंदु किसान होता था. आपने भी बहुत सारी ऐसी फिल्में देखी होंगी, जो किसानों की ज़िंदगी पर बनी थीं. ऐसी फिल्मों का नायक एक किसान होता था, और साहूकार, खलनायक की भूमिका में होता था. आज ये दौर तो बदल गया है, लेकिन किसानों के हालात नहीं बदले. उस दौर में ही ये कहा गया था कि देश की धरती, सोना, हीरे और मोती उगल सकती है. लेकिन अब धरती से फसलों का सोना उगाने वाले ये किसान आत्महत्या कर रहे हैं. और उन्हें देश का सिस्टम ही मार रहा है.  

1967 में रिलीज़ हुई हिंदी फिल्म उपकार हो, या फिर 2010 में रिलीज़ हुई पीपली LIVE, इन दोनों ही फिल्मों में किसान बहुत पीड़ित और मजबूर दिखाई देता है. आज के दौर में ज़्यादातर फिल्में किसानों पर आधारित नहीं होतीं. विडंबना ये है कि फिल्मों के विषय तो बदल गए लेकिन किसानों के हालात वैसे ही हैं, जैसे पहले थे.

आज हम और आप मुंह मांगे दामों पर खाने की चीज़े खरीदते हैं, लेकिन वो पैसा किसानों की जेब में नहीं जाता. बड़े बड़े शहरों में सिर्फ एक आलू से बने हुए चिप्स के पैकेट के लिए हम कई बार बहुत बड़ी कीमत दे देते हैं. लेकिन किसानों को उनके हक की कीमत कभी नहीं मिलती. उदाहरण के लिए अगर एक किलो आलू की कीमत 2 रुपये है तो 55 ग्राम आलू की कीमत होगी सिर्फ 11 पैसे. 
इसका मतलब ये है कि जिस आलू की कीमत सिर्फ 11 पैसे है.. उससे बनने वाले चिप्स के पैकेट के लिए आपको 20 रुपये चुकाने पड़ते हैं. और ये पैसा किसानों की जेब में नहीं.. बल्कि पूंजीपतियों और उद्योगपतियों की जेब में जाता है.

जय जवान.. जय किसान... ये नारा भारत की आत्मा से जुड़ा हुआ नारा है. लाल बहादुर शास्त्री ने ये नारा तब दिया था, जब पाकिस्तान ने 1965 में भारत पर हमला कर दिया था. उस दौरान देश में अनाज की भारी कमी थी. तब देश के जवानों और किसानों में, उत्साह का संचार करने के लिए शास्त्री जी ने देश को ये जादुई मंत्र दिया था. इस नारे का असर ये हुआ कि 1965 के युद्ध में भारतीय सेना ने पाकिस्तान को हरा दिया, और देश के किसानों ने खाद्यान्न के मामले में देश को आत्मनिर्भर बना दिया... लेकिन इसके बाद देश को अनाज के भंडार देने वाले किसानों की ज़िंदगी में कभी बहार नहीं आई. 

इस विश्लेषण के अंत में आपको लाल बहादुर शास्त्री का वो भाषण सुनना चाहिए जिसमें उन्होंने बड़े विश्वास के साथ जय जवान जय किसान का नारा दिया था. इन शब्दों को सुनते हुए आपको इस बात का एहसास होगा कि कैसे सरकारों और सिस्टम की नाकामी की वजह से इतने ताकतवर शब्दों की भी मौत हो जाती है.

अगर आज लाल बहादुर शास्त्री ज़िंदा होते..तो अपने इस नारे को दम तोड़ता हुआ देखकर बहुत दुखी होते. आपको याद रखना चाहिए कि जब एक जवान मरता है, तो देश की सीमाएं कमज़ोर होती हैं लेकिन जब एक किसान मरता है तो देश की धरती कमज़ोर हो जाती है. और देश के हर नागरिक पर इसका असर होता है.  सबसे बड़ी विडंबना ये है कि नीरव मोदी जैसे उद्योगपति भ्रष्टाचार करते हैं और कर्ज़ को छीनकर देश से बाहर भाग जाते हैं. जबकि ईमानदार किसानों को अपने हक़ की आवाज़ उठाने के लिए 180 किलोमीटर लंबी पैदल यात्राएं करनी पड़ती हैं. पिछले 70 वर्षों में सरकारों ने किसानों को हमेशा कर्ज़माफ़ी ही दी है.. उन्होंने कभी भी किसानों को इतना सक्षम नहीं बनाया कि वो खुद अपना कर्ज़ चुका सकें. 

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