ZEE जानकारीः सबसे बड़े लोकतंत्र की चुनावी प्रक्रिया पर सवाल उठाना सबसे बड़ा अविश्वास
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ZEE जानकारीः सबसे बड़े लोकतंत्र की चुनावी प्रक्रिया पर सवाल उठाना सबसे बड़ा अविश्वास

2019 के लोकसभा चुनावों में अब 10 महीने बचे हैं. और इससे पहले ही विपक्ष ने अपनी इच्छाधारी राजनीति शुरू कर दी है.

ZEE जानकारीः सबसे बड़े लोकतंत्र की चुनावी प्रक्रिया पर सवाल उठाना सबसे बड़ा अविश्वास

हमारे देश में हर साल औसतन 4 लाख 80 हज़ार सड़क दुर्घटनाएं होती हैं और इनमें डेढ़ लाख लोगों की हर साल मौत हो जाती है. लेकिन अगर हम आपसे कहें कि कार या बाइक की वजह से सड़क दुर्घटनाएं होती हैं, इसलिए लोगों को पैदल चलना शुरू कर देना चाहिए, तो आपको हंसी आ जा जाएगी. क्योंकि सड़क दुर्घटनाओं को रोकने के लिए पैदल चलना समस्या का हल नहीं है. इसी तरह से चुनावों में धांधली को रोकने के लिए EVM के बजाए बैलट पेपर से वोट करवाना इस समस्या का हल नहीं है. 2019 के लोकसभा चुनावों में अब 10 महीने बचे हैं. और इससे पहले ही विपक्ष ने अपनी इच्छाधारी राजनीति शुरू कर दी है. हमने इच्छाधारी शब्द का इस्तेमाल इसलिए किया क्योंकि विपक्ष जब किसी राज्य में चुनाव जीतता है तो वो EVM को सही ठहराता है, लेकिन जैसे ही विपक्षी पार्टियां कहीं चुनाव हारती हैं तो तुरंत ये आरोप लगा दिया जाता है कि EVM को सेट कर दिया गया है. लेकिन इस बार तो अभी चुनाव हुए भी नहीं हैं और विपक्ष पहले से ही EVM का विरोध कर रहा है. 

देश की 17 राजनीतिक पार्टियों के नेताओं ने चुनाव आयोग से मिलने का वक्त मांगा है. ये सभी पार्टियां चुनाव आयोग से 2019 का लोकसभा चुनाव, बैलट पेपर से करवाने की मांग करेंगी. वैसे तो पूरा विपक्ष ये आरोप लगाता ही रहता है, लेकिन इस बार इन आरोपों की अगुवाई पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी कर रही हैं. उन्हें EVM के बजाए बैलट पेपर पर ज्यादा भरोसा है. हालांकि ये अलग बात है कि ममता बनर्जी ने पश्चिम बंगाल में पिछले दो विधानसभा चुनाव EVM के ज़रिए हुई वोटिंग से ही जीते हैं. लेकिन इसके बावजूद वो बैलट पेपर का समर्थन करती हैं.  भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र हैं, और इस सबसे बड़े लोकतंत्र की चुनावी प्रक्रिया पर ही सवाल उठ रहे हैं. जो बहुत ख़तरनाक बात है. 2019 के लोकसभा चुनाव में, करीब 91 करोड़ वोटर होंगे. यानी ये दुनिया का सबसे बड़ा चुनावी अविश्वास है

वैसे आपको इसी वर्ष 14 मई की ये तस्वीरें भी देखनी चाहिएं. ये तस्वीरें पश्चिम बंगाल के पंचायत चुनावों की हैं. इन चुनावों में वोटिंग EVM से नहीं बल्कि बैलट बॉक्स से की गई थी. और फिर बैलट बॉक्स का क्या अंजाम हुआ था, ये पूरे देश ने देखा था. चुनावों में जमकर हिंसा हुई थी. कई जगहों पर Ballot box लूट लिए गए थे . Ballot Paper जला दिए गए थे और कई जगह Ballot Papers को तालाब में फेंक दिया गया था. 
यहां हम किसी व्यवस्था का पक्ष नहीं ले रहे, बल्कि हम आपको इन व्यवस्थाओं के परिणाम और असर दिखा रहे हैं. जो पार्टियां Ballot Papers से वोट करवाने की मांग कर रही हैं, उन्हें पश्चिम बंगाल की ये तस्वीरें भी देखनी चाहिएं. हैरानी की बात ये है कि ममता बनर्जी को अपने ही राज्य की तस्वीरें दिखाई नहीं दे रही हैं.

हमारे पास एक और उदाहरण भी है. पिछले महीने ही पाकिस्तान में बैलट पेपर से चुनाव हुए थे. और इन चुनावों में भी जमकर धांधली का आरोप लगा था. पाकिस्तान की दो विपक्षी पार्टियों PML-N और PPP की तरफ से धांधली के आरोप लगाए गए थे. इन पार्टियों का आरोप था कि चुनावी नतीजों को जानबूझकर देरी से घोषित किया गया. ये भी आरोप लगाया गया कि इन पार्टियों के Agents को काउंटिंग सेंटर से बाहर निकाल दिया गया था. और Voting Record के आधिकारिक Form की जगह हाथ से लिखे हुए पर्चे पकड़ाए गए. बात फिर वहीं आ जाती है कि क्या भारत में अब पाकिस्तान की ही तरह चुनाव होने चाहिएं ? क्या सिर्फ शक़ और पूर्वाग्रह के आधार पर EVM की व्यवस्था को खारिज किया जा सकता है ?

EVM पर सवाल उठाने वाले लोग सुप्रीम कोर्ट भी पहुंच चुके हैं. और 2013 में सुप्रीम कोर्ट ने एक फैसला लिय़ा था. इस फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने VVPAT यानी Voter-Verified Paper Audit Trail को पारदर्शी चुनावों के लिए ज़रूरी माना था . आपको बता दें कि VVPAT के ज़रिए मतदाता को ये पता चलता है कि उसने जिस प्रत्याशी के नाम का बटन दबाया है, वोट उसी को गया है.VVPAT एक Printer जैसी मशीन होती है. जब भी कोई वोटर EVM मशीन पर किसी उम्मीदवार को वोट देता है. तो VVPAT यूनिट से एक पर्ची निकलती है ये एक तरह से आपके वोट का Print Out होता है . जिसे वोटर कुछ सेकेंड्स तक देख सकता है. इस पर्ची पर उम्मीदवार का नाम और उसकी पार्टी का चुनाव चिह्न होता है. जिसे देखकर मतदाता को इस बात की तसल्ली हो जाती है कि उसका वोट सही जगह गया है. 

ज़रूरत पड़ने पर इन पर्चियों की संख्या को वोटों की संख्या से मिलाया जा सकता है. सरकार ये कह चुकी है कि 2019 के लोकसभा चुनावों में VVPAT का इस्तेमाल भी होगा. लेकिन इसके बावजूद विपक्षी दलों को EVM पर भरोसा नहीं है. आगे हम बैलट पेपर का तकनीकी विश्लेषण भी करेंगे. लेकिन उससे पहले ये देख लीजिए कि EVM और बैलट पेपर को लेकर हमारे देश की राजनीति में कितना बड़ा तूफ़ान आया हुआ है.अब आपको ये बताते हैं कि भारत में EVM की शुरुआत कब और कैसे हुई थी? 

EVM का इस्तेमाल भारत में पहली बार 1982 में केरल विधानसभा चुनाव के दौरान हुआ था. तब 50 पोलिंग स्टेशन्स में एक प्रयोग के तौर पर इनका इस्तेमाल हुआ था. लेकिन ये चुनाव विवादों में आ गया था क्योंकि EVM की उपयोगिता पर सवाल उठाते हुए सुप्रीम कोर्ट ने मतदान खारिज कर दिया था और इन 50 पोलिंग स्टेशनों पर दोबारा बैलट पेपर से वोटिंग करवाने का आदेश दिया था अपने फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने ये कहा था कि EVM को तब तक इस्तेमाल नहीं किया जा सकता, जब तक इस पर कोई स्पष्ट कानून ना बने. 

इसके बाद 1988 में संसद ने पहली बार Representation of the People Act 1951 में संशोधन किया गया और EVM के इस्तेमाल मंज़ूरी दे दी गई. नवंबर 1998 में प्रयोग के तौर पर 16 विधानसभा सीटों पर EVM का इस्तेमाल किया गया था. तब मध्य प्रदेश और राजस्थान में 5-5 सीटों पर और दिल्ली में 6 सीटों पर EVM का प्रयोग हुआ था. 

इसके बाद 2001 में तमिलनाडु, केरल और पश्चिम बंगाल के विधानसभा चुनावों में सभी सीटों पर EVM का प्रयोग हुआ और फिर 2004 के लोकसभा चुनाव में पहली बार पूरे देश ने ईवीएम के ज़रिए अपना वोट दिया. 2004 के चुनाव में अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में NDA हार गया था और तब सोनिया गांधी के नेतृत्व में UPA की सरकार आई थी. लेकिन तब कांग्रेस ने EVM कोई सवाल नहीं उठाए थे. 2009 के लोकसभा चुनाव में दोबारा केंद्र में यूपीए की सरकार आई थी. तब भी कांग्रेस ने इस पर कोई सवाल नहीं उठाया था. लेकिन जब 2014 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस हार गई उसके बाद से उसने EVM पर सवाल उठाना शुरू कर दिया

2004 से लेकर अब तक, हर विधानसभा और लोकसभा चुनाव में वोटिंग EVM के ज़रिये ही हुई है. अब हम बैलट पेपर का तकनीकी विश्लेषण करेंगे, हालांकि इसमें कोई तकनीक नहीं होती है. इसमें सब कुछ कागज़ों के ज़रिए होता है.देश में लोकसभा का पहला आम चुनाव 1952 में हुआ था. उस समय वोटिंग बैलट पेपर और बैलट बॉक्स के माध्यम से होती थी. लेकिन बैलट पेपर पर किसी भी उम्मीदवार का नाम या चुनाव चिह्न नहीं छपा होता था. बल्कि वो पहले से छपा हुआ एक ख़ास तरह का कागज़ होता था. जैसे ही मतदाता पोलिंग बूथ में जाता था, तो चुनाव कर्मचारी उसे वो कागज़ देते थे और फिर वो उस कागज़ को अपने मनपसंद उम्मीदवार के बक्से में डाल देता था. 

यानी उस वक्त कोई मुहर नहीं लगती थी और हर उम्मीदवार का अलग अलग बैलट बॉक्स होता था. ये चुनावी प्रक्रिया 1957 के लोकसभा चुनावों में भी अपनाई गई. इसके बाद 1960 के दशक की शुरुआत में इस प्रक्रिया पर सवाल उठने लगे और फिर 1961 में वोटिंग के लिए दूसरी प्रक्रिया की शुरुआत हुई. इस प्रक्रिया के तहत बैलट पेपर पर सभी उम्मीदवारों के निशान छपे होते थे और मतदाता को अपने मनपसंद उम्मीदवार के चुनाव चिह्न के आगे मुहर लगानी होती थी. 1961 में केरल में हुए विधानसभा चुनाव से ये प्रक्रिया शुरू हुई थी. 

और ये प्रक्रिया 1999 के लोकसभा चुनावों तक जारी रही. हालांकि बैलट बॉक्स से वोटिंग करवाने की ये प्रक्रिया पूरी तरह से Fool-Proof नहीं थी, क्योंकि बार बार चुनावों में बहुत धांधली होती थी. Booth Capturing होती थी और पोलिंग बूथ लूट लिए जाते थे. Booth Capturing को आप एक तरह की Manual Hacking भी कह सकते हैं. यानी ऐसी हैकिंग जो इंटरनेट या कंप्यूटर नेटवर्क के ज़रिए नहीं, बल्कि इंसान खुद अपने हाथों से करता है.

अब अगर बैलट पेपर से चुनाव करवाने की मांग मान ली गई और इसके बाद भी वही नतीजा आया और नरेंद्र मोदी जीत गये, तब क्या होगा ? तब क्या विपक्षी पार्टियां इस नतीजे को स्वीकार कर लेंगी? या फिर शायद ये पार्टियां तब EVM से चुनाव करवाने की मांग करने लगेंगी.

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