भारतीय सेना में गोरखा राइफल्स की कुल 7 रेजीमेंट्स हैं जिन्हें गोरखा ब्रिगेड कहा जाता है. गोरखा राइफल्स दुश्मनों के लिए मौत का दूसरा नाम है.
Trending Photos
नई दिल्ली: हमें पता है कि आपको अपनी सेना के बारे में जानना और उनके कारनामों को देखना अच्छा लगता है. इसीलिए ZEE NEWS ने आपको भारतीय सेना के बारे में हर जानकारी देने के लिए एक सीरीज शुरू की है जिसे आप हर रविवार रात 7.55 पर देख रहे हैं. इस सीरीज में हम हर हफ्ते आपको भारतीय सेना की एक रेजीमेंट के बारे में बताते हैं. इस हफ्ते आपको गोरखा राइफल्स के बारे में जानकारी मिलेगी.
गोरखा राइफल्स के बारे में दो बातें सबसे पहले बतानी जरूरी हैं. भारतीय सेना के पहले फील्ड मार्शल एस एच एफ जे मानेकशॉ जिन्हें हम सब सैम मानेकशॉ गोरखा राइफल्स के अफसर थे जिन्होंने बांगलादेश को आजादी दिलाई थी. भारतीय सेना के पहले चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ यानि CDS, जनरल बिपिन रावत भी एक गोरखा अफसर हैं.
भारतीय सेना के साथ 200 साल पहले शुरू हुई गोरखों की यात्रा
भारतीय सेना में गोरखा राइफल्स की कुल 7 रेजीमेंट्स हैं जिन्हें गोरखा ब्रिगेड कहा जाता है. हिमालय की गोद में बसा नेपाल कभी किसी विदेशी शासक का गुलाम नहीं रहा. सदियों से नेपाल और भारत का गाढ़ा रिश्ता रहा है, सांस्कृतिक और धार्मिक परंपराएं साझी हैं, दोनों देशों का रोटी-बेटी का रिश्ता रहा है. तीर्थयात्राओं, व्यापार और शिक्षा के लिए दोनों देशों के बीच सदियों पुराना संबंध है. सैनिक परंपरा भी साझी रही है और भारतीय राजाओं की सेनाओं में नेपाली योद्धा शामिल होते रहे हैं. लेकिन भारतीय सेना के साथ गोरखों की यात्रा 200 साल पहले शुरू हुई थी.
1814 से 1816 के बीच हुए एंग्लो-नेपाल युद्धों के दौरान ब्रिटिश सैनिक अधिकारियों को नेपालियों की वीरता ने बहुत ज्यादा प्रभावित किया. प्रसिद्ध नेपाली सेनापति अमर सिंह थापा ने जब हिमाचल प्रदेश के मलौन के किले में अंग्रेज जनरल डेविड ऑक्टरलोनी के सामने हथियार डाले तो उन्हें अपने हथियारों और ध्वज के साथ सम्मान से जाने की इजाजत दी गई. इन्हीं सैनिकों से 24 अप्रैल 1815 को हिमाचल प्रदेश के सुबाथू में अंग्रेजों ने एक रेजीमेंट बनाई जिसे पहली नसीरी बटालियन नाम दिया गया. ये आज भारतीय सेना की पहली गोरखा राइफल्स कहलाती है. अगले साल मार्च 1816 में नेपाल और ईस्ट इंडिया कंपनी के बीच हुई सुगौली की संधि में गोरखा सैनिकों की भर्ती की शर्त भी थी जिसने आगे कई गोरखा रेजीमेंट्स का रास्ता साफ कर दिया.
जापानियों के खिलाफ लड़ाई में भी गोरखा जमा चुके हैं धाक
अंग्रेज जब भारत को आजाद करने के बाद वापस जा रहे थे तो वो अपने साथ 2,6,7 और 10 गोरखा राइफल्स को ले गए जो आज भी इंग्लैड की सेना का हिस्सा हैं. गोरखों ने अपनी बहादुरी से पूरी दुनिया में नाम कमाया और जापानियों के खिलाफ लड़ाई में उन्होने अपनी धाक बिठा दी. भारत के पहले फील्ड मार्शल मानेकशॉ खुद को गोरखा सैनिकों की तर्ज पर सैम बहादुर कहलाने में गर्व महसूस करते थे. कारगिल युद्ध में 1/11 गोरखा राइफल्स के लेफ्टिनेंट मनोज पांडे ने परमवीर चक्र हासिल किया. ये शांत और हंसमुख जवान मैदान में ऐसे योद्धा बन जाते हैं जिसके सामने खड़ा होना नामुमकिन हो जाता है. तिरछा गोरखा हैट और खुखरी इनकी पहचान है. और आयो गोरखाली इनका युद्धघोष है.
अब आपके लिए एक जानकारी . भारतीय सेना की कई रेजीमेंट्स के साथ राइफल्स जुड़ी है जैसे जम्मू-कश्मीर राइफल्स, राजपूताना राइफल्स या गोरखा राइफल्स. 18 वीं शताब्दी तक इंफेंट्री का मुख्य हथियार मस्केट थीं जिन्हें हर फायर के बाद दोबारा भरने में समय लगता था और उनसे निशाना लगाना मुश्किल था. 18 वीं शताब्दी के आखिरी दशक में राइफलों का सेनाओं में इस्तेमाल शुरू हुआ. इन्हें RELOAD करना आसान था और इनसे अचूक निशाना लगाया जा सकता था.
इन राइफलों से सबसे अच्छे सैनिकों को लैस किया गया और उन्हें लड़ाई के मैदान में चुने हुए दुश्मनों को मारने या विशेष अभियानों में इस्तेमाल किया गया. इनकी वर्दी में अंतर लाए गए. इनके रैंक और बटन धातु के चमकदार होने के बजाए काले किए गए और बेल्ट भी सफेद के बजाए काली रंग की बनाई गई. ये सब इसलिए ताकि लड़ाई में इनको छिपने में मदद मिल सके. ये उस समय लड़ाई में सबसे बेहतरीन फोर्स मानी जाती थी. आज पूरी सेना ही राइफलों से लैस होती है लेकिन पुरानी परंपरा अब भी वर्दी में नजर आती है. गोरखा राइफल्स सहित दूसरी राइफल्स रेजीमेंट्स में रैक और बेल्ट काले रंग के होते हैं.