28 साल पहले मुलायम सिंह ने कांशीराम को बनवाया था सांसद, आज मायावती दे रहीं रिटर्न गिफ्ट
Advertisement
trendingNow1517997

28 साल पहले मुलायम सिंह ने कांशीराम को बनवाया था सांसद, आज मायावती दे रहीं रिटर्न गिफ्ट

भारतीय राजनीति के सबसे बड़े पहलवान मुलायम सिंह यादव के लिए हनुमान जयंती गुड फ्राइडे बनकर आई. मुलायम सिंह  यादव जब अपने जीवन का अंतिम लोकसभा चुनाव लड़ने की घोषणा कर रहे थे तब उनके लिए वोट मांगने के लिए उनकी चिर प्रतिद्वंद्वी मायावती मंच पर मौजूद थीं.

24 साल बाद सपा और बसपा के दिग्‍गज नेता एक साथ एक मंच पर दिखे.

नई दिल्ली: भारतीय राजनीति के सबसे बड़े पहलवान मुलायम सिंह यादव के लिए हनुमान जयंती गुड फ्राइडे बनकर आई. मुलायम सिंह यादव जब अपने जीवन का अंतिम लोकसभा चुनाव (lok sabha elections 2019) लड़ने की घोषणा कर रहे थे तब उनके लिए वोट मांगने के लिए उनकी चिर प्रतिद्वंद्वी मायावती मंच पर मौजूद थीं. यही नहीं, अपने पूरे राजनैतिक कैरियर में मुलायम सिंह को पानी पी-पीकर कोसती रहीं मायावती ने दो टूक लहजे में कहा कि मुलायम सिंह यादव ही पिछड़ों के सबसे बड़े नेता हैं. मायावती ने पूरी दृढ़ता से उस गेस्ट हाउस कांड का भी जिक्र किया जिसके कारण दोनों पार्टियों के संबंध हमेशा के लिए बिगड़ गए थे.

PM मोदी ने गठबंधन को सराब बताया, लेकिन ये जनसमूह बीजेपी को हटाने के नशे में है: मायावती

1991 का चुनाव
मायावती इसलिए भी मुलायम की तारीफ सहजता से कर पा रही थीं क्योंकि पहली बार मुलायम के साथ उनके अनुज शिवपाल यादव नहीं थे. क्योंकि गेस्टहाउस कांड में अगर किसी व्यक्ति पर सबसे ज्यादा दोष लगा तो वह शिवपाल थे. भारतीय राजनीति के एक बार फिर बीजेपी विरोधी हो जाने की प्रक्रिया में मायावती चाहे अनचाहे मुलायम सिंह का वह अहसान उतार रही थीं, जो मुलायम सिंह यादव ने 28 साल पहले बसपा पर किया था.

24 साल बाद एक मंच पर थे मुलायम और मायावती, करते दिखे एक-दूसरे की तारीफ

1991 में जब बसपा उत्तर प्रदेश में एक मामूली ताकत थी उस समय मुलायम सिंह यादव बसपा के संस्थापक कांशीराम को इटावा लाए थे. मुलायम सिंह के समर्थन से उस जमाने में दलितों के महत्पूर्ण नेता कांशीराम सामान्य सीट से चुनकर लोकसभा गए थे. इस तरह चुनावी राजनीति में मुलायम सिंह के सहयोग से कांशीराम को वह मुकाम हासिल हो गया जो डॉ राम मनोहर लोहिया चाहकर भी दलितों के मसीहा डॉ भीमराव अंबेडकर को नहीं दिला पाए थे. आजाद भारत में डॉ अंबेडकर भले ही चुनाव न जीत पाए हों, लेकिन कांशीराम सामान्य सीट इटावा से संसद पहुंचे. इटावा की सीट इस समय सुरक्षित सीट हो गई है. उस चुनाव में कांशीराम ने 1.44 लाख वोट हासिल कर बीजेपी के प्रत्याशी को चुनाव में पटखनी दी थी.

1993 का विधानसभा चुनाव
लोकसभा चुनाव 1991 में सपा-बसपा का इस तरह करीब आना भारतीय राजनीति के लिए निर्णायक साबित हुआ था. इसका असली परिणाम तब देखने में सामने आया जब 6 दिसंबर 1992 को अयोध्या में मस्जिद ढहाने के बाद यूपी की बीजेपी सरकार बर्खास्त कर दी गई. उसके बाद 1993 में विधानसभा चुनाव सपा-बसपा ने मिलकर लड़ा और बीजेपी को धूल चटा दी. यूपी की राजनीति का यह घटनाक्रम तब चल रहा था जब समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव स्कूल में पढ़ते रहे होंगे और मायावती ने अपने जिन भतीजे को मुलायम सिंह से मंच पर आशीर्वाद दिलाया उनका जन्म भी नहीं हुआ होगा.

मायावती और अखिलेश की जोड़ी
उस जमाने में जो तेवर मुलायम और कांशीराम की जोड़ी दिखा रही थी, इस लोकसभा चुनाव में वैसी ही हुंकार मायावती और अखिलेश की जोड़ी भर रही है. उस समय कांशीराम ने सपा को बड़े भाई का दर्जा दिया था तो इस समय अखिलेश ने वही सम्मान बसपा को दिया है. दोनों पार्टियों ने अपने चुनाव चिन्ह एक दूसरे में समाहित कर साइकल का 'सा' और हाथी का 'थी' मिलाकर साथी बना लिया है.

जाहिर है कि मुलायम सिंह यादव के लिए मैनपुरी से जीतना बड़ी बात नहीं है. वे इस सीट से लगातार जीतते रहे हैं. इस जीत के लिए उन्हें बसपा या किसी दूसरी पार्टी के समर्थन की जरूरत नहीं है. इसलिए मायावती मुलायम को उस तरह चुनाव नहीं जिता रही होंगी जिस तरह मुलायम सिंह ने कांशीराम को जिताया था, लेकिन फिर भी यह उनकी एक विनम्र रिटर्न गिफ्ट तो दिखती है.

(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)

Trending news